मगर जहां तक कृष्णा की अंतिम स्पीच का प्रश्न है, मुझे पूरे साहित्य और सिनेमा में केवल एक ही और ऐसी स्पीच याद आती है जिसने सुनने वालों की पूरी मानसिकता को बदल दिया हो। शेक्स्पीयर के नाटक जूलियस सीज़र में मार्क एंटनी की स्पीच, “फ़्रेण्ड्स रोमन्स कंट्रीमेन, आई कम टु बरी सीज़र एण्ड नॉट टु प्रेज़ हिम…” का सुनने वालों पर ठीक ऐसा ही असर हुआ था जो कि कृष्णा की स्पीच सुन कर ए.एन.यू. के विद्यार्थियों पर हुआ।

 

‘जय संतोषी माँ (1975)’ के बाद विवेक अग्निहोत्री की फ़िल्म ‘दि कश्मीर फ़ाइल्स’ शायद पहली फ़िल्म है जिसे विज्ञापनों की कोई आवश्यक्ता नहीं पड़ी। सिने-दर्शकों ने इस फ़िल्म को हिट बना दिया है। और फिर यह शायद पहली ही फ़िल्म है जिसके बीच में और अंत में दर्शक भारत माता की जय और जय हिंद के नारे लगाते दिखे। फ़िल्म सौ करोड़ से अधिक की कमाई पहले दस दिनों में ही कर चुकी है।
ध्यान देने लायक बात यह है कि ‘दि कश्मीर फ़ाइल्स’ पर पहले तो सब ने चुप्पी साधे रखी मगर फिर अचानक उस पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह की प्रतिक्रियाएं शुरू हो गयीं। फ़िल्म के बारे में बात करने से पहले दो बातें बता देना आवश्यक समझता हूं – पहली तो यह कि विवेक अग्निहोत्री आतंकवादियों की हिट-लिस्ट में आ गये हैं और सरकार ने उन्हें ‘वाई’ श्रेणी की सुरक्षा प्रदान कर दी है। और दूसरी यह कि विवेक अग्निहोत्री ने यह सूचना सार्वजनिक मंच पर दी है कि इस फ़िल्म से जितना भी लाभ होगा, वो सारी राशि कश्मीरी पंडितों को वापस कश्मीर में बसाने पर ख़र्च किये जाएंगे।
एक दर्शक के नाते पहले मैं फ़िल्म पर एक सिनेमा कृति के रूप में बात करना चाहूंगा। एक ऐसी घटना जो केवल 32 वर्ष पहले घटी हो, उस पर फ़िल्म बनाना बहुत आसान काम नहीं होता है। क्योंकि अभी भी बहुत से लोग जीवित हैं जिन्हें उस समय की सच्चाइयां याद होंगी। इसके लिये यह जान लेना बहुत आवश्यक है कि विवेक अग्निहोत्री और उनकी पत्नी पल्लवी जोशी ने इस फ़िल्म के लिये चार वर्ष से अधिक शोध कार्य किया और लगभग सात सौ लोगों के साक्षात्कार लिये। बहुत से डॉक्युमेंट एकत्रित किये।  (वैसे मुझे भी हाल ही में पता चला कि विवेक अग्निहोत्री और पल्लवी जोशी पति-पत्नी हैं।)
यानी कि फ़िल्म के निर्देशक पर यह आरोप नहीं लगाया जा सकता कि उसने अपने विषय पर काम नहीं किया। वहीं यह भी सच है कि जिस विषय पर शोधपरक डॉक्युमेंटरी बनाई जा सकती थी, उस विषय पर फ़ीचर फ़िल्म बनाने का निर्णय लेकर विवेक ने ख़ासा जोखिम उठाया। ज़ाहिर है कि ऐसे विषय पर सिनेमा बनाते समय कुछ अतिरेक भी हो सकते हैं और कुछ छूटने का डर भी रहता है।
अपने पाठकों को बता देना चाहूंगा कि मैं यह संपादकीय दो किश्तों में लिखने वाला हूं। आज केवल और केवल फ़िल्म के बारे में बात करूंगा। जहां तक फ़िल्म की विषय-वस्तु का प्रश्न है, उसके बारे में अगले रविवार को चर्चा करूंगा।
विवेक ने अपने शोध के बाद आतंकवादियों द्वारा किये गये कुछ कृत्यों को अपनी फ़िल्म के लिये चुन लिया… कुछ घटनाएं, कुछ नारे… कुछ चरित्र। उन पर अपना स्क्रीनप्ले तैयार किया और फिर कलाकारों का चयन किया। पल्लवी जोशी और अनुपम खेर का चुनाव तो आसानी से हो गया होगा। मेहनत करनी पड़ी होगी अन्य किरदारों के लिये।
ब्रह्मदत्त के चरित्र के लिये मिथुन चक्रवर्ती और चिन्मय माँडलेकर (एक मराठी कलाकार) का चयन फ़ारुख़ अहमद दार (बिट्टु कराटे) के लिये चयन एक तरह का मास्टर स्ट्रोक कहा जा सकता है। दोनों ने अपने-अपने चरित्र के लिये बहुत मेहनत की है।
चिन्मय ने तो कश्मीरी बोलने के लहजे तक को ऐसा पकड़ा है कि कोई सोच भी नहीं सकता कि यह कलाकार कश्मीरी नहीं है। यह तो तय है कि उसने असली बिट्टु कराटे का दूरदर्शन का इंटरव्यू अवश्य कई बार देखा होगा। शायद इसीलिये असली टीवी इंटरव्यू के मुकाबले उसका अंदाज़ अधिक नेचुरल लगा।
वहीं मिथुन चक्रवर्ती ने ब्रह्मदत्त के रूप में बहुत लंबे अरसे के बाद एक बेहतरीन परफ़ॉर्मेंस दी है। वैसे अमिताभ बच्चन की ही तरह मिथुन भी समय के साथ-साथ अधिक परिपक्व अभिनेता होते जा रहे हैं। आपको याद होगा कि एक ज़माना था जब मिथुन को ‘पुअर मैन्ज़ अमिताभ’ कहा जाता था। वह तब भी अमिताभ को टक्कर दे रहा था और आज भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहा है।
विवेक अग्निहोत्री ने अपनी फ़िल्म को एक निर्देशक की फ़िल्म बनाये रखा है। किसी एक चरित्र पर अधिक फ़ोकस न रखते हुए हर कलाकार एक या दो ऐसे सीन दिये हैं जिसमें उसे अपनी कला प्रदर्शित करने का अवसर मिल सके।
अनुपम खेर के लिये तो यह एक ‘राइटर बैक्ड रोल’ था ही और उन्होंने उस किरदार के साथ पूरा न्याय भी किया है। चाहे वे शुरूआती नाटक कलाकार हों, पिता हों, दादाजी हो या फिर डिमेंशिया के मारे हुए शरणार्थी। कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि इस रोल के लिये उन्हें पुरस्कारों और सम्मानों की एक लाइन ही लग जाए।
फ़िल्म का एक सीन है जब पुश्कर नाथ पंडित (अनुपम खेर) अपनी बहू शारदा और पौत्रों शिवा और कृष्णा के साथ शरणार्थी कैंप में रह रहा है। शिवा जब और चावल मांगता है तो शारदा उसे टाल देती है कि रात को अधिक खाना पेट के लिये अच्छा नहीं है। यह देख कर पुश्कर नाथ पंडित की भूख मर जाती है। वह टेंट से बाहर आकर अपने डिब्बे में से एक बिस्कुट निकालता है। ग़रीबी का आलम यह है कि वह उस बिस्कुट को खा कर ख़त्म नहीं करता। केवल चाट कर अपने आप को संतुष्ट कर लेता है। जब तक वह अपना बिस्कुट चाट रहा होता है करीब के टेंट के बाहर एक वृद्ध महिला पीड़ा से चिल्ला रही है।… पुश्कर नाथ के बिस्कुट चाटने की प्रक्रिया समाप्त होते-होते महिला का चिल्लाना बंद हो जाता है क्योंकि उसका निधन हो जाता है। इस सीन में अनुपम खेर ने बेजोड़ अभिनय किया है।
मैं विशेष तौर पर पल्लवी जोशी का भी ज़िक्र करना चाहूंगा। जो प्यारी सी वैंपिश मुस्कान उन्होंने अपने चेहरे पर चिपका कर उन्होंने इस किरदार को निभाया है, अद्भुत है। उनका यह चरित्र जे.एन.यू. कि एक प्रोफ़ेसर निवेदिता मेनन पर आधारित है मगर पल्लवी ने बहुत ख़ूबसूरती से निवेदिता और बरखा दत्त को आपस में मिला दिया है। पल्लवी की बिंदी की भी ख़ासी चर्चा हो रही है।
निवेदिता मेनन ने विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए कहा था कि, “सभी जानते हैं कि भारत ने ग़ैरकानूनी ढंग से कश्मीर पर कब्ज़ा जमा रखा है। भारत के नक्शे में विदेशी चैनलों और टाइम, न्यूज़वीक जैसी पत्रिकाओं में कश्मीर को अलग से दिखाया जाता है। वो नक्शा भारत से एकदम अलग होता है।” यही सब पल्लवी का चरित्र भी कहता है।
फ़ैज़ की नज़्म ‘हम देखेंगे… ’ का भी बहुत ख़ूबसूरत इस्तेमाल किया गया है। हारमोनियम पर पल्लवी की उंगलियां बहुत सधे हुए ढंग से चलती हैं। उसके बोल दर्शकों तक राधिका मेनन की भावनाएं सही ढंग तक पहुंचाते हैं – “जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी / जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से / सब बुत उठवाए जाएंगे / हम अहल-ए सफ़ा मरदूद-ए-हरम / मसनद पे बिठाए जाएंगे  / सब ताज उछाले जाएंगे / सब तख़्त गिराए जाएंगे / बस नाम रहेगा अल्लाह का / जो ग़ायब भी है हाज़िर भी।” पल्लवी के चेहरे की धूर्तता में ख़ूबसूरती का बेजोड़ मिश्रण दिखाई देता है।
भाषा सुंबली ने शारदा का अभिनय किया है। वह हिंदी की जानी पहचानी लेखिका क्षमा कौल की पुत्री हैं और उन्होंने शारदा के चरित्र को जीवंत कर दिया है। जब उसे अपने पति के ख़ून से सने चावल खाने पर मजबूर किया जाता है – उस सीन में किरदार का दर्द भाषा के चेहरे और आँखों से पूरा दर्द अपने दर्शकों के दिल में हस्तांतरित कर देता है। भाषा का अभिनय बहुत सधा हुआ है।
पुनीत इस्सर (डी.जी.पी. हरि नारायण), अतुल श्रीवास्तव (पत्रकार विष्णु राम), और प्रकाश बेलावाड़ी (डॉक्टर महेश कुमार) ने जब-जब मौक़ा मिला अपनी उपस्थिति पूरी शिद्दत से दर्ज करवाई। मृणाल कुलकर्णी बहुत दिनों बाद बड़े पर्दे पर लक्ष्मी दत्त का किरदार पूरी ईमानदारी से निभाया है।
एक बाल-कलाकार ने भी मेरा ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया जिसका नाम है पृथ्वीराज सरनायक। उसने शिवा के किरदार को इस परिपक्वता से निभाया है कि उसे बाल-कलाकार कहना ग़लत होगा। फ़िल्म के पहले सीन में जब वह क्रिकेट खेल रहा होता है और अंतिम सीन में गोली लगने से पहले, उसके चेहरे के भाव को एक ही शब्द में बताया जा सकता है – अद्भुत!
लंदन में इस फ़िल्म में कोई मध्यांतर नहीं था। फ़िल्म लगातार चलती रही। हो सकता है कि भारत में दिखाई जा रही फ़िल्म लंदन में दिखाई जा रही फ़िल्म से कुछ अलग हो। मगर कुल मिला कर लंदन में भी फ़िल्म समझ तो आ रही थी कि कहना क्या चाह रही है।
अब बात करनी होगी कृष्णा की भूमिका निभाने वाले कलाकार दर्शन कुमार की। दर्शन ने इस भूमिका के लिये बहुत मेहनत की है। वामपंथियों द्वारा ब्रेनवॉश किये युवा का चरित्र दर्शन ने बहुत मेहनत से निभाया है। उसे पहले तो राधिका मेनन ब्रेनवॉश करती है और अंततः बिट्टु कराटे। ब्रेनवॉश होते समय उसके चेहरे की अनिश्चितता और उलझन साफ़ दिखाई देते हैं।
मगर जहां तक कृष्णा की अंतिम स्पीच का प्रश्न है, मुझे पूरे साहित्य और सिनेमा में केवल एक ही और ऐसी स्पीच याद आती है जिसने सुनने वालों की पूरी मानसिकता को बदल दिया हो। शेक्स्पीयर के नाटक जूलियस सीज़र में मार्क एंटनी की स्पीच, “फ़्रेण्ड्स रोमन्स कंट्रीमेन, आई कम टु बरी सीज़र एण्ड नॉट टु प्रेज़ हिम…” का सुनने वालों पर ठीक ऐसा ही असर हुआ था जो कि कृष्णा की स्पीच सुन कर ए.एन.यू. के विद्यार्थियों पर हुआ।
राधिका मेनन का स्पीच के बीच में से उठ कर जाना और कृष्णा का कहना, “हर स्थिति में कोई न कोई विलेन अवश्य होता है।” ज़ाहिर है कि कृष्णा राधिका को खलनायक कह रहा है।
स्पीच के दौरान दर्शन कुमार के गले और माथे की नसें फूल जाती हैं। इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि वह किस कदर अपने किरदार में खो गया है। विवेक अग्निहोत्री ने दर्शन कुमार को खुली छूट दे दी है कि भाई इस मौके का पूरा फ़ायदा उठा लो। और दर्शन ने इसका पूरा फ़ायदा भी उठाया।
जहां तक संगीत का प्रश्न है – पार्श्व संगीत फ़िल्म को समझाने में अपना पूरा योगदान करता है। फ़िल्म में गीत तो हैं ही नहीं। इसलिये पार्श्व संगीत का महत्व और अधिक हो जाता है। फ़ोटोग्राफ़ी भी फ़िल्म की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है।
अब बात करें कुछ दृश्यों की जो और बेहतर ढंग से फ़िल्माए जा सकते थे या दिखाए जा सकते थे। पति के ख़ून से सने चावल खिलाने का दृश्य दोबारा दिखा कर उसका प्रभाव कमज़ोर हो गया। निर्देशक और लेखक जो दर्शकों तक पहुंचाना चाहते थे, वह एक बार में सही मात्रा में पहुंच गया था।
जब शारदा के शरीर को आरे से चीरा जा रहा था, उस सीन को भी अधिक संवेदनशीलता से फ़िल्माया जा सकता था।  महसूस हुआ जैसे निर्देशक का मुख्य उद्देश्य केवल दर्शकों को झकझोरना ही है।
अंतिम सीन में जब 24 / 25 लोगों को भारतीय सैनिकों की युनिफ़ॉर्म में गोली मारी जाती है तो हर व्यक्ति का गोली खा कर गिरना दुख और ख़ौफ़ के स्थान पर बोरियत पैदा करता है। पहली तीन गोलियों के बाद कैमरा कुछ और दिखा सकता था… जैसे कि देखने वालों के चेहरे के भाव या फिर गोलियों के आवाज़ से उड़ते परिंदे… मगर एक-एक इन्सान का गोली खा कर गिरना इतना मैकैनिकल हो गया कि दर्शकों पर सही असर नहीं छोड़ता।
फ़िल्म अचानक ख़त्म हो जाती है। जैसे निर्देशक को समझ नहीं आ रहा कि इसके आगे क्या दिखाना है। लगता है जैसे अचानक विवेक अग्निहोत्री के अस्त्र-शस्त्र चुक गये हैं। इस सीन में बैकग्राउण्ड में एक गीत शायद दृश्य की वीभत्सता को कम कर देता।
मगर इस सब के बावजूद, कश्मीरी पंडितों एवं हिन्दुओं के नरसंहार पर यह पहली फ़िल्म बनी है। आजतक जो फ़िल्में इस विषय पर बनीं वे अधिकांश आतंकवादियों के दृष्टिकोण से बनीं। रोजा, मिशन कश्मीर, हैदर, शिकारा, फ़ना जैसी दस बारह फ़िल्में बनी हैं मगर कश्मीरी पंडितों का दर्द किसी फ़िल्म में दिखाई नहीं देता। किसी हद तक इस घटना की तुलना जर्मनी में यहूदियों के विरुद्ध होलोकास्ट के साथ की जा सकती है।
हमें इस फ़िल्म का खुले दिल से स्वागत करना चाहिये। अगले सप्ताह इस फ़िल्म की विषय-वस्तु एवं इस पर चल रही राजनीति पर बातचीत करूंगा।
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.

43 टिप्पणी

  1. इस भावप्रवण, सुन्दर, रोचक, प्रभावशाली एवं उत्कृष्ट सम्पादकीय के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें सर।।

  2. एक चर्चित या यूँ कहें विवादास्पद फिल्म पर सन्तुलित संपादकीय पढ़ कर अच्छा लगा। भारतीय इतिहास की पर्तों /गर्तों में कश्मीरी पंडितों के अलावा कई और गम्भीर मुद्दे छिपे पड़े हैं। इस फ़िल्म को देख कर आशा बंधती है कि वह सब भी बाहर आयेंगे। भारतीय सिनेमा परिपक्व हो रहा है, मुद्दों को उठाया जा रहा है, कलाकारों को अवसर मिल रहा है ‘स्टारवाद’ का आतंक कम हो रहा है, यह सब सुखद है। अगले संपादकीय की प्रतीक्षा रहेगी।

    • शैली जी, सारगर्भित टिप्पणी के लिये धन्यवाद। आशा करता हूं कि अगला संपादकीय आपकी अपेक्षाओं पर खरा उतरेगा।

  3. “द कश्मीर फाइल्स” पर आपकी विश्लेषणात्मक टिप्पणी,फ़िल्म का रिव्यू, इस पिक्चर के बारे में तटस्थता से जो सारगर्भित बातें आपने कही है उससे इसे देखने का उत्साह और नजरिया बदल गया है। हर पात्र के बारे में भी आपने सूक्ष्म अवलोकन किया है। हार्दिक साधुवाद।

    • फ़िल्म के तकनीकी पक्ष का बहुत ही संतुलित, सारगर्भित और बारीकी से किया गया विश्लेषण।फ़िल्म देखने का अवसर अभी नहीं बन पाया है,देखकर शायद और सामंजस्य बैठे,अगले अंक की भी प्रतीक्षा है।

      • ( बात सिर्फ फिल्म की हो रही है उस नाते) निर्देशन और बेहतर हो सकता था। ताशकंद फाइलस् की तरह यह फिल्म भी डॉक्युमेंट्री सी लगती है कहीं कहीं। इससे कई गुणा अधिक पीड़ा सबने झेली होगी, उसे उतारने मे कसर दिखती है कई जगहो पर। पेड़ पर लटके लोग कृतिम दिखे, तकनीक कमज़ोर है। मैं Schilnders list की उम्मीद मे थी शायद। भारत के फिल्मकारों मे अभी काफी scope of improvement है।
        जहाँ तक विषय वस्तु का प्रश्न है, जिन्होंने यह झेला, जाहिर है वो बिलखने से खुद को नही रोक पाएंगे। और जो इस विषय को जान पाए, वो बिफरने से नही रुकेंगे।

    • धन्यवाद उषा जी। पुरवाई के संपादकीय ने आपक मयै नज़रिया दिया, यह जान कर प्रसन्नता हुई।

  4. बहुत ही सुंदर और विस्तृत ढंग से की गई समीक्षा। जिस तरह संपादकीय में एक-एक पात्र का विश्लेषण किया गया है वह सराहनीय है। फिल्म के दो दृश्य (अनुपम खेर के बिस्कुट चाटने और एक लाइन में खड़े लोगों को गोली मारने के दृश्य) पर बहुत गहन दृष्टि डाली गई है। इस बात से सहमत हुआ जा सकता है कि फ़िल्म का अंत अप्रत्याशित रूप से हुआ है जहाँ दर्शक अभी कुछ और देखने की इच्छा रख रहा था (शायद फ़िल्म की लंबाई पहले ही अधिक होना भी इसका कारण हो सकती है।
    बहरहाल जुलियर सीजर के नाटक की स्पीच (फ्रेंड्स रोमस कंट्रीमेन. . .) का वर्णन सम्पादकीय की अद्भुत जानकारी है।
    इस लाज़वाब समीक्षा के लिए हार्दिक बधाई के साथ सम्पादकीय के दूसरे हिस्से की प्रतीक्षा रहेगी. . . हार्दिक सादुवाद तेजेन्द्र सर।

    • प्रिय विरेन्द्र भाई आपने बहुत मन से टिप्पणी की है। संपादकीय को गहराई से पढ़ा है। बहुत बहुत धन्यवाद।

  5. “द कश्मीर फाइल्स “फ़िल्म की समीक्षा में कहानी, दृश्य, संवाद, क़िरदार ,संगीत, गीत ,फिल्मांकन पर बहुत बारीकी से देखा, और लिखा गया है ।
    निर्देशन की खूबियां और कमजोरियों पर भी बिंदुवार
    उल्लेख को पढ़कर पाठक को फ़िल्म देखने का एक नजरिया देता है । शुक्रिया
    Dr Prabha mishra

    • प्रभा जी आपने अस्पताल से भी टिप्पणी के लिये समय निकाला। प्रभु आपको सेहत बख़्शें।

  6. इस फ़िल्म पर कई क्रिटिक की समीक्षाएं पढ़ी सभी या तो इस पार के लोगों की या उस पार के लोगों की ओर झुकी लगी। आपकी लिखी समीक्षा संतुलित है अब तक। अगले सप्ताह राजनैतिक प्रतिक्रिया से पता चलेगा कि आपके मन मे क्या है।

    • सुरेश भाई आपको समीक्षा पसंद आई, बहुत शुक्रिया। उम्मीद करता हूं कि अगली किस्त आपकी अपेक्षाओँ पर खरी उतरेगी।

  7. फ़िल्म देखने की उत्सुकता और भी बढ़ गई है । देख न पाए अब तक । सबसे बड़ी बात कि ऐसी फ़िल्म बनाई गई , बनी, माना बड़ा चुनौती भरा काम ! माद्दा चाहिए, पर बाहर आई और दर्शकों तक पहुँची ये आश्चर्यजनक बात है ,स्वागत योग्य! माहौल सच में बदल रहा है । आँखों पर से पट्टियाँ खोली जा रही है । फिर भी कुछ लोग अंधे बने ही रहना चाह रहे हैं । अपनी अपनी सोच । स्वतंत्र है सब।

  8. बहुत कुछ सुन रहे हैं इस फ़िल्म के बारे में।प्रतिक्रिया ऐसी ऐसी आ रहीं हैं कि फ़िल्म देखने की भी हिम्मत नहीं हो पा रही है।आपके संपादकीय से थोड़ी राहत हुई है।

  9. फिल्म पर और बातें जरूर जानना चाहेंगे।पहली बार कश्मीरी हिन्दुओं के दर्द को पर्दे पर उतारा गया है लेकिन अफसोस है इस दर्द को प्रोपैगैंडा कहकर सच को फिर दफन करने की कोशिश की जा रही है।इस फिल्म में जुल्मों का एक प्रतिशत भी नहीं दिखाया गया।
    यदि पूरा दर्द दिखा दिया जाता तो क्या होता।
    बहुत बेहतरीन तरीक़े से चरित्रों और दृश्य का विश्लेषण किया है।

  10. Congratulations Tejendra ji for your references and details relating to the controversial film Kashmir Files in your Editorial of today.
    The very subject of Kasmiri Pandits having been rendered homeless is so sensitive and fragile that one cannot but feel very grieved,so unfortunate that it is.
    Thanks for initiating an objective view.
    Deepak Sharma

    • Deepak ji, I realized that due to political considerations, the film reviews were not being convincing. Therefore, I made this review purely cinematic. In the next issue I shall talk about the content.

  11. वाह
    बहुत ही सुंदर समीक्षाकरण किया है आदरणीय तेजेन्द्र जी।
    मैं कल ही देर रात फ़िल्म देख कर आया और आज सुबह सबसे पहले उठ कर अपनी समीक्षा तैयार की। आपको भेजने ही वाला था कि उसके पहले आपका लेख पढ़ने को मिला।
    परंतु वाकई में इतनी बारीकी से की हुई फ़िल्म की और उनके क़िरदारों की विस्तृत विवरण पढ़कर बहुत ही अच्छा लगा। आप लेखनी पूरे की पूरे फ़िल्म का दृश्य आंखों के सामने उतारती है। अति सुंदर लेखन।

    – सूर्यकांत सुतार ‘सूर्या’
    तंजानिया

    • भाई सूर्यकांत सुतार जी, आपने तंज़ानियां में फ़िल्म देखने के बाद संपादकीय पढ़ा… जान कर अच्छा लगा। मेरा प्रयास रहा कि फ़िल्म समीक्षा के माध्यम से फ़िल्म अपने पाठकों तक पहुंचाऊं।

  12. बहुत ही सुंदर , सारगर्भित और एक एक पक्ष को बहुत ही खूबसूरती से लिखा आपने सर । एक संशय है पल्लवी के किरदार में निवेदिता के साथ बरखा दत्त का मिश्रित अभिनय है या अरुंधति राय का ? मुझे पल्लवी को देखते हुए निवेदिता के साथ अरुंधति की याद दिलाता रहा । मैं भी ये अपना संशय दूर करना चाहती हूँ ।

    • शशि जी आपने न केवल संपादकीय को पढ़ा, उसका लुत्फ़ उठाया, बल्कि एक सवाल भी उठाया। अब मैं राधिका के चरित्र पर एक बार फिर से ध्यान दूंगा।

  13. आदरणीय चरणस्पर्श। पुरवाई की संपादकीय के माध्यम से आपके द्वारा हमेशा ही समसामयिक विषयों को उजागर किया जाता है। द कश्मीर फाइल्स जैसा विषय आखिर कैसे छूट सकता था। बकायदा आपने इसका ऐलान अपने फेसबुक पोस्ट के माध्यम से भी सूचित करके किया। वर्षों पूर्व कश्मीरी पंडितों के साथ सिर्फ हिंदू होने के नाते जो घटा और जिस क्रम में सुनियोजित घटा वह – विभत्स है, दर्द से भरा। अखिल भारतीय स्तर पर एक फिल्म ने आज लाखों-करोड़ों उन लोगों को भी, कश्मीरी पंडितों के दर्द में भावानात्मक रूप में जागृत कर दिया है जो उस समय वहां मौजूद नहीं थे। सकारात्मक नकारात्मक टिप्पणियां तो आती-जाती रहेंगी, पर उनके दर्द को झूठलाया नहीं जा सकता। देश सच पहले भी जानता था बस आज फर्क इतना है कि सच सिनेमा बनकर सबने देख लिया। आपके मंच के द्वारा सशक्त लेखन / सिनेमा आदि अन्य सभी पहल निश्चित रूप से कश्मीरी पंडितों को न्याय दिलाने के क्रम में बढ़ता कदम साबित हो। धन्यवाद

    • शुभम बेटा, आपकी यह टिप्पणी मेरे लिये महत्वपूर्ण है कि युवा पीढ़ी भी पुरवाई के संपादकीय में रुचि ले रही है और पढ़ती है। सच को सिनेमा बनाना भी एक कला है।

  14. फ़िल की तकनीकी जानकारी और उसे परखने का अन्दाज़, प्रभावशाली है। अगले एपिसोड की प्रतीक्षा रहेगी।

    • धन्यवाद डॉक्टर अंसारी। उम्मीद है कि अगले एपिसोड से आपको निराशा हाथ नहीं लगेगी।

  15. बेहद संजीदगी से हर चरित्र की शल्यक्रिया और नारको टेस्ट असाधारण प्रतिभा के धनी आईकॉनिक राइटर आदरणीय तेजेंद्र अब्बू जी ने कर डाली फिल्म देखने की दिलचस्पी को कई गुना बढ़ा दिया निराले अंदाज में बेहतरीन समीक्षा को अंजाम दे दिया

  16. आपकी समीक्षा से शत प्रतिशत सहमत हूँ सर। बैकग्राउंड स्कोर बहुत ड्रामेटिक नहीं थे वर्ना लोग और emotional हो जाते। कुछ मित्रो की पत्नियाँ तो सहन नहीं कर पाईं। आधे घंटे में ही बाहर आ गई। आरी वाले सीन में मेरी पत्नी को तो उल्टी आ गई। जिनके ऊपर सचमुच में बीती होगी उनके दर्द को समझ पाना मुश्किल है।

  17. बहुत विस्तृत और सार्थक लिखा आपने | लेख की ही कुछ सोचने पर विवश करती पंक्तियाँ …आजतक जो फ़िल्में इस विषय पर बनीं वे अधिकांश आतंकवादियों के दृष्टिकोण से बनीं। रोजा, मिशन कश्मीर, हैदर, शिकारा, फ़ना जैसी दस बारह फ़िल्में बनी हैं मगर कश्मीरी पंडितों का दर्द किसी फ़िल्म में दिखाई नहीं देता। किसी हद तक इस घटना की तुलना जर्मनी में यहूदियों के विरुद्ध होलोकास्ट के साथ की जा सकती है। आगे के लेख की प्रतीक्षा

  18. द कश्मीर फाइल्स बेहतरीन फिल्म पर आपकी प्रतिक्रिया अनमोल है हार्दिक शुभकामनाएं

  19. बहुत बारीकी और निष्पक्षता के साथ फिल्म की समीक्षा लिखी गई है । फिल्म संबधी प्रत्येक पहलू को कुशलतापूर्वक समेटा गया है ; साथ ही कुछ ऐसी जानकारियां भी जिनके बारे में अनभिज्ञ थे । विषयवस्तु के अलावा हमें उस पर चल रही राजनीति में भी बराबर की दिलचस्पी है , इसलिए इस संपादकीय के दूसरे भाग की अधिक प्रतीक्षा रहेगी ।
    सादर,
    रचना सरन

  20. द काश्मीर फाइल्स पर आपकी सार्थक टिप्पणी पढ़ी। फिल्म में हर कलाकार ने अपने अभिनय के साथ पूर्ण न्याय किया है । यह बात बिल्कुल सत्य है। पल्लवी जोशी विवेक अग्निहोत्री की पत्नी हैं हमें यह बात फ़िल्म देखने के भी बहुत दिन बाद मालूम हुई किन्तु इस बात का फ़िल्म से कोई ताल्लुक नहीं दिखाई दिया क्योंकि पल्लवी जोशी ने अपने किरदार को बहुत सुघड़ता से निभाया है । उसमें उनका देखने का तरीक़ा कृष्णा को बुलाना समझाना और उसका माइंड वाश करने के बाद का जाना । बरखा अरुंधती और मेनन तीनो पर भारी दिखा और वो भी बिल्कुल नेचुरल प्रेक्टिस में। वो अभिनय कम हकीकत अधिक लगी। आपने सही पकड़ा उनकी उंगलियां और गज़ल जैसे वाह कहा जा सकता है। अनुपम खेर या अन्य किरदार तो आपने सटीक टिप्पणी दी है । इस फ़िल्म को अवॉर्ड न मिलना ज़रूर आश्चर्य जनक होगा।
    फ़िल्म देखकर बहुत सारे प्रश्न जन्म ले रहे थे। यह सही है कि इस काम के लिए बहुत स्पेड वर्क किया गया होगा सच्चाई के बहुत नजदीक से होकर गुजरती हुई फ़िल्म है ये आपने इस फ़िल्म पर लिखकर एक बारगी फिर से मन को कुरेद दिया क्यूंकि काश्मीर के नरसंहार को भूल पाना इतना आसान तो नहीं है ।
    कुछ कमियां आपने बहुत बारीकी में जाकर बताई हैं। आपका फ़िल्म के लिए गहन जांच करते हुए लिखना। आपकी कलम को नमन बनता है । प्रणाम स्वीकर कीजिए।

    टिप्पणी देने में देर हुई

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