मगर जहां तक कृष्णा की अंतिम स्पीच का प्रश्न है, मुझे पूरे साहित्य और सिनेमा में केवल एक ही और ऐसी स्पीच याद आती है जिसने सुनने वालों की पूरी मानसिकता को बदल दिया हो। शेक्स्पीयर के नाटक जूलियस सीज़र में मार्क एंटनी की स्पीच, “फ़्रेण्ड्स रोमन्स कंट्रीमेन, आई कम टु बरी सीज़र एण्ड नॉट टु प्रेज़ हिम…” का सुनने वालों पर ठीक ऐसा ही असर हुआ था जो कि कृष्णा की स्पीच सुन कर ए.एन.यू. के विद्यार्थियों पर हुआ।
इस भावप्रवण, सुन्दर, रोचक, प्रभावशाली एवं उत्कृष्ट सम्पादकीय के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें सर।।
धन्यवाद भाई चंद्रशेखर।
एक चर्चित या यूँ कहें विवादास्पद फिल्म पर सन्तुलित संपादकीय पढ़ कर अच्छा लगा। भारतीय इतिहास की पर्तों /गर्तों में कश्मीरी पंडितों के अलावा कई और गम्भीर मुद्दे छिपे पड़े हैं। इस फ़िल्म को देख कर आशा बंधती है कि वह सब भी बाहर आयेंगे। भारतीय सिनेमा परिपक्व हो रहा है, मुद्दों को उठाया जा रहा है, कलाकारों को अवसर मिल रहा है ‘स्टारवाद’ का आतंक कम हो रहा है, यह सब सुखद है। अगले संपादकीय की प्रतीक्षा रहेगी।
शैली जी, सारगर्भित टिप्पणी के लिये धन्यवाद। आशा करता हूं कि अगला संपादकीय आपकी अपेक्षाओं पर खरा उतरेगा।
“द कश्मीर फाइल्स” पर आपकी विश्लेषणात्मक टिप्पणी,फ़िल्म का रिव्यू, इस पिक्चर के बारे में तटस्थता से जो सारगर्भित बातें आपने कही है उससे इसे देखने का उत्साह और नजरिया बदल गया है। हर पात्र के बारे में भी आपने सूक्ष्म अवलोकन किया है। हार्दिक साधुवाद।
फ़िल्म के तकनीकी पक्ष का बहुत ही संतुलित, सारगर्भित और बारीकी से किया गया विश्लेषण।फ़िल्म देखने का अवसर अभी नहीं बन पाया है,देखकर शायद और सामंजस्य बैठे,अगले अंक की भी प्रतीक्षा है।
( बात सिर्फ फिल्म की हो रही है उस नाते) निर्देशन और बेहतर हो सकता था। ताशकंद फाइलस् की तरह यह फिल्म भी डॉक्युमेंट्री सी लगती है कहीं कहीं। इससे कई गुणा अधिक पीड़ा सबने झेली होगी, उसे उतारने मे कसर दिखती है कई जगहो पर। पेड़ पर लटके लोग कृतिम दिखे, तकनीक कमज़ोर है। मैं Schilnders list की उम्मीद मे थी शायद। भारत के फिल्मकारों मे अभी काफी scope of improvement है।
जहाँ तक विषय वस्तु का प्रश्न है, जिन्होंने यह झेला, जाहिर है वो बिलखने से खुद को नही रोक पाएंगे। और जो इस विषय को जान पाए, वो बिफरने से नही रुकेंगे।
अजन्ता आपकी टिप्पणी से आपकी दृष्टि की गहराई का पता चलता है। धन्यवाद।
नूतन आपको संपादकीय पसन्द आया। धन्यवाद।
धन्यवाद उषा जी। पुरवाई के संपादकीय ने आपक मयै नज़रिया दिया, यह जान कर प्रसन्नता हुई।
बहुत ही सुंदर और विस्तृत ढंग से की गई समीक्षा। जिस तरह संपादकीय में एक-एक पात्र का विश्लेषण किया गया है वह सराहनीय है। फिल्म के दो दृश्य (अनुपम खेर के बिस्कुट चाटने और एक लाइन में खड़े लोगों को गोली मारने के दृश्य) पर बहुत गहन दृष्टि डाली गई है। इस बात से सहमत हुआ जा सकता है कि फ़िल्म का अंत अप्रत्याशित रूप से हुआ है जहाँ दर्शक अभी कुछ और देखने की इच्छा रख रहा था (शायद फ़िल्म की लंबाई पहले ही अधिक होना भी इसका कारण हो सकती है।
बहरहाल जुलियर सीजर के नाटक की स्पीच (फ्रेंड्स रोमस कंट्रीमेन. . .) का वर्णन सम्पादकीय की अद्भुत जानकारी है।
इस लाज़वाब समीक्षा के लिए हार्दिक बधाई के साथ सम्पादकीय के दूसरे हिस्से की प्रतीक्षा रहेगी. . . हार्दिक सादुवाद तेजेन्द्र सर।
प्रिय विरेन्द्र भाई आपने बहुत मन से टिप्पणी की है। संपादकीय को गहराई से पढ़ा है। बहुत बहुत धन्यवाद।
“द कश्मीर फाइल्स “फ़िल्म की समीक्षा में कहानी, दृश्य, संवाद, क़िरदार ,संगीत, गीत ,फिल्मांकन पर बहुत बारीकी से देखा, और लिखा गया है ।
निर्देशन की खूबियां और कमजोरियों पर भी बिंदुवार
उल्लेख को पढ़कर पाठक को फ़िल्म देखने का एक नजरिया देता है । शुक्रिया
Dr Prabha mishra
प्रभा जी आपने अस्पताल से भी टिप्पणी के लिये समय निकाला। प्रभु आपको सेहत बख़्शें।
इस फ़िल्म पर कई क्रिटिक की समीक्षाएं पढ़ी सभी या तो इस पार के लोगों की या उस पार के लोगों की ओर झुकी लगी। आपकी लिखी समीक्षा संतुलित है अब तक। अगले सप्ताह राजनैतिक प्रतिक्रिया से पता चलेगा कि आपके मन मे क्या है।
सुरेश भाई आपको समीक्षा पसंद आई, बहुत शुक्रिया। उम्मीद करता हूं कि अगली किस्त आपकी अपेक्षाओँ पर खरी उतरेगी।
फ़िल्म देखने की उत्सुकता और भी बढ़ गई है । देख न पाए अब तक । सबसे बड़ी बात कि ऐसी फ़िल्म बनाई गई , बनी, माना बड़ा चुनौती भरा काम ! माद्दा चाहिए, पर बाहर आई और दर्शकों तक पहुँची ये आश्चर्यजनक बात है ,स्वागत योग्य! माहौल सच में बदल रहा है । आँखों पर से पट्टियाँ खोली जा रही है । फिर भी कुछ लोग अंधे बने ही रहना चाह रहे हैं । अपनी अपनी सोच । स्वतंत्र है सब।
पद्मा फ़िल्म कश्मीर फ़ाइल्स आपको पसंद आई।अच्छा है।
बहुत कुछ सुन रहे हैं इस फ़िल्म के बारे में।प्रतिक्रिया ऐसी ऐसी आ रहीं हैं कि फ़िल्म देखने की भी हिम्मत नहीं हो पा रही है।आपके संपादकीय से थोड़ी राहत हुई है।
राजेश भाई आपको संपादकीय पसंद आया, धन्यवाद।
फिल्म पर और बातें जरूर जानना चाहेंगे।पहली बार कश्मीरी हिन्दुओं के दर्द को पर्दे पर उतारा गया है लेकिन अफसोस है इस दर्द को प्रोपैगैंडा कहकर सच को फिर दफन करने की कोशिश की जा रही है।इस फिल्म में जुल्मों का एक प्रतिशत भी नहीं दिखाया गया।
यदि पूरा दर्द दिखा दिया जाता तो क्या होता।
बहुत बेहतरीन तरीक़े से चरित्रों और दृश्य का विश्लेषण किया है।
दिव्या इस सारगर्भित टिप्पणी के लिये बहुत धन्यवाद।
Congratulations Tejendra ji for your references and details relating to the controversial film Kashmir Files in your Editorial of today.
The very subject of Kasmiri Pandits having been rendered homeless is so sensitive and fragile that one cannot but feel very grieved,so unfortunate that it is.
Thanks for initiating an objective view.
Deepak Sharma
Deepak ji, I realized that due to political considerations, the film reviews were not being convincing. Therefore, I made this review purely cinematic. In the next issue I shall talk about the content.
वाह
बहुत ही सुंदर समीक्षाकरण किया है आदरणीय तेजेन्द्र जी।
मैं कल ही देर रात फ़िल्म देख कर आया और आज सुबह सबसे पहले उठ कर अपनी समीक्षा तैयार की। आपको भेजने ही वाला था कि उसके पहले आपका लेख पढ़ने को मिला।
परंतु वाकई में इतनी बारीकी से की हुई फ़िल्म की और उनके क़िरदारों की विस्तृत विवरण पढ़कर बहुत ही अच्छा लगा। आप लेखनी पूरे की पूरे फ़िल्म का दृश्य आंखों के सामने उतारती है। अति सुंदर लेखन।
– सूर्यकांत सुतार ‘सूर्या’
तंजानिया
भाई सूर्यकांत सुतार जी, आपने तंज़ानियां में फ़िल्म देखने के बाद संपादकीय पढ़ा… जान कर अच्छा लगा। मेरा प्रयास रहा कि फ़िल्म समीक्षा के माध्यम से फ़िल्म अपने पाठकों तक पहुंचाऊं।
बहुत ही सुंदर , सारगर्भित और एक एक पक्ष को बहुत ही खूबसूरती से लिखा आपने सर । एक संशय है पल्लवी के किरदार में निवेदिता के साथ बरखा दत्त का मिश्रित अभिनय है या अरुंधति राय का ? मुझे पल्लवी को देखते हुए निवेदिता के साथ अरुंधति की याद दिलाता रहा । मैं भी ये अपना संशय दूर करना चाहती हूँ ।
शशि जी आपने न केवल संपादकीय को पढ़ा, उसका लुत्फ़ उठाया, बल्कि एक सवाल भी उठाया। अब मैं राधिका के चरित्र पर एक बार फिर से ध्यान दूंगा।
आदरणीय चरणस्पर्श। पुरवाई की संपादकीय के माध्यम से आपके द्वारा हमेशा ही समसामयिक विषयों को उजागर किया जाता है। द कश्मीर फाइल्स जैसा विषय आखिर कैसे छूट सकता था। बकायदा आपने इसका ऐलान अपने फेसबुक पोस्ट के माध्यम से भी सूचित करके किया। वर्षों पूर्व कश्मीरी पंडितों के साथ सिर्फ हिंदू होने के नाते जो घटा और जिस क्रम में सुनियोजित घटा वह – विभत्स है, दर्द से भरा। अखिल भारतीय स्तर पर एक फिल्म ने आज लाखों-करोड़ों उन लोगों को भी, कश्मीरी पंडितों के दर्द में भावानात्मक रूप में जागृत कर दिया है जो उस समय वहां मौजूद नहीं थे। सकारात्मक नकारात्मक टिप्पणियां तो आती-जाती रहेंगी, पर उनके दर्द को झूठलाया नहीं जा सकता। देश सच पहले भी जानता था बस आज फर्क इतना है कि सच सिनेमा बनकर सबने देख लिया। आपके मंच के द्वारा सशक्त लेखन / सिनेमा आदि अन्य सभी पहल निश्चित रूप से कश्मीरी पंडितों को न्याय दिलाने के क्रम में बढ़ता कदम साबित हो। धन्यवाद
शुभम बेटा, आपकी यह टिप्पणी मेरे लिये महत्वपूर्ण है कि युवा पीढ़ी भी पुरवाई के संपादकीय में रुचि ले रही है और पढ़ती है। सच को सिनेमा बनाना भी एक कला है।
फ़िल की तकनीकी जानकारी और उसे परखने का अन्दाज़, प्रभावशाली है। अगले एपिसोड की प्रतीक्षा रहेगी।
धन्यवाद डॉक्टर अंसारी। उम्मीद है कि अगले एपिसोड से आपको निराशा हाथ नहीं लगेगी।
बेहद संजीदगी से हर चरित्र की शल्यक्रिया और नारको टेस्ट असाधारण प्रतिभा के धनी आईकॉनिक राइटर आदरणीय तेजेंद्र अब्बू जी ने कर डाली फिल्म देखने की दिलचस्पी को कई गुना बढ़ा दिया निराले अंदाज में बेहतरीन समीक्षा को अंजाम दे दिया
दीपा इतनी प्यारी टिप्पणी के लिये ढेर सा स्नेहाशीष।
आपकी समीक्षा से शत प्रतिशत सहमत हूँ सर। बैकग्राउंड स्कोर बहुत ड्रामेटिक नहीं थे वर्ना लोग और emotional हो जाते। कुछ मित्रो की पत्नियाँ तो सहन नहीं कर पाईं। आधे घंटे में ही बाहर आ गई। आरी वाले सीन में मेरी पत्नी को तो उल्टी आ गई। जिनके ऊपर सचमुच में बीती होगी उनके दर्द को समझ पाना मुश्किल है।
धन्यवाद आशुतोष।
बहुत विस्तृत और सार्थक लिखा आपने | लेख की ही कुछ सोचने पर विवश करती पंक्तियाँ …आजतक जो फ़िल्में इस विषय पर बनीं वे अधिकांश आतंकवादियों के दृष्टिकोण से बनीं। रोजा, मिशन कश्मीर, हैदर, शिकारा, फ़ना जैसी दस बारह फ़िल्में बनी हैं मगर कश्मीरी पंडितों का दर्द किसी फ़िल्म में दिखाई नहीं देता। किसी हद तक इस घटना की तुलना जर्मनी में यहूदियों के विरुद्ध होलोकास्ट के साथ की जा सकती है। आगे के लेख की प्रतीक्षा
वंदना जी आपकी सार्थक टिप्पणी के लिए धन्यवाद।
द कश्मीर फाइल्स बेहतरीन फिल्म पर आपकी प्रतिक्रिया अनमोल है हार्दिक शुभकामनाएं
धन्यवाद संगीता
बहुत बारीकी और निष्पक्षता के साथ फिल्म की समीक्षा लिखी गई है । फिल्म संबधी प्रत्येक पहलू को कुशलतापूर्वक समेटा गया है ; साथ ही कुछ ऐसी जानकारियां भी जिनके बारे में अनभिज्ञ थे । विषयवस्तु के अलावा हमें उस पर चल रही राजनीति में भी बराबर की दिलचस्पी है , इसलिए इस संपादकीय के दूसरे भाग की अधिक प्रतीक्षा रहेगी ।
सादर,
रचना सरन
रचना इतनी सार्थक टिप्पणी के लिए धन्यवाद काफ़ी नहीं है।
द काश्मीर फाइल्स पर आपकी सार्थक टिप्पणी पढ़ी। फिल्म में हर कलाकार ने अपने अभिनय के साथ पूर्ण न्याय किया है । यह बात बिल्कुल सत्य है। पल्लवी जोशी विवेक अग्निहोत्री की पत्नी हैं हमें यह बात फ़िल्म देखने के भी बहुत दिन बाद मालूम हुई किन्तु इस बात का फ़िल्म से कोई ताल्लुक नहीं दिखाई दिया क्योंकि पल्लवी जोशी ने अपने किरदार को बहुत सुघड़ता से निभाया है । उसमें उनका देखने का तरीक़ा कृष्णा को बुलाना समझाना और उसका माइंड वाश करने के बाद का जाना । बरखा अरुंधती और मेनन तीनो पर भारी दिखा और वो भी बिल्कुल नेचुरल प्रेक्टिस में। वो अभिनय कम हकीकत अधिक लगी। आपने सही पकड़ा उनकी उंगलियां और गज़ल जैसे वाह कहा जा सकता है। अनुपम खेर या अन्य किरदार तो आपने सटीक टिप्पणी दी है । इस फ़िल्म को अवॉर्ड न मिलना ज़रूर आश्चर्य जनक होगा।
फ़िल्म देखकर बहुत सारे प्रश्न जन्म ले रहे थे। यह सही है कि इस काम के लिए बहुत स्पेड वर्क किया गया होगा सच्चाई के बहुत नजदीक से होकर गुजरती हुई फ़िल्म है ये आपने इस फ़िल्म पर लिखकर एक बारगी फिर से मन को कुरेद दिया क्यूंकि काश्मीर के नरसंहार को भूल पाना इतना आसान तो नहीं है ।
कुछ कमियां आपने बहुत बारीकी में जाकर बताई हैं। आपका फ़िल्म के लिए गहन जांच करते हुए लिखना। आपकी कलम को नमन बनता है । प्रणाम स्वीकर कीजिए।
टिप्पणी देने में देर हुई