Wednesday, September 18, 2024
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संपादकीय – बंधन सात फेरों का

दो निजी लोगों के तलाक के मामले ने हिन्दू विवाह के रीति-रिवाज पर सुप्रीम कोर्ट को निर्णय देने के लिये बाध्य कर दिया। इस मामले में एक महत्वपूर्ण बात पर ध्यान देना आवश्यक है  कि सुप्रीम कोर्ट ने इतना अहम जजमेंट पास कर दिया मगर कहीं कोई शोर नहीं मचा; किसी प्रकार के प्रदर्शन नहीं हुए। टीवी चैनलों पर बहस नहीं हुई। देश इस चक्कर में व्यस्त रहा कि राहुल गांधी अमेठी से चुनाव लड़ेंगे या रायबरेली से, और हिन्दू विवाह पर सुप्रीम कोर्ट ने एक अभूतपूर्व निर्णय सुना दिया।

1979 में एक फ़िल्म रिलीज़ हुई थी – ‘बिन फेरे हम तेरे’। उस फ़िल्म में गीत इंदीवर ने लिखे थे और संगीत तैयार किया था उषा खन्ना ने। इस फ़िल्म में इंदीवर लिखते हैं, “सजी नहीं बारात तो क्या / आई ना मिलन की रात तो क्या / ब्याह किया तेरी यादों से / गठबंधन तेरे वादों से / बिन फेरे हम तेरे”। बहुत रोमांटिक सा ख़्याल है। शरीर से बाहर निकल कर विवाह का गठबंधन।
मगर भारत की सुप्रीम कोर्ट को यह गाना पसन्द नहीं आया। सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीषों को 1982 की फ़िल्म ‘नदिया के पार’ का गीत – “जब तक पूरे ना हों फेरे सात / तब तक दुल्हन नहीं दुल्हा की / रे तब तक बबुनी नहीं बबुवा की, / ना, जब तक…!” सोच बेहतर लगी। 
दरअसल हिन्दू धर्म में विवाह सात जन्मों का साथ है। यह एक धार्मिक पद्धति से पूरा किया गया ‘संस्कार’ है जिसे देवताओं की उपस्थिति में मंत्रोच्चार के साथ किया जाता है। वहीं अन्य मज़हबों में यह एक काँट्रेक्ट है जिसे कभी भी तोड़ा जा सकता है। 
इस बात पर अलग-अलग राय है कि हिन्दू विवाह के लिये सात फेरे लिये जाते हैं या चार। मगर आज मुद्दा यह नहीं है। मुद्दा है एक महिला और पुरुष का जिन्होंने तलाक के लिये एक साझा अर्ज़ी दायर की हुई थी और मामला बढ़ते-बढ़ते सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया। बिहार के मुज्ज़फ़रपुर की अदालत में एक पति-पत्नी ने तलाक की अर्ज़ी दाखिल की। दोनों ही पति-पत्नी प्रशिक्षित कमर्शियल पायलट हैं। 
इन पति-पत्नी का नाम प्रेस में गोपनीय ही रखा गया है। इनके रिश्ते की शुरूआत और अंत विमान की गति से ही हुआ। इन तथाकथित पति-पत्नी की सगाई 7 मार्च 2021 को हुई। इन दोनों का दावा है कि 7 जुलाई 2021 को इन दोनों ने शादी भी कर ली। इन्होंने वैदिक जनकल्याण समिति से एक ‘विवाह का प्रमाण पत्र‘ यानी कि मैरिज सर्टिफ़िकेट भी हासिल कर लिया। और इस प्रमाण पत्र का इस्तेमाल करते हुए उन दोनों ने उत्तर प्रदेश विवाह पंजीकरण निय 2017 के तहत अपनी शादी को रजिस्टर भी करवा लिया। ज़ाहिर है कि अब अदालती नियमों के अनुसार दोनों विवाहित थे और पति-पत्नी थे।
बैरी समाज तो हमेशा ही प्रेमियों के लिये परेशानियां खड़ा करता रहता है। दोनों परिवारों को अच्छा नहीं लग रहा था कि उनके बच्चों ने चोरी-चोरी चुपके-चुपके शादी कर ली है। तो दोनों परिवारों ने आपस में तय किया कि अब इन दोनों का विवाह यानी कि पाणिग्रहण संस्कार की तारीख़ भी तय कर ली जाए। इन दोनों के अनुसार जो तारीख़ हिन्दू पद्धति और रीती रिवाजों के अनुसार तय की वो थी 25 अक्टूबर 2022…
इस बीच ये दोनों पति-पत्नी रहते अलग-अलग थे। जब हमें यह ग़लतफ़हमी हो जाती है कि हम पढ़े-लिखे व्यस्क हैं और अपने जीवन के फ़ैसले स्वयं लेने में सक्षम हैं तो कहीं न कहीं अपनी योग्यता को अधिक आंक रहे होते हैं। अलग-अलग रहते हुए भी इस दम्पति में आपस में विवाद होने लगा। ज़ाहिर है कि मतभेद इतने बढ़ गये कि दोनों ने पारंपरिक विवाह होने से पहले ही अदालत का दरवाज़ा तलाक के लिये खटखटा दिया। 
यह तो हम सब जानते हैं कि भारत की अदालतों में मुकद्दमे बरसों तक लटके रहते हैं। इनका मामला भी मुज्ज़फ़रपुर की लोकल अदालत में मुकद्दमों की भीड़ में कहीं खो गया। दोनों एक दूसरे से छुटकारा पाने के लिये बेचैन थे। तो दोनों ने केस को झारखण्ड की राजधानी रांची की एक अदालत में अपना केस ट्रांस्फ़र करवाने की अर्ज़ी दायर कर दी। इस अर्ज़ी पर कार्यवाही गहरी नींद सोती रही। अंततः दोनों ने भारतीय संविधान की धारा 142 के तहत एक संयुक्त आवेदन किया कि इनका संबन्ध विच्छेद कर दिया जाए। उन दोनों का तर्क था कि इनके विवाह में किसी तरह के पारंपरिक रीति रिवाज का पालन नहीं किया गया इसलिये इनके मैरिज सर्टिफ़िकेट को निरस्त कर दिया जाए। 
अब मामले की सुनवाई कि ज़िम्मेदारी पड़ी सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना एवं अगस्टाइन जॉर्ज के कंधों पर। इस जोड़े को उम्मीद थी कि अब उनका केस जल्दी से सुलटा दिया जाएगा। मगर सुप्रीम कोर्ट की न्यायपीठ ने दोनों को समझा दिया कि मसला इतना सीधा नहीं जितना वे दोनों समझ रहे हैं। न्यायधीषों का कहना था कि आप दोनों का तो विवाह हुआ ही नहीं तो फिर तलाक़ का क्या मतलब है। न्यायपीठ के अनुसार हिन्दू विवाह तब तक पूरा नहीं माना जाता जब तक पारंपरिक ढंग से हवन और सात फेरे ना लिये जाएं। 
अपने निर्णय में दोनों न्यायधीशों ने कहा कि हिंदू विवाह एक ‘संस्कार’ है। इसे हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत तब तक मान्यता नहीं दी जा सकती जब तक कि इसे उचित रीति रिवाज और समारोहों के साथ नहीं किया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि हिंदू विवाह अधिनियम के तहत वैध शादी के लिए मैरिज सर्टिफिकेट ही पर्याप्त नहीं है। ये एक संस्कार है, जिसे भारतीय समाज में प्रमुख रूप से दर्जा दिया गया है। 
न्यायाधीशों ने अपने फैसले मे जोर देते हुए कहा कि हिंदू विवाह को वैध होने के लिए, इसे सप्तपदी (पवित्र अग्नि के चारों ओर फेरे के सात चरण) जैसे उचित संस्कार और समारोहों के साथ किया जाना चाहिए और विवादों के मामले में इन समारोह का प्रमाण भी मिलता है। कोर्ट ने कहा कि मैरिज रजिस्ट्रेशन के फायदे ये हैं कि इससे किसी विवाद की सूरत में प्रूफ के तौर पर पेश किया जा सकता है, लेकिन अगर हिंदू मैरिज एक्ट के सेक्शन 7 के तहत शादी नहीं हुई है, तो रजिस्ट्रेशन करा लेने से विवाह को मान्यता नहीं मिल जाएगी।
जस्टिस बी. वी. नागरत्ना ने अपने फैसले में कहा, हिंदू विवाह एक संस्कार है, जिसे भारतीय समाज में एक महान मूल्य की संस्था के रूप में दर्जा दिया जाना चाहिए. इस वजह से हम युवा पुरुषों और महिलाओं से आग्रह करते हैं कि वो विवाह की संस्था में प्रवेश करने से पहले इसके बारे में गहराई से सोचें और भारतीय समाज में उक्त संस्था कितनी पवित्र है, इस पर विचार करें।
फैसले में सुप्रीम कोर्ट जज ने जैसे युवा पीढ़ी को दिशा-निर्देश देते हुए समझाया कि विवाह ‘गीत और नृत्य’ और ‘शराब पीने और खाने’ का आयोजन नहीं है या अनुचित दबाव द्वारा दहेज और उपहारों की मांग करने और आदान-प्रदान करने का अवसर नहीं है. जिसके बाद किसी मामले में आपराधिक कार्यवाही की शुरुआत हो सकती है।
पीठ ने कहा कि हिंदू विवाह संतानोत्पत्ति को सुगम बनाता है, परिवार के यूनिट को मजबूत करता है। ये विभिन्न समुदायों के बीच भाईचारे की भावना को मजबूत करता है। ये विवाह पवित्र है, क्योंकि यह दो व्यक्तियों के बीच आजीवन, गरिमापूर्ण, समानता, सहमतिपूर्ण और स्वस्थ मिलन प्रदान करता है। इसे एक ऐसी घटना माना जाता है जो व्यक्ति को मोक्ष प्रदान करती है, खासकर जब संस्कार और समारोह आयोजित किए जाते हैं। हिंदू विवाह अधिनियम के प्रावधानों पर विचार करते हुए कि पीठ ने कहा कि जब तक शादी उचित समारोहों और रीति-रिवाज में नहीं किया जाता, तब तक इसे एक्ट की धारा 7(1) के अनुसार संस्कारित नहीं कहा जा सकता है।
भारत में व्यक्ति के धर्म के अनुसार विवाह के कानून लागू होते हैं। जैसे हिन्दू मैरिज एक्ट हिन्दू धर्म के लोगों पर लागू होता है। इसी तरह मुसलमानों पर मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट1937 लागू होता है। किन्तु एक धर्म के किसी व्यक्ति का दूसरे धर्म के व्यक्ति से विवाह करने की स्थिति का कोई विशेष कानून नहीं है। इसीलिये 1954 में स्पेशल मैरिज एक्ट लागू किया गया। इसके तहत देश में या विदेश में दो नागरिक आपस में विवाह कर सकते हैं। इसमें व्यक्ति के धर्म से कोई फ़र्क नहीं पड़ता। 
दो निजी लोगों के तलाक के मामले ने हिन्दू विवाह के रीति-रिवाज पर सुप्रीम कोर्ट को निर्णय देने के लिये बाध्य कर दिया। इस मामले में एक महत्वपूर्ण बात पर ध्यान देना आवश्यक है  कि सुप्रीम कोर्ट ने इतना अहम जजमेंट पास कर दिया मगर कहीं कोई शोर नहीं मचा; किसी प्रकार के प्रदर्शन नहीं हुए। टीवी चैनलों पर बहस नहीं हुई। देश इस चक्कर में व्यस्त रहा कि राहुल गांधी अमेठी से चुनाव लड़ेंगे या रायबरेली से, और हिन्दू विवाह पर सुप्रीम कोर्ट ने एक अभूतपूर्व निर्णय सुना दिया। 
फ़ोटो साभार : Live Law
तेजेन्द्र शर्मा
तेजेन्द्र शर्मा
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.
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52 टिप्पणी

  1. वर्तमान परिदृश्य में विवादास्पद स्थिति में पहुँचे हिन्दू विवाह संस्कार पर लिखे सम्पादकीय को पढ़ कर अच्छा लगा।
    ‘ हिन्दू विवाह पवित्र और जन्म जन्मांतरों का बंधन है,’ ये जितना पवित्र और महान दिखता है वास्तव में वैसा था ना है। यदि इतनी उदात्त होती यह संस्था, तो स्त्री शब्द ,दु:ख और प्रतारणा का पर्यायवाची बन कर साहित्य में उद्धृत नहीं होता। हां, उस समय की अशिक्षित, अविकसित आर्थिक रूप से पराश्रित स्त्रियों के दु:ख दर्द और बलिदान पर यह संस्था चलती रही और न्यायालय से लेकर सामान्य जनता भी इसका महिमा मंडन करते रहे।
    विवाह को एक कॉन्ट्रैक्ट ही होना चाहिए। तभी महिला पुरुष को बराबर माना जा रहा है, यह प्रमाणित होगा।
    विवाह किसी उत्सव या समारोह का मोहताज कबसे हो गया? आत्मा का बंधन कम यह शारीरिक और सामाजिक बंधन ज्यादा है। क्योंकी इसका उद्देश्य सन्तान वृद्धिहै।
    यह दोनों पक्षों की सहमति से चलना चाहिए और असहमति से समाप्त होना चाहिए।
    माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने जो भी निर्णय दिया, यह युग और परिवर्तिति समाज के सापेक्ष्य नहीं है।
    हमारे ऋषियों ने कहा है कि युग धर्म बदलता है, धर्म वही जो धारण करे।
    हिन्दू धर्म, हठी और अपरिवर्तनीय नहीं है, तभी यह सनातन (सतत) है और रहेगा।
    यूँ तो सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की कोई अपील नहीं होती। लेकिन इसकी पुनर्विक्ष याचिका आनी ही चाहिए।

    • शैली जी, आपने हिन्दू धर्म की सही व्याख्या की है। मगर यहां बात उत्सव या समारोह की नहीं है। सुप्रीम कोर्ट उसके पक्ष में नहीं है। उन्होंने हिन्दू मैरिज एक्ट के तहत अपनी जजमेन्ट दी है।

  2. बहुत सुंदर ढंग से लिखा गया सम्पादकीय, ज्ञानवर्धक, बहुत से प्रश्न उठाए हैं।

    आभार

  3. आज के संपादकीय पर हमारी टिप्पणी सबसे छोटी रहेगी।हम दोनों जजों के फैसले से संतुष्ट हैं और बहुत प्रसन्न हैं। दोनों जजों ने हिंदू पद्धति से विवाह की महत्व का बहुत ही अच्छे ढंग से परिभाषित किया है। वास्तव में यह फैसला इस दृष्टि से भी फायदेमंद है कि जहाँ बच्चे बिना बताए कम उम्र में भी अविवेक से विवाह का फैसला ले लेते हैं और बालिग होते ही बिना पूछे चुपके से विवाह कर लेते हैं, अगर ऐसे रजिस्टर्ड विवाह को भी सरकार मान्यता नहीं दे रही है तो यह बच्चों के लिए एक सही दिशा में जाने के लिए संकेत देता है। अविवेक से लिए गए फैसले हमेशा कष्टदाई ही होते हैं। माता-पिता बच्चों का कभी भी बुरा नहीं चाहेंगे यह बात आजकल के बच्चे समझ ही नहीं पाते हैं।
    हमारी दृष्टि में यह एक ऐतिहासिक फैसला है। अब इस तरह के अविवेकपूर्ण फैसला लेने के पहले बच्चे 10 बार सोचेंगे।
    आज की संपादकीय जानकारी बहुत ही महत्वपूर्ण है और हर माता-पिता को यह पता होना ही चाहिए, बल्कि बच्चों को भी पता होना चाहिए ताकि वह इस तरह के कदम उठाने के पहले हजार बार सोचे। हमने अपने शहर में इस तरह के कई विवाह देखे कि बच्चों ने दूसरे शहर में जाकर दोस्ती यारी के सहयोग से छुप कर कोर्ट मैरिज कर ली। और बाद में जीवन भर पछताते रहे। अब यह सिद्ध हो गया कि अगर कोर्ट का मैरिज सर्टिफिकेट है भी, तो भी उसकी मान्यता पारंपरिक रीति रिवाज से किए गए वैवाहिक संबंध के बिना मान्य नहीं।
    यह एक अच्छा कदम है ।और हम इसकी सराहना करते हैं ।इस जानकारी के लिए तो आपको तहे दिल से शुक्रिया देना बनता है। तो बहुत-बहुत शुक्रिया तेजेंद्र जी।

    • आज का आधुनिक जगत हमारी सदियों से चली आ रही मान्यताओं का मजाक करता दिखता है। सौलह संस्कारों के महत्व समाप्त हो रहे हैं। वैवाहिक संस्कार कितना पावन है यह स्पष्ट है ऋग्वेद में पूरा एक सूक्त है विवाह सूक्त जो विस्तार से संबंधों की गूढ़ता समझाता है। मनुस्मृति में विवाह के कर्मकांड को बतलाया गया है सप्तपदी का महत्व भी बतलाया गया है। आज कल विवाह जो होते हैं उसमे भी जो वैवाहिक मंत्रोचार और विधि है उसे शार्ट करके आनंद हेतु अन्य चीजें समाहित कर ली गयी हैं, जैसे नाच गाना हल्दी पर अनावश्यक प्रदर्शन, इत्यादि इत्यादि। जब हम अपने मूल की ओर जाएंगे तभी विवाह के महत्व को समझेंगे तभी पति पत्नी एक दूसरे के प्रति समर्पित होंगे अन्यथा तलाक तो होने ही हैं।

      • सुरेश सर, इस विषय पर आपसे बेहतर टिप्पणी करना संभव नहीं। आप इस मुद्दे के हर पहलू से परिचित हैं। आभार।

    • आदरणीय नीलिमा जी, आपने विवाह को एक संपूर्ण दृष्टि से देखाहै। आपने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को स्वीकार किया है। हार्दिक आभार।

  4. वाह, आपने संपादकीय में इस अहम निर्णय को पवित्रता दी। पीठ ने भारतीय संस्कृति की इस अनुपम भेंट के लिए सही कहा- ‘विवाह पवित्र है, क्योंकि यह दो व्यक्तियों के बीच आजीवन, गरिमापूर्ण, समानता, सहमतिपूर्ण और स्वस्थ मिलन प्रदान करता है।’ बधाई पुरवाई।

  5. It’s very knowledgeable and beautifully expressed that Bhartiya vivah ek sanskar hai. We hope the younger generation understands,respects and nurtures this sanskar. Dhanyawad Sir , Best Regards

  6. कमाल का फैसला! मीडिया के पास इसके लिए समय नहीं यह उनके लिए न्यूज़ नहीं है बड़े अफसोस की बात। हमें आप खबर दे देते हैं बहुत ही खुशी की बात है आपके संपादकीय को पढ़ना बहुत अच्छा लगता है। धन्यवाद

    • भाग्यम जी आपकी पत्रिका पुरवाई का प्रयास रहता है कि हर मुद्दे पर जानकारी आप तक पहुंचे।

  7. आज का संपादकीय विवाह ,समीचीन संदर्भ,घटनाओं,फिल्मों और न्यायालय को एक साथ रखकर एक सच्चाई बयां करता है।
    आज की पीढ़ी विवाह जैसे पवित्र संस्कार और संस्था को बेहद हल्के में ले रही है।इसकी शुरुआत भी लड़की के घर वालों ने ही की। लड़के के मातापिता को छोड़ कर सभी मसलों पर शुरू से ही अपनी लड़की के पति से बात और वधू पक्ष के अनुभवी सास ससुर अपना उल्लू सीधा करते रहे और लड़के के मां बाप रोते रहे।यही व्यवहार बाद में स्वेच्छाचारी व्यवहार में बदल गया और सुरसा रूप में अब हमारे देश और समाज के सामने ताल ठोक रहा है।ठीक शांतनु के वासनात्मक विवाह और देवव्रत जैसे पुत्र की अंध भीष्म प्रतिज्ञा और नतीजा आप सभी जानते हैं।द्रौपदी के चीयर हरण और फिर युद्ध और विध्वंस।
    यह संपादकीय संस्कार के उसी वर्णसंकर्ता को दर्शाता है।काश हमारे मीडिया ने भी ऐसा ही शोर मचाया होता।पर यहां तो लोकतंत्र का नृत्य ,पर्व और चुनाव हैं।किसी को फुर्सत ही नहीं है।अगली सरकार आएगी फिर मीडिया शहनाई के सुर चुनेगा और फूंकेगा।
    बोल्ड संपादकीय के लिए संपादक आदरणीय तेजेंद्र शर्मा जी की बधाई।

    • भाई सूर्य कांत जी आपने इस मुद्दे को महाभारत के संदर्भ में समझाया है… हार्दिक आभार.

  8. आपने सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट कै बहुत सही प्रकार कानूनी धाराऐं के उल्लेख के साथ प्रस्तुत किया। सु.कै. के जजों की बात से सहमति नहीं। आज सात फेरे वाले संबन्ध भयानक रूप से तार तार हो रहे हैं। खासकर लड़कियां और उनकू परिवार वाले योजनाबद्ध ढंग से एसा कर रहे। मोटी एलीमनी के लिए। तीन तीन शादियां और तलाक हो रहे हे हैं। सहज तरीका हे 498 ए के तहत एफआईआर जिसमें लडझके के परिवार के सभी सदस्यों के खिलाफ दहे/प्रताडना का केस। कूस एक से अधिक जगह किया जाता है। लड़के वाले परेशान हो मुंहमांगी एलीमनी दे मुक्ति पाते हैं। 3. 5.24 को सु.को. के दो जजों की बेंच ने इसे लेकर लॉ मंत्रालय को लिखा है। इस कानून में परिवर्तन के लिए और 1 जुलाई से लागू होने वाली नयी भारतीय न्याय संहिता में शामिल करने को कहा है। 90% मामले झूठे होते हैं। कहां रही सात फेरों की पवित्रता।

    • आदरणीय अपने कितनी आसानी से यह कह दिया की लड़की के मां बाप एलिमनी के लिए झूठे केस करते है और बेचारे लडके वाले अनुचित एलिमानी देकर छुट्टी पाते हैं क्या सचमुच हर जगह यही होता है । मेरी बेटी का तलाक हुआ है एक पैसा एलिमनि तो दूर उन्होंने हमारे दिए हुए हीरे और स्वर्ण उपहार था बेटी के कपड़े तक वापिस नही किए क्योंकि हमारे जानने से पहले तलाक की प्लानिंग शुरू हो गई थी सो अपने लड़के को चुपचाप बेटी के सारे आभूषण और उनके दिए उपहार गायब करने का निर्देश दे दियावजो उसने बखूबी अंजाम दिया। यहां तक की अपने पैसे के बल पर हमारे वकील को भी खरीद लिया । ऐसे बहुत सारे केस में जानती हूं जहां लडके वालों ने एलिमैनी तो दूर शादी का खर्चा तक नहीं दिया। सारा खेल ताकत और पैसे का है जिसके पास ताकत है पैसा है वही दूसरे पक्ष को निचोड़ देता है । बेटी के केस के दौरान ऐसे बहुत से पीड़ित बेटी पक्ष से मिलना हुआ जो बरसों से अदालत और पुलिस के चक्कर काट रहे है है । आपका बहुत सम्मान करती हूं मगर आपकी टिप्पणी ने बहुत आहत किया।

      • शोभना जी आप तो इस विषय से गहरे रूप से जुड़ी हैं। आप जैसा भुक्तभोगी तो इस समस्या के हर पहलू से गहरा परिचय रखता है।

    • भाई चंदेल जी, आप ने तो पूरी स्थिति का अनावरण कर दिया। अब इस विषय पर गहन शोध आवश्यक है।

  9. अच्छा निर्णय दिया , आपका सम्पादकीय न आता तो पता भी नहीं चलता, जहाँ तक हंगामे की बात है तो अगर किसी दूसरे धर्म के बारे में कुछ ऐसा होता तो ही हंगामा मचता बाकी सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरीके से अरविन्द केजरीवाल जी
    को बिना मांगे ज़मानत दे दी और शिबू सोरेन को नहीं दी उससे उसने अपने को नंगा कर दिया है।

  10. आश्चर्यजनक तथ्य!
    जो सुप्रीम कोर्ट यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू न करने के लिए केंद्र को फटकार लगाती है ( या मजबूत सलाह देती है) वह धार्मिक रिवाजों से बंधे कानून की वजह से धर्म के अंतरंग में भी उतर जाती है।

    • इतनी संक्षिप्त टिप्पणी में कोर्ट की असलियत का चित्रण जरूर है मगर वह पाठकों की अधीरता को संतुष्ट नहीं कर पाती है।कोर्ट के जजमेंट के किसी पहलू को छुआ नहीं और कोर्ट के मैरेज प्रमाणपत्र की दुर्दशा पर भी कोई प्रकाश नहीं डाला है। लेखक तेजेंद्र जी ने इस लेख से पत्रकारिता को भी झकझोर दिया है कि उनके लिए राहुल अमेठी से लड़ेंगे या रायबरेली से यही महत्वपूर्ण है। बाकी देश की घटानाओ से बेखबर है
      आशा करता हूं की कोमन सिविल कोड बनाते समय सरकार या ध्यान रखेगी

      • भाई प्रमोदराय झा साहब, जितना एक संपादकीय में संभव था उतना समेटा है। हमें अपनी बात सरकार तक अवश्य पहुंचानी चाहिये। बाकी तथाकथित मुख्यधारा की मीडिया तो बस शोर ही मचाता है।

  11. तेजेंद्र जी
    आप अपने संपादकीय के माध्यम से किसी भी व्यवस्था पर जो हौले से कटाक्ष करते हुए अपनी बात रखते हैं, प्रेरक हैं। हरेक साहित्यकार को आप ही की तरह अपने आसपास होने वाली सभी बातों पर सूक्ष्म दृष्टि रख ,अपनी सोच को विस्तार देना चाहिए।

  12. नमस्कार
    सम्पादकीय में समाज-संस्कार -सनातन -संस्कृति परम्पराएं और हिंदु रिवाजों के अनुसार विवाह विधि पर विस्तृत विचार हैं ।माननीय उच्चतम न्यायालय का फैसला भी बिगड़ी हुई परम्परा को पटरी पर लाने की दिशा में उचित प्रतीत होता है ।अहम फैसला चुनावी माहौल में दब गया यह सही है ।
    Dr Prabha mishra

    • जी
      चुनावी माहौल में दब गया समझ आता है… लेकिन केवल राहुल गाँधी के कारण दब गया….. ताज्जुब….

      • बबिता जी जब यह फ़ैसला सुनाया गया उन दिनों टीवी चैनल अमेठी और रायबरेली से जूझ रहे थे। बाद में किसी ने सोचा ही नहीं होगा।

  13. आदरणीय सादर प्रणाम आपका संपादकीय हमेशा कुछ न कुछ नये सवालों के साथ प्रकाशित होता है। इस बार भी यह एक बहुत ज़रूरी सवाल लेकर खड़ा है भारतीय संस्कृति और आज की आधुनिकतावाद के बीच । भारत में वैसे भी अब भारतीय संस्कृति, परंपराएँ टी वी सीरियल या फिर राज श्री प्रोजेक्शन की फ़िल्मों में ही दिखाई देती है। वर्तमान में भारत में हर ज़रूरी मुद्दे को अनदेखा करने की आदत बन गई है ।युवाओं कीं मनमानी बनाम आधुनिकता ही भारत में रह गया है।सरकारी अदालत में कितने ही मुक़दमे सालों-साल चलते है पर फ़ैसला नहीं मिलता । यह मुक़दमा भी कुछ ऐसा ही है । दूसरी तरफ़ आपका लेख यह भी बताता है कि भारतीय सरकारी व्यवस्था कितनी लचर है । कोई भी विभाग अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक या ज़िम्मेदार नहीं है । आप हर बार बार एक नया विषय अपने संपादकीय के माध्यम से पाठकों के समय प्रस्तुत करते है । यह बहुत सराहनीय कार्य है। आपको बहुत बहुत शुभकामनाएँ

  14. कोई समाज सभ्य सुसंस्कृत तभी रह पाता है जब वह निर्धारित संस्कारों का अनुपालन करता है, लेकिन यदि कोई रीत रिवाज परम्परा, संस्कार बेड़ी बनने लगे तो उसमें परिवर्तन से संकोच नहीं करना चाहिए….
    जहां तक बात भारतीय न्याय व्यवस्था की है तो मैं बिना भय संकोच के उसकी निष्पक्षता पर संदेह व्यक्त करता रहा हूं, क्योंकि सच यही है….

    • आपने तो न्याय व्यवस्था पर अपनी राय रखी है। बहुत से निर्णय सवाल तो उठाते ही हैं।

  15. आपने विस्तृत रूप से सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बारे में बताते हुए बताया उसने कहा कि हिन्दुओं में विवाह संस्कार है जो सप्तसदी के बाद ही पूरा माना जाता है जबकि अन्य धर्मो में कॉन्ट्रैक्ट मैरिज है।
    सुप्रीम कोर्ट का फैसला स्वागत योग्य ही नहीं हिंदू संस्कृति की जड़ों को मजबूत करेगा।
    मैंने भी पढ़ा था लेकिन यह बात सत्य है इस पर कहीं कोई विशेष चर्चा नहीं हुई।
    धन्यवाद आपका।

    • सुधा जी आपने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को हिन्दू संस्कृति की जड़ों को मज़बूत करने के कोण से परखा है। आभार।

  16. सबसे पहले तो आपकी नज़र इस खबर पर पड़ी और आपने इसे संपादकीय में लिया, इसके लिए आपको साधुवाद।
    बाकी तो बात बहुत बड़ी है। आज की पीढ़ी, जिसे हर चीज़ क्लिक करने की आदत पड़ चुकी है। बटन दबाते ही काम हो जाने के युग में सात जन्मों तक चलने वाले रिश्ते की बात उन्हें असहज करती है। इसके अलावा हिन्दू बच्चों में अपनी संस्कृति, संस्कार और परम्पराओं के प्रति इतना ज़हर भरी दिया गया है कि पूरी की पूरी पीढ़ी ही दिग्भ्रमित है। 60-70 के दशक के माता-पिता की पीढ़ी इसे अच्छी तरह समझ सकती है।

  17. विवाह गीत, नृत्य और शराब और शबाब का आयोजन नहीं है। ये बात सबसे खास है आज के युवा पीढ़ी को इस बात का ध्यान होना चाहिए। विवाह एक पवित्र संस्कार है। विवाह दो भिन्न लिंग के व्यक्ति का मिलन मात्र नहीं है बल्कि दो पारिवार का एक प्रेम बंधन होता।

  18. ऐसे विषयों पर सम्पादकीय लिखना जो किसी की नजर में न आए यह आपकी विशेषता है सर! । विवाह संस्था पर सुप्रिम कोर्ट का निर्णय सर्वथा उचित हसी और उसकी समुचित व्याख्या आपके सम्पादकीय में मिलती है। साधुवाद

  19. तेजेन्द्र जी
    धन्यवाद इस महत्वपूर्ण सूचना के लिए। जब तक मीडिया शोर न करे हम जैसे तो अनभिज्ञ ही रहते हैं।
    आप हर मुद्दे को सामने लाकर अपने संपादकीय के माध्यम से हमें जागरूक कर देते हैं।

  20. इतने महत्वपूर्ण फ़ैसले पर भारतीय मीडिया की चुप्पी अफ़सोसजनक है।आपको धन्यवाद इस महत्वपूर्ण निर्णय से अवगत कराने के लिए ।

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