साहित्य अकादमी की स्थापना 1954 में की गई थी। अब तक लगभग दो हज़ार के करीब साहित्यकारों को भिन्न भाषाओं में यह पुरस्कार दिया जा चुका है। हर लेखक का सपना होता है कि उसका नाम भी साहित्य अकादमी पुरस्कारों की सूची में शामिल हो जाए। इसके लिये लोग प्रयास भी करते हैं और जुगाड़ भी। एक ज़माना था केवल एक विशेष विचारधारा वाले लोगों के नाम आमतौर पर सूची में देखे जा सकते थे। हिन्दी साहित्य की एक विशेषता है कि वह साहित्यकारों तक को गुटों में बांटने की क्षमता रखता है। कोई बाएं हाथ से लिखता है तो कोई दाएं से। सच तो यह है कि साहित्य दिल से लिखा जाना चाहिये और पुरस्कारों को राजनीति से जितना दूर रखा जा सके, रखा जाने का प्रयास करना चाहिये।
2015 की यादें पूरे साहित्य जगत को याद होंगी जब एक-एक करके 39 लेखकों ने अपने-अपने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिये थे। इस पुरस्कार वापसी का कारण बताया गया था कन्नड़ लेखक कलबुर्गी की हत्या और उस पर साहित्य अकादमी की प्रतिक्रिया।
इस पुरस्कार वापसी की प्रक्रिया से महसूस किया गया कि साहित्य अकादमी सम्मानों की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंची है और अकादमी का अपमान हुआ है।
इस सिलसिले में भारतीय संसद ने एक समिति का गठन किया जिसमें पद्मविभूषण सोनल मानसिंह, भारतीय जनता पार्टी के सांसद एवं अभिनेता मनोज तिवारी एवं दिनेश लाल यादव ‘निरहुआ’ के साथ-साथ वाई.एस.आर.सी.पी. पार्टी के सांसद एवं फ़िल्म अभिनेता मार्गनी राम भरत भी शामिल हैं। इस समिति में कांग्रेस के सांसद के. मुरलीधरन और सी.पी.एम. के ए. ए. रहीम भी शामिल हैं।
इस समिति में इस विषय पर गंभीर चर्चा की गई कि पुरस्कार वापसी रोकने के लिये क्या-क्या कदम उठाए जाने चाहिये। समिति ने संसद को जो सिफ़ारिश दी उसके अनुसार, “अकादमी पुरस्कारों के लिए शॉर्टलिस्ट किए गए उम्मीदवारों से पहले ही यह शपथ पत्र लेने का सुझाव दिया है कि उन्हें दिए जा रहे सम्मान को ‘राजनीतिक कारणों’ से वापस नहीं किया जाएगा।
पर्यटन, परिवहन और संस्कृति पर संसदीय स्थायी समिति ने सोमवार को राज्यसभा को अपनी रिपोर्ट सौंपी, जिसमें सुझाव दिया गया है कि साहित्य अकादमी जैसे संस्कृति मंत्रालय के तहत विभिन्न साहित्यिक और संस्कृति निकायों द्वारा पुरस्कार इस तरह की शपथ के बिना नहीं दिए जा सकते। साथ ही, अवॉर्ड वापस किए जाने की स्थिति में पुरस्कार विजेता पर भविष्य में किसी भी पुरस्कार के लिए विचार नहीं किया जाएगा।
यह माना जा रहा था कि 2015 में पुरस्कार वापसी आंदोलन के कारण साहित्यिक न हो कर राजनीतिक थे। आरोप यह लगाए जा रहे थे कि कालबुर्गी की हत्या पर न तो साहित्य अकादमी ने कोई वक्तव्य जारी किया और न ही कोई शोक सभा आयोजित की।
वाई.एस.आर. कांग्रेस पार्टी सदस्य वी विजयसाई रेड्डी की अध्यक्षता वाली समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि पुरस्कार लौटाने से जुड़ी ऐसी अनुचित घटनाएं अन्य पुरस्कार विजेताओं की उपलब्धियों को कमतर करती हैं और पुरस्कारों की समग्र प्रतिष्ठा और ख्याति पर भी असर डालती हैं। समिति ने ऐसे पुरस्कार विजेताओं की दोबारा नियुक्ति पर सवाल उठाया जो अकादमी का अपमान करके इसमें शामिल हुए थे। समिति को इस बात पर भी आपत्ति है कि जिन लोगों ने पुरस्कार वापसी आंदोलन में हिस्सा लिया था, वे अकादमी की गतिविधियों से दोबारा जुड़ गये। ऐसी अनुमति नहीं दी जानी चाहिये।
समिति ने रिपोर्ट में कहा कि साहित्यिक पुरस्कारों में, “राजनीति के लिए कोई जगह नहीं है… इसलिए, समिति का सुझाव है कि जब भी कोई पुरस्कार दिया जाए, तो इसे पाने वाले से शपथ जरूर ली जाए, ताकि वह राजनीतिक कारणों से इसे वापस न लौटाए; क्योंकि यह देश के लिए अपमानजनक है।”
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफ़ेसर जवरीमल पारेख ने समिति के इस कदम को अनुचित बताया और इसे संविधान में दी गई अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का हनन बताया। उनके अनुसार विरोध करना भी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का ही भाग है। किसी भी साहित्यकार को ऐसे शपथ-पत्र पर हस्ताक्षर करवाना उनका सबसे बड़ा अपमान होगा।
कांग्रेस के सांसद के. मुरलीधरन और सी.पी.एम. के ए. ए. रहीम ने समिति के प्रस्ताव से असहमति दर्ज करवाई। साहित्यकार समाज अपनी-अपनी राजनीतिक विचारधारा के हिसाब से इस प्रस्ताव पर अपनी राय प्रस्तुत कर रहा है। यहां तक कि समाचारपत्र और पोर्टल भी अपनी-अपनी राजनीति इस प्रस्ताव के माध्यम से कर रहे हैं।
2014 यानी कि भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद साहित्यकारों के पुरस्कार वापसी की एक लहर सी देखी गई। इन लेखकों और विचारकों ने देश में बढ़ती असहिष्णुता पर निराशा व्यक्त की थी और विरोध स्वरूप अपने पुरस्कार लौटाने का फ़ैसला किया था।
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार 2015 में वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी पहले साहित्यकार थे जिन्होंने अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की घोषणा की थी। उनके बाद तो जैसे एक कतार सी लग गई थी – नयनतारा सहगल, कृष्णा सोबती, उदय प्रकाश, काशीनाथ सिंह, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, केकी दारूवाला, अंबिकादत्त, मुनव्वर राणा, खलील मामून, सारा जोज़फ, इब्राहिम अफ़ग़ान और अमन सेठी जैसे बड़े नाम इस सूची में शामिल हैं। बात में कुछ ऐसी ख़बरें भी सामने आईं कि साहित्यकार पुरस्कार लौटाने की घोषणा तो कर देते हैं मगर स्मृति चिन्ह और पुरस्कार राशि नहीं लौटाते।
वरिष्ठ साहित्यकार दिविक रमेश का कहना है कि वे साहित्य अकादेमी से बाहर की समिति की ऐसी सिफ़ारिश का विरोध करते हैं क्योंकि साहित्य अकादमी एक स्वायत्त संस्था है। यदि यह निर्णय साहित्य अकादमी द्वारा लिया जाता तो समझ में आ सकता था मगर सरकार द्वारा ऐसा निर्णय एक स्वायत्त संस्था पर थोपना उचित नहीं है। इससे साहित्य अकादमी की स्वायतत्ता पर सवालिया निशान खड़े हो जाते हैं। जब कोई साहित्यकार अपना पुरस्कार लौटाता है तो अपमान उस ज्यूरी का भी होता है जिसने उसकी कृति को सम्मान के योग्य माना था। सरकार को स्वायत्त संस्था के रूप में, उससे जुड़े मामलों से दूरी बनाए रखनी चाहिये।
दिविक रमेश के अनुसार यह कहना भी ग़लत होगा कि कुलबुर्गी की हत्या पर साहित्य अकादमी ने कोई वक्तव्य जारी नहीं किया। अकादमी ने विज्ञप्ति के रूप में एक पत्र दिनांक 10 अक्टूबर, 2015 तत्कालीन अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के हस्ताक्षर से जारी किया था जिसमें कलबुर्गी की हत्या की निंदा की गई है और शोक भी व्यक्त किया गया है। सच तो यह है कि साहित्य अकादमी ने इस संदर्भ में एक प्रस्ताव भी पारित किया जिस पर अध्यक्ष श्री विश्वनाथ तिवारी और उपाध्यक्ष चंद्रशेखर कंबार के हस्ताक्षर मौजूद हैं। यह प्रस्ताव 23 अक्टूबर 2015 को जारी किया गया।
दिविक रमेश का कहना है कि वे पुरस्कार वापसी को अपना विरोध दर्ज करवाने का सही तरीका नहीं मानते। उनके अनुसार साहित्य अकादमी के पास पुरस्कार राशि वापिस लेने का कोई प्रावधान ही नहीं है। साहित्यकारों को ऐसा माहौल पैदा नहीं करना चाहिये जिससे सरकार को साहित्य अकादमी जैसी संस्थाओं की स्वायतत्ता में दख़ल देने का मौका मिले।
समस्या यह है कि हर पक्ष राजनीति कर रहा है और दूसरे पक्ष को नसीहत दे रहा है कि साहित्य में राजनीति नहीं होनी चाहिये… साहित्य की राजनीति तो इतनी बदशक्ल है कि राजनेताओं को साहित्यकारों से राजनीति का प्रशिक्षण लेना चाहिये।
याद रहे कि साहित्य अकादमी की स्थापना 1954 में की गई थी। अब तक लगभग दो हज़ार के करीब साहित्यकारों को भिन्न भाषाओं में यह पुरस्कार दिया जा चुका है। हर लेखक का सपना होता है कि उसका नाम भी साहित्य अकादमी पुरस्कारों की सूची में शामिल हो जाए। इसके लिये लोग प्रयास भी करते हैं और जुगाड़ भी। एक ज़माना था केवल एक विशेष विचारधारा वाले लोगों के नाम आमतौर पर सूची में देखे जा सकते थे। हिन्दी साहित्य की एक विशेषता है कि वह साहित्यकारों तक को गुटों में बांटने की क्षमता रखता है। कोई बाएं हाथ से लिखता है तो कोई दाएं से। सच तो यह है कि साहित्य दिल से लिखा जाना चाहिये और पुरस्कारों को राजनीति से जितना दूर रखा जा सके, रखा जाने का प्रयास करना चाहिये।
आपने बहुत अच्छा संपादकीय लिखा। हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं आपको। तेजेंद्र जी हर क्षेत्र की गंदी राजनीति वहां की निष्पक्षता को खत्म कर देती है। अकादमी कोई हो जहां जुगाड जैसे हथकंडे अपना कर पुरस्कार हासिल किए जाते हो,वहां वापसी का भी प्रश्न नही आयेगा। जुगाड़ू सम्मान को कौन वापस करेगा। इन सब बातों में तनाव और पीड़ा बढ़ाने वाली बात सिर्फ उस विशुद्ध पाठक के लिए है, जो ऐसे साहित्यकारों की गलती से पुस्तकें पढ़ने के लिए खरीद कर लाएगा और हताश होगा।
नमस्कार तेजेन्द्र जी
बहुत बहुत बधाई आपको इस साहित्यिक आँखमिचौनी पर इतनी स्पष्टता से लिखने के लिए। आपके सभी संपादकीय सशक्त होते हैं इसमें तो कहीं कोई संशय है ही नहीं। वैसे भी हर जगह तो राजनीति है। कौनसा क्षेत्र इससे विहीन है?
जुगाड़ होते भी हैं और नहीं भी होते, राजनीति तो लेखन क्षेत्र में भी है ही। मुझे तो लगता है कि बिना किसी अपेक्षा के अपना काम हर व्यक्ति करता चले, वह खुद में कितना ईमानदार है, इसको मद्देनजर रखते हुए चरैवेति चरैवेति – – –
आपके संपादकीय झंझोड़ते भी हैं कभी शांत रहने का संदेश भी देते हैं।
अति साधुवाद
इस ज्वलंत विषय पर इतनी विशद चर्चा के लिए आपको साधुवाद। साहित्यिक पुरस्कारों की अपनी राजनीति है। उनको पाने से अधिक चर्चा लौटाने पर होती है। कहावत है- बदनाम हुए तो क्या नाम न हुआ! बहुत-से लोग पुरस्कार पाने के लिए तमाम जुगाड़ और टिप्पस भिड़ाते हैं। इसलिए अनेक साहित्यकार पुरस्कार की राजनीति से दूर रहते हैं- जाको मुख देखत दुख उपजत, ताको करनी परी सलाम।
साहित्य तो स्वात:सुखाय होता है। बाकी सब उसका उपोत्पाद। आप अपना साहित्य रचिए।आप राजनीति में क्यों पड़ते हैं?
मैं आपसे बिल्कुल सहमत हूँ, क्योंकि पहले साहित्य पुरस्कार मिलना बड़ी बात लगता था आज हर दूसरे व्यक्ति को हासिल हो जाता है ये कैसे होता है, नहीं मालूम।
आपने बहुत सी बातों को उजागर किया है, बहुत ख़ूब कहा है आपने..
आपकी हर संपादकीय किसी न किसी मुद्दे से आरंभ होती है और फिर किसी न किसी संदेश के साथ पूरी होती है।
इस बार की संपादकीय में पुरस्कारों की राजनीति और राजनीति के पुरस्कार पर बहुत गंभीर विमर्श किया गया है। राजनीति किस तरह से साहित्य को प्रभावित करती है। किस तरह से पुरस्कारों में लेनदेन होते हैं। जहां पहले पुरस्कार लेने और उन पुरस्कारों की वापसी साहित्यकारों के चरित्र और चाल- चलन को दर्शाता है, वहीं राजनीतिक लाभ लेने के उद्देश्य से साहित्यकारों का दो गुटों में बंटकर साहित्य अकादमी को अखाड़ा बना देना भी उचित नहीं कहा जा सकता है।
साहित्यकार राजनेता नहीं होता। वह हर जाति,धर्म और क्षेत्र का समान आदर करता है जबकि राजनेता इन्हीं के आधार पर वोट बटोरता है।इसलिए साहित्यकार को राजनीति से ऊपर उठकर जन कल्याण की नीति पर अमल करना चाहिए।
इसमें आपने साहित्यक राजनीति की परतें उधेड़ी हैं और साहित्यकार की स्वार्थ और लोभ की प्रवृत्ति से निवृत्ति का संदेश दिया है।
हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीय!
सादर,
आपका
– गुणशेखर
आपना सही विषय उठाया है। साहित्य अकादमी के पुरस्कार देते समय कोई राजनीतिक भेदभाव नहीं होता। फिर वे पुरस्कृत विद्वान राजनीति की दलदल में इन पुरस्कारों को फेंक कर केवल अपनी दीन-हीन मानसिकता को ही जाहिर करते हैं और स्वयं को उस पुरस्कार के अयोज्ञ घोषित करते हैं । यदि वे वास्तव में उस पुरस्कार को अपनी जूती की नोक पर रखने के बदले , राजनीतिक परिस्थितियों को अपनी कलम की नोक पर रखते ….!
Your Editorial deals with an important issue relating to the presentation of various awards.
A good decision taken by the panel that the Sahitya Academy Awards cannot be returned and that the recipients have to stand by the awards once they accept them.
No whim or will can justify its return.
Isn’t it true that an award is announced usually after taking the nod from a proposed recipient?
Warm regards
Deepak Sharma
आपने बहुत सही कहा है। मेरे मन में बार-बार यही प्रश्न उठा कि जब पुरस्कार लौटाने की बात आती है तो राशि को भी लौटाया जाना चाहिए। जहां तक मुझे पता है अशोक वाजपेयी जी ने पुरस्कार लौटाने की घोषणा तो की थी परंतु पुरस्कार राशि लौटाने जैसा कुछ नहीं कहा था।
आज से ही नहीं अपितु लंबे समय से साहित्य राजनीति का अखाड़ा बनी हुई है। इसका शुद्धिकरण करते हुए प्रेमचंद कहते हैं कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है।
हार्दिक धन्यवाद,इस तरंगित तरिणी के समान,शान्ति से प्रवाहित संपादकीय के लिए तेजेन्द्र जी, जिसके तट पर बैठकर आनंद लिया जा सकता है क्योंकि हम तो उस श्रेणी के हैं जिनके लिए:
‘मोको कहां सीकरी सों काम”
बस
नदी किनारे बैठिके,आनन्द से आनन्द लेय।
बुनियादी सोच को गहरे से सोचा जाना चाहिए। हमारे साहित्यकार भी बाँट दिए गए हैं – पुरस्कृत और अपुरस्कृत- और इसमें हमारे बहुत से लेखक भी शामिल हैं, जो पुरस्कृतों को इतना महान बनाने में तुले हैं कि वे समझें कि वे ही पुरस्कार वापसी कर गलत के विरोध में बड़ी लड़ाई लड़ सकते हैं, अपुरस्कृत मामूली लेखकों की क्या औकात कि वे लड़ सकें।
ऐसे विचारक शुद्ध सरकारी सम्मानों जैसे पद्मश्री आदि को भी लेखकों के भरोसे संचालित स्वायत्त संस्थाओं के पुरस्कारों के साथ मिलाकर भ्रम पैदा किया करते हैं। खैर।
पुरस्कार प्राप्ति और फिर उसकी वापसी को जरूरत से ज्यादा महत्व देते हुए सारी बहस को उसी के इर्द-गिर्द समेटने के स्थान पर स्वायत्त संस्थाओं की स्वायत्ता पर हो रहे आक्रमण अर्थात छीना-झपटी का विरोध होना चाहिए जिसमें पुरस्कृत- अपुरस्कृत सब सम्मिलित हों।
विरोध के अन्य तरीके भी हो सकते हैं।कुछ नामवर सिंह जी ने भी सुझाए थे।
बुनियादी सवाल तो यही है। मसलन स्वायत्त संस्था के रूप में साहित्य अकादेमी से जुड़ा हर निर्णय लोकतांत्रिक रूप में साहित्य अकादेमी के द्वारा ही लिया जाना चाहिए। उससे बाहर की कोई भी सत्ता यदि निर्णय लेगी तो आज पुरस्कार संबंधी बात हो रही है, कल को क्या कार्यक्रम किया जाए और क्या नहीं जैसे कितने ही अधिकार छिनते चले जाएँगे।
जिस तरह साहित्य अकादमी का पुरस्कार दिया जाता है वह बंद कर देना चाहिए. राजनीति तो यहां भी होती है. साहित्य अकादमी के कमेटी में बैठे लोग अपने अपने लोगों को पुरस्कार देते हैं. जिस तरह विधायक और सांसद चुने जाते हैं उसी तरह साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी चुना जाना चाहिए. साहित्य अकादमी सेट करें कि किस किताब पर पुरस्कार देना है. उस किताब पर राय पाठकों से ली जानी चाहिए. जिस किताब पर पाठकों की राय अधिक आए उस लेखक को साहित्य अकादमी का पुरस्कार दिया जाना चाहिए.
हमेशा की तरह बहुत अच्छा लिखा गया संपादकीय जिसमें साहित्य की विधा को उजागर किया गया। आपने बहुत अच्छा प्रश्न उठाया है कि पुरस्कार को राजनीति के साथ नहीं जोड़ना चाहिए।
लेखक की कुशलता और उसकी कलम के आधार पर है उसे पुरस्कार मिलना चाहिए।
तेजेंद्र शर्मा सर जी
धन्यवाद
iसम्पादकीय का शीर्षक आकर्षक है
पुरस्कार और सम्मान देने वाली संस्था अगर अपनी कोई आचारसंहिता निर्धारित करती है तो इसमें कोई बुराई नहीं है ।
साहित्य, कला और विज्ञान समाज का दर्पण कहलाते हैं तो इस दर्पण का स्वच्छ रखा जाना भी अनिवार्य है । दिविक रमेश जी के विचारों से और तेजेन्द्र जी आपके चिंतन से मैं सहमत हूँ ।
Dr Prabha mishra
जहाँ तक मैं समझता हूँ पुरस्कार लौटाने वाले दो चार को छोड़ कर सभी किसी राजनैतिक विचार धारा या दल विशेष के समर्थन / विरोध में यह करते हैं जबकि उन्हें प्रदत्त सम्मान किसी विचारधारा के कारण नहीं वरण उनके साहित्यिक अवदान के लिए दिया जाता है | दूसरी बात यदि वे इतने ही क्षुब्द हैं दुखी है तो सम्मान लौटाने की घोषणा के साथ ही उन्हें प्रदत्त सम्मान पत्र उपहार और नगद राशी भी आवश्यक रूप से लोटाना चाहिए बेशर्मो की तरह घोधानावीर बनाना और प्राप्तियों का मोह ना छोड़ पाना उनका चारित्रिक अवमूल्यन ही साबित करता है
साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए राजनीति भी की जाती है, जुगाड़ वाली बात मैंने भी सुनी है। बगैर आग के धुँआ नहीं उठता। साहित्यकार को राजनीति से दूर रहना चाहिए। अगर लिप्त भी रहें तो किसी सम्मान का अपमान करने का कोई अधिकार नहीं।
लेखक एक गरिमा रखता है और उस गरिमा को बनाए रखें।
आपके संपादकीय हमेशा ही किसी महत्वपूर्ण मुद्दे को उठाते हैं और कई पहलू दिखाने के बाद पाठक को अपना दृष्टिकोण निश्चित करने के लिए छोड़ देते हैं, आप स्वयं तटस्थ दर्शक की तरह अपनी पैनी नज़र बनाये रखते हैं।
मनुष्य के साथ ही जुगाड़ और जोड़- तोड़ पैदा हुआ है शायद। नोबेल, ऑस्कर और ग्रैमी जैसे पुरस्कारों के लिए जब लॉबिंग होती है तो अकादमी पुरस्कार इससे मुक्त कैसे रह सकते हैं? भारत के लोग यूं भी जुगाड़ में माहिर होते हैं। पुरस्कार पाने वालों को कोई शपथ पत्र क्या बांँधेगा , जब बड़े स्वार्थ सामने हों तो पुरस्कार वापसी को रोकना सम्भव नहीं है। बाकी सब राम भरोसे चलता रहा है और चलता रहेगा…
आपके संपादकीय पढ़ना अच्छा लगता है, उसके लिए धन्यवाद। मनुष्य की अच्छाइयों और भविष्य के लिए कुछ आशा दिखाती नहीं, कोई चमत्कार हो, तो बात अलग है।
भारत की साहित्य अकादमी एक स्वायत्त संस्था है जिसके द्वारा भारत संघ की मान्य भाषाओं के प्रतिभाशाली साहित्यकारों को उनके द्वारा सृजित साहित्य की श्रेष्ठता और गुणवत्ता के आधार पर पुरस्कृत, सम्मानित किया जाता है,परन्तु यहाँ हर संस्था के कार्यों को राजनीतिक नजारिये से देखने और उसे बदनाम करने
का एक चलन भी है।आपने इस महत्त्वपूर्ण सम्पादकीय में इन सभी विन्दुओं पर विभिन्न पक्षों की बात रखते हुए अपना निरपेक्ष मत रखा है।साधुवाद और बधाई,आपको।
‘पुरस्कार उन को मिलते हैं, जो जुगाड़ भिड़ा पाते हैं।’ जब भी किसी को कोई पुरस्कार मिलता है, सुनने वाला यहीं प्रतिक्रिया देता है, इसमें कितना सच है , नहीं पता, पर जिनको स्वत: उनके सही अवदान पर मिलता है, उनके बारे में प्रायः यहीं सुनने को मिलता है कि कहीं जरुर जुगाड़ किया होगा। पुरस्कार वापसी वाले तो आपसी जुगाड़ से ही पुरस्कार लेते होंगे। लेकिन इस सबसे नुकसान हुआ जेनुइन लेखकों को।
पूरी राजनीति से जुड़ा मुद्दा अपने उठाया, वैसे कोई भी जेनुइन लेखक यह नहीं लिख कर देगा कि अगर उसे पुरस्कार दिया जाता है तो वह लौटायेगा नहीं।
आपने अपने संपादकीय द्वारा पाठकों को बीते पल की याद दिला दी। सम्मान वापसी का वह दौर बेहद दुःखद था। मुझे तो लगता है सम्मान वापसी वही कर सकते हैं जिन्हें सम्मान जुगाड़ से मिला हो। एक सच्चा साहित्यकार सिर्फ लिखना जानता है। यही कारण है, वह किसी गुट से जुड़ ही नहीं पाता या वह स्वयं को इस उस माहौल से जोड़ ही नहीं पाता। इसमें दो राय नहीं है कि आज न केवल साहित्य वरन साहित्यकार भी अनेक खेमों में बंटे हुए हैं। सम्मान और पुरस्कार मिल नहीं रहे हैं, बाँटे जा रहे हैं। वह भी योग्य व्यक्तियों को नहीं वरन अपनी पहचान वाले लोगों को या तथाकथित प्रतिष्ठित लोगों को। मैं आपकी इस बात से पूर्णतः सहमत हूँ कि साहित्य की राजनीति तो इतनी बदशक्ल है कि राजनेताओं को साहित्यकारों से राजनीति का प्रशिक्षण लेना चाहिये।
क्योंकि साहित्य अकेडमी स्वायत संस्था हैं अतः अकेडमी से सम्बंधित निर्णय वही ले तो अच्छा है।
सब ओर राजनीति है l दवाब बनाना भी राजनीति प्रेरित है l जो सिर्फ लिख रहे हैं, वो ना पाने वाले गुट में शामिल होते हैं ना लौटाने वाले में l इस गुटबाजी के के विरोध होना चाहिए l साहित्यकारों को विरोध दर्ज करने का अधिकार है, परंतु उसके लिए उन्हें कोई तरीका अपनाना चाहिए l बहुत सुलझा हुआ मानीखेज संपादकीय , बधाई सर
आपके सभी संपादकीय प्रशंसनीय है और यथार्थ को समेटे हुए हैं। कलम की आवाज को बुलंद करना ही सच्चे साहित्यकार का लक्ष्य होना चाहिए।
हार्दिक आभार डॉक्टर निशा नंदिनी जी।
आपने बहुत अच्छा संपादकीय लिखा। हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं आपको। तेजेंद्र जी हर क्षेत्र की गंदी राजनीति वहां की निष्पक्षता को खत्म कर देती है। अकादमी कोई हो जहां जुगाड जैसे हथकंडे अपना कर पुरस्कार हासिल किए जाते हो,वहां वापसी का भी प्रश्न नही आयेगा। जुगाड़ू सम्मान को कौन वापस करेगा। इन सब बातों में तनाव और पीड़ा बढ़ाने वाली बात सिर्फ उस विशुद्ध पाठक के लिए है, जो ऐसे साहित्यकारों की गलती से पुस्तकें पढ़ने के लिए खरीद कर लाएगा और हताश होगा।
प्रगति जी, इस सार्थक टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार।
नमस्कार तेजेन्द्र जी
बहुत बहुत बधाई आपको इस साहित्यिक आँखमिचौनी पर इतनी स्पष्टता से लिखने के लिए। आपके सभी संपादकीय सशक्त होते हैं इसमें तो कहीं कोई संशय है ही नहीं। वैसे भी हर जगह तो राजनीति है। कौनसा क्षेत्र इससे विहीन है?
जुगाड़ होते भी हैं और नहीं भी होते, राजनीति तो लेखन क्षेत्र में भी है ही। मुझे तो लगता है कि बिना किसी अपेक्षा के अपना काम हर व्यक्ति करता चले, वह खुद में कितना ईमानदार है, इसको मद्देनजर रखते हुए चरैवेति चरैवेति – – –
आपके संपादकीय झंझोड़ते भी हैं कभी शांत रहने का संदेश भी देते हैं।
अति साधुवाद
मै सरकार के प्रस्ताव से सहमत हूं, इसके सारे कारण अपनी जगह सही हैं।
चलिए सरकार की संसदीय समिति को आपका समर्थन मिला।
इस ज्वलंत विषय पर इतनी विशद चर्चा के लिए आपको साधुवाद। साहित्यिक पुरस्कारों की अपनी राजनीति है। उनको पाने से अधिक चर्चा लौटाने पर होती है। कहावत है- बदनाम हुए तो क्या नाम न हुआ! बहुत-से लोग पुरस्कार पाने के लिए तमाम जुगाड़ और टिप्पस भिड़ाते हैं। इसलिए अनेक साहित्यकार पुरस्कार की राजनीति से दूर रहते हैं- जाको मुख देखत दुख उपजत, ताको करनी परी सलाम।
साहित्य तो स्वात:सुखाय होता है। बाकी सब उसका उपोत्पाद। आप अपना साहित्य रचिए।आप राजनीति में क्यों पड़ते हैं?
डॉक्टर सिंह आपके वक्तव्य में गहराई है। आभार।
मैं आपसे बिल्कुल सहमत हूँ, क्योंकि पहले साहित्य पुरस्कार मिलना बड़ी बात लगता था आज हर दूसरे व्यक्ति को हासिल हो जाता है ये कैसे होता है, नहीं मालूम।
आपने बहुत सी बातों को उजागर किया है, बहुत ख़ूब कहा है आपने..
डॉक्टर सिंह आपके वक्तव्य में गहराई है। आभार।
उर्मिला जी, इस समर्थन के लिए हार्दिक आभार।
आपकी हर संपादकीय किसी न किसी मुद्दे से आरंभ होती है और फिर किसी न किसी संदेश के साथ पूरी होती है।
इस बार की संपादकीय में पुरस्कारों की राजनीति और राजनीति के पुरस्कार पर बहुत गंभीर विमर्श किया गया है। राजनीति किस तरह से साहित्य को प्रभावित करती है। किस तरह से पुरस्कारों में लेनदेन होते हैं। जहां पहले पुरस्कार लेने और उन पुरस्कारों की वापसी साहित्यकारों के चरित्र और चाल- चलन को दर्शाता है, वहीं राजनीतिक लाभ लेने के उद्देश्य से साहित्यकारों का दो गुटों में बंटकर साहित्य अकादमी को अखाड़ा बना देना भी उचित नहीं कहा जा सकता है।
साहित्यकार राजनेता नहीं होता। वह हर जाति,धर्म और क्षेत्र का समान आदर करता है जबकि राजनेता इन्हीं के आधार पर वोट बटोरता है।इसलिए साहित्यकार को राजनीति से ऊपर उठकर जन कल्याण की नीति पर अमल करना चाहिए।
इसमें आपने साहित्यक राजनीति की परतें उधेड़ी हैं और साहित्यकार की स्वार्थ और लोभ की प्रवृत्ति से निवृत्ति का संदेश दिया है।
हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीय!
सादर,
आपका
– गुणशेखर
भाई गुणशेखर जी आप ने बहुत स्पष्ट रूप में अपने विचार रखे हैं और हमारे संपादकीयों को समर्थन दिया है। हार्दिक आभार।
आपना सही विषय उठाया है। साहित्य अकादमी के पुरस्कार देते समय कोई राजनीतिक भेदभाव नहीं होता। फिर वे पुरस्कृत विद्वान राजनीति की दलदल में इन पुरस्कारों को फेंक कर केवल अपनी दीन-हीन मानसिकता को ही जाहिर करते हैं और स्वयं को उस पुरस्कार के अयोज्ञ घोषित करते हैं । यदि वे वास्तव में उस पुरस्कार को अपनी जूती की नोक पर रखने के बदले , राजनीतिक परिस्थितियों को अपनी कलम की नोक पर रखते ….!
आपने अपनी टिप्पणी के माध्यम से सटीक बात कही है नीलम जी। आभार
तेजेंद्र जी, आपकी बात से पूरी तरह से सहमत हूँ। साहित्य कारों की राजनीति और खेमेबाज़ी कुशल राजनीतिज्ञों को भी मात देती है।
हार्दिक आभार अरुणा जी।
Your Editorial deals with an important issue relating to the presentation of various awards.
A good decision taken by the panel that the Sahitya Academy Awards cannot be returned and that the recipients have to stand by the awards once they accept them.
No whim or will can justify its return.
Isn’t it true that an award is announced usually after taking the nod from a proposed recipient?
Warm regards
Deepak Sharma
Deepak ji you have approved the stand taken by the Parliamentary Committee. Thanks for your valued comment.
यथार्थ चित्रण कटु सत्य बेहतरीन आदरणीय
धन्यवाद भावना जी।
आपने बहुत सही कहा है। मेरे मन में बार-बार यही प्रश्न उठा कि जब पुरस्कार लौटाने की बात आती है तो राशि को भी लौटाया जाना चाहिए। जहां तक मुझे पता है अशोक वाजपेयी जी ने पुरस्कार लौटाने की घोषणा तो की थी परंतु पुरस्कार राशि लौटाने जैसा कुछ नहीं कहा था।
आज से ही नहीं अपितु लंबे समय से साहित्य राजनीति का अखाड़ा बनी हुई है। इसका शुद्धिकरण करते हुए प्रेमचंद कहते हैं कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है।
भारती आपने सही सवाल खड़े किये हैं। आप हमेशा पुरवाई संपादकीय पर सार्थक टिप्पणी करती हैं। हार्दिक आभार।
हार्दिक धन्यवाद,इस तरंगित तरिणी के समान,शान्ति से प्रवाहित संपादकीय के लिए तेजेन्द्र जी, जिसके तट पर बैठकर आनंद लिया जा सकता है क्योंकि हम तो उस श्रेणी के हैं जिनके लिए:
‘मोको कहां सीकरी सों काम”
बस
नदी किनारे बैठिके,आनन्द से आनन्द लेय।
वाह क्या काव्यात्मक शैली में टिप्पणी की है।
धन्यवाद,सर!
बुनियादी सोच को गहरे से सोचा जाना चाहिए। हमारे साहित्यकार भी बाँट दिए गए हैं – पुरस्कृत और अपुरस्कृत- और इसमें हमारे बहुत से लेखक भी शामिल हैं, जो पुरस्कृतों को इतना महान बनाने में तुले हैं कि वे समझें कि वे ही पुरस्कार वापसी कर गलत के विरोध में बड़ी लड़ाई लड़ सकते हैं, अपुरस्कृत मामूली लेखकों की क्या औकात कि वे लड़ सकें।
ऐसे विचारक शुद्ध सरकारी सम्मानों जैसे पद्मश्री आदि को भी लेखकों के भरोसे संचालित स्वायत्त संस्थाओं के पुरस्कारों के साथ मिलाकर भ्रम पैदा किया करते हैं। खैर।
पुरस्कार प्राप्ति और फिर उसकी वापसी को जरूरत से ज्यादा महत्व देते हुए सारी बहस को उसी के इर्द-गिर्द समेटने के स्थान पर स्वायत्त संस्थाओं की स्वायत्ता पर हो रहे आक्रमण अर्थात छीना-झपटी का विरोध होना चाहिए जिसमें पुरस्कृत- अपुरस्कृत सब सम्मिलित हों।
विरोध के अन्य तरीके भी हो सकते हैं।कुछ नामवर सिंह जी ने भी सुझाए थे।
बुनियादी सवाल तो यही है। मसलन स्वायत्त संस्था के रूप में साहित्य अकादेमी से जुड़ा हर निर्णय लोकतांत्रिक रूप में साहित्य अकादेमी के द्वारा ही लिया जाना चाहिए। उससे बाहर की कोई भी सत्ता यदि निर्णय लेगी तो आज पुरस्कार संबंधी बात हो रही है, कल को क्या कार्यक्रम किया जाए और क्या नहीं जैसे कितने ही अधिकार छिनते चले जाएँगे।
दिविक सर इस विषय पर आपके विचार मुझे हमेशा ही सही दिशा की सोच लगे। आप अपनी बात कहते भी बहुत तार्किक ढंग से हैं। हार्दिक आभार।
जिस तरह साहित्य अकादमी का पुरस्कार दिया जाता है वह बंद कर देना चाहिए. राजनीति तो यहां भी होती है. साहित्य अकादमी के कमेटी में बैठे लोग अपने अपने लोगों को पुरस्कार देते हैं. जिस तरह विधायक और सांसद चुने जाते हैं उसी तरह साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी चुना जाना चाहिए. साहित्य अकादमी सेट करें कि किस किताब पर पुरस्कार देना है. उस किताब पर राय पाठकों से ली जानी चाहिए. जिस किताब पर पाठकों की राय अधिक आए उस लेखक को साहित्य अकादमी का पुरस्कार दिया जाना चाहिए.
भाई रिपु जी आपने साहित्य अकादमी पुरस्कार अपने पर अपना नज़रिया पेश किया है। उम्मीद है वे संज्ञान लेंगे।
हमेशा की तरह बहुत अच्छा लिखा गया संपादकीय जिसमें साहित्य की विधा को उजागर किया गया। आपने बहुत अच्छा प्रश्न उठाया है कि पुरस्कार को राजनीति के साथ नहीं जोड़ना चाहिए।
लेखक की कुशलता और उसकी कलम के आधार पर है उसे पुरस्कार मिलना चाहिए।
तेजेंद्र शर्मा सर जी
धन्यवाद
डॉक्टर मुक्ति जी इस समर्थन के लिए आभार।
iसम्पादकीय का शीर्षक आकर्षक है
पुरस्कार और सम्मान देने वाली संस्था अगर अपनी कोई आचारसंहिता निर्धारित करती है तो इसमें कोई बुराई नहीं है ।
साहित्य, कला और विज्ञान समाज का दर्पण कहलाते हैं तो इस दर्पण का स्वच्छ रखा जाना भी अनिवार्य है । दिविक रमेश जी के विचारों से और तेजेन्द्र जी आपके चिंतन से मैं सहमत हूँ ।
Dr Prabha mishra
आपकी टिप्पणी महत्वपूर्ण है प्रभा जी। हार्दिक आभार।
जहाँ तक मैं समझता हूँ पुरस्कार लौटाने वाले दो चार को छोड़ कर सभी किसी राजनैतिक विचार धारा या दल विशेष के समर्थन / विरोध में यह करते हैं जबकि उन्हें प्रदत्त सम्मान किसी विचारधारा के कारण नहीं वरण उनके साहित्यिक अवदान के लिए दिया जाता है | दूसरी बात यदि वे इतने ही क्षुब्द हैं दुखी है तो सम्मान लौटाने की घोषणा के साथ ही उन्हें प्रदत्त सम्मान पत्र उपहार और नगद राशी भी आवश्यक रूप से लोटाना चाहिए बेशर्मो की तरह घोधानावीर बनाना और प्राप्तियों का मोह ना छोड़ पाना उनका चारित्रिक अवमूल्यन ही साबित करता है
महेश भाई आपकी नाराज़गी समझ आती है। अधिकांश पाठक इस विषय पर कुछ ऐसी ही राय रखते हैं।
कृपया सुधार कर पढ़ें — घोषणा
वीर
जी अवश्य!
साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए राजनीति भी की जाती है, जुगाड़ वाली बात मैंने भी सुनी है। बगैर आग के धुँआ नहीं उठता। साहित्यकार को राजनीति से दूर रहना चाहिए। अगर लिप्त भी रहें तो किसी सम्मान का अपमान करने का कोई अधिकार नहीं।
लेखक एक गरिमा रखता है और उस गरिमा को बनाए रखें।
रेखा जी सही कहा आपने।
आपके संपादकीय हमेशा ही किसी महत्वपूर्ण मुद्दे को उठाते हैं और कई पहलू दिखाने के बाद पाठक को अपना दृष्टिकोण निश्चित करने के लिए छोड़ देते हैं, आप स्वयं तटस्थ दर्शक की तरह अपनी पैनी नज़र बनाये रखते हैं।
मनुष्य के साथ ही जुगाड़ और जोड़- तोड़ पैदा हुआ है शायद। नोबेल, ऑस्कर और ग्रैमी जैसे पुरस्कारों के लिए जब लॉबिंग होती है तो अकादमी पुरस्कार इससे मुक्त कैसे रह सकते हैं? भारत के लोग यूं भी जुगाड़ में माहिर होते हैं। पुरस्कार पाने वालों को कोई शपथ पत्र क्या बांँधेगा , जब बड़े स्वार्थ सामने हों तो पुरस्कार वापसी को रोकना सम्भव नहीं है। बाकी सब राम भरोसे चलता रहा है और चलता रहेगा…
आपके संपादकीय पढ़ना अच्छा लगता है, उसके लिए धन्यवाद। मनुष्य की अच्छाइयों और भविष्य के लिए कुछ आशा दिखाती नहीं, कोई चमत्कार हो, तो बात अलग है।
शैली जी आपका निरंतर समर्थन हमारे लिए महत्वपूर्ण है। आपने इस विषय पर अपने विचार पुरवाई के पाठकों के साथ साझा किए हैं। हार्दिक आभार।
भारत की साहित्य अकादमी एक स्वायत्त संस्था है जिसके द्वारा भारत संघ की मान्य भाषाओं के प्रतिभाशाली साहित्यकारों को उनके द्वारा सृजित साहित्य की श्रेष्ठता और गुणवत्ता के आधार पर पुरस्कृत, सम्मानित किया जाता है,परन्तु यहाँ हर संस्था के कार्यों को राजनीतिक नजारिये से देखने और उसे बदनाम करने
का एक चलन भी है।आपने इस महत्त्वपूर्ण सम्पादकीय में इन सभी विन्दुओं पर विभिन्न पक्षों की बात रखते हुए अपना निरपेक्ष मत रखा है।साधुवाद और बधाई,आपको।
इस सार्थक टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार भाई इन्द्र कुमार दीक्षित जी।
आप अपने सभी संपादकीय में कटु सत्य बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत करते हैं। तीखे और धारदार, साथ ही रोचकता से भरपूर। सैल्यूट
धन्यवाद हंसा। आपका समर्थन महत्वपूर्ण है।
‘पुरस्कार उन को मिलते हैं, जो जुगाड़ भिड़ा पाते हैं।’ जब भी किसी को कोई पुरस्कार मिलता है, सुनने वाला यहीं प्रतिक्रिया देता है, इसमें कितना सच है , नहीं पता, पर जिनको स्वत: उनके सही अवदान पर मिलता है, उनके बारे में प्रायः यहीं सुनने को मिलता है कि कहीं जरुर जुगाड़ किया होगा। पुरस्कार वापसी वाले तो आपसी जुगाड़ से ही पुरस्कार लेते होंगे। लेकिन इस सबसे नुकसान हुआ जेनुइन लेखकों को।
पूरी राजनीति से जुड़ा मुद्दा अपने उठाया, वैसे कोई भी जेनुइन लेखक यह नहीं लिख कर देगा कि अगर उसे पुरस्कार दिया जाता है तो वह लौटायेगा नहीं।
संतोष जी इस खरी खरी टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार।
आपने अपने संपादकीय द्वारा पाठकों को बीते पल की याद दिला दी। सम्मान वापसी का वह दौर बेहद दुःखद था। मुझे तो लगता है सम्मान वापसी वही कर सकते हैं जिन्हें सम्मान जुगाड़ से मिला हो। एक सच्चा साहित्यकार सिर्फ लिखना जानता है। यही कारण है, वह किसी गुट से जुड़ ही नहीं पाता या वह स्वयं को इस उस माहौल से जोड़ ही नहीं पाता। इसमें दो राय नहीं है कि आज न केवल साहित्य वरन साहित्यकार भी अनेक खेमों में बंटे हुए हैं। सम्मान और पुरस्कार मिल नहीं रहे हैं, बाँटे जा रहे हैं। वह भी योग्य व्यक्तियों को नहीं वरन अपनी पहचान वाले लोगों को या तथाकथित प्रतिष्ठित लोगों को। मैं आपकी इस बात से पूर्णतः सहमत हूँ कि साहित्य की राजनीति तो इतनी बदशक्ल है कि राजनेताओं को साहित्यकारों से राजनीति का प्रशिक्षण लेना चाहिये।
क्योंकि साहित्य अकेडमी स्वायत संस्था हैं अतः अकेडमी से सम्बंधित निर्णय वही ले तो अच्छा है।
सुधा जी आपने स्थितियों का सही चित्रण किया है। हार्दिक आभार।
सब ओर राजनीति है l दवाब बनाना भी राजनीति प्रेरित है l जो सिर्फ लिख रहे हैं, वो ना पाने वाले गुट में शामिल होते हैं ना लौटाने वाले में l इस गुटबाजी के के विरोध होना चाहिए l साहित्यकारों को विरोध दर्ज करने का अधिकार है, परंतु उसके लिए उन्हें कोई तरीका अपनाना चाहिए l बहुत सुलझा हुआ मानीखेज संपादकीय , बधाई सर
हार्दिक आभार वंदना जी।