Saturday, July 27, 2024
होमफ़िल्म समीक्षाविरेंद्र वीर मेहता द्वारा 'द कश्मीर फ़ाइल्स' की समीक्षा

विरेंद्र वीर मेहता द्वारा ‘द कश्मीर फ़ाइल्स’ की समीक्षा

अगस्त 2019 को, एक ज्वलंत पोस्टर के साथ एक फ़िल्म की घोषणा होती है, जिसे भारतीय सदंर्भ में बड़ी मानव त्रासदियों में से एक की निष्पक्ष जांच, स्लोगन के साथ पेश किया जाता है। उसके बाद एक वर्ष तक बहुत ही ख़ामोशी के साथ उसका अधिकांश फिल्मांकन हिमालय में अज्ञात जगहों पर किया जाता है। कोरोना काल के चलते फ़िल्म में कई व्यवधान भी आते हैं और अंततः इसी 4 मार्च (2022) को विशेष प्रीमियर के बाद इसे प्रदर्शित कर दिया जाता है। फ़िल्म की बड़ी ख़ासियत ये कही जा सकती है कि जिस लक्ष्य को लेकर यह फ़िल्म जिस तेजी से बनी, उसी तेजी से राजनीतिक गलियारों के साथ आम जनमानस के बीच भी चर्चित हो गई। इसका एक कारण भले ही पिछले चार दशक के सबसे विवादित मुद्दे का इससे जुड़ा हुआ होना रहा, लेकिन इसके चर्चित होने के पीछे सोशल साइट्स का बहुत बड़ा हाथ रहा है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता।
बहरहाल फिल्म का विषय मुख्यतः कश्मीरी पंडितों के पलायन से जुड़ा है जो 80-90 के दशक में एक त्रासदी की तरह घटित हुआ। कथा पूरी तरह एक युवा छात्र ‘कृष्ण’ पर फ़ोकस की गई है, जिसके ज़रिए नब्बे के दशक की शुरुआत में कश्मीरी पंडितों के पलायन और नरसंहार को दिखाया गया है।
कृष्ण जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जे एन यू) में प्रो. राधिका मेनन के संपर्क में कश्मीर को आज़ाद कराने की तथाकथित मुहिम से प्रभावित है और इसी संदर्भ में वह अपने दादा पंडित पुष्कर नाथ से वाद-विवाद भी करता है। दरअसल वह अपने दादा द्वारा बताए गए झूठ (कि उसके माता-पिता और बड़े भाई की मृत्यु दुर्घटना में हुई थी) की सच्चाई को नहीं जानता।
दादा की मृत्यु के बाद उनकी अंतिम इच्छा अनुसार जब कृष्ण उनकी अस्थियां कश्मीर स्थित घर में बिखरने के लिये कश्मीर जाता है, तो वहाँ उसके दादा के चार अभिन्न मित्रों (‘आईएएस’ ब्रह्म दत्त, जर्नलिस्ट विष्णु राम,  डॉक्टर महेश कुमार और डीजीपी हरि नारायण) के द्वारा उसे बहुत सी आश्चर्यजनक बातों और वास्तविक तथ्यों का पता लगता है।
कश्मीर आने से पहले अपनी प्रोफ़ेसर से हुई बात के अनुसार कृष्ण लिबरेशन फ्रंट नेता फारूक अहमद डार (जो पूर्व में आंतकवादी और कृष्ण के परिवार का हत्यारा था) से मिलता है, वह उसे इन हादसों के लिए भारतीय फ़ौज को जिम्मेदार बताता है लेकिन आई ए एस ब्रह्मदत्त कृष्ण को उसके परिवार की मृत्यु की वास्तविक परिस्थितियों के बारे में बताता है। और उसके बाद वह दिल्ली लौटने पर ए एन यू में अपने दिए विस्तृत व्याख्यान में कश्मीर के बताने के साथ राधिका मेनन जैसे लोगों द्वारा चलाए जा रहे छद्म आज़ादी-आंदोलन का सत्य भी बताता है।
बात यदि फ़िल्म में निभाये गए पात्रों से शुरू की जाए, तो अभिनय के स्तर पर सबसे भारी पलड़ा अनुपम खेर का ही बैठता है। ‘रिटायर्ड टीचर ‘पुष्कर नाथ पंडित’ के रोल में उनकी अभिनय प्रतिभा का एक और नया रूप देखने को मिलता है। चाहे वह एक बूढ़े लेकिन मुखर हिंदू पंडित का अभिनय हो या ‘डिमेंशिया ग्रस्त’ एक हताश दुःखी वृद्ध की आंतरिक पीड़ा हो।
चार मित्रों की भूमिका में जहां ‘आईएएस’ ब्रह्म दत्त के रूप में मिथुन चक्रवर्ती अपना रोल लाज़वाब ढंग से निभा गए हैं, वहीं ‘डीजीपी’ हरि नारायण के रूप में पुनीत इस्सर भी सहज ही प्रभावित करते हैं। जर्नलिस्ट विष्णु राम के रूप में अतुल श्रीवास्तव और डॉ महेश कुमार के रूप में प्रकाश बेलावाड़ी भी निराश नहीं करते।
प्रो. राधिका मेनन के पात्र में काफ़ी समय बाद पल्लवी जोशी को देखना सुखद ही नहीं बल्कि उनकी नेगेटिव शेड की भूमिका में उसके प्रति नफ़रत का भाव उठना, एक तरह से उनके अच्छे अभिनय की पहचान कहा जा सकता है।
एक युवा चेहरे के तौर पर कृष्ण पंडित की मुख्य भूमिका निभाने वाले दर्शन कुमार इससे पहले मैरी कॉम (प्रियंका चोपड़ा के साथ) फ़िल्म में खास तौर से जाने गए हैं। कृष्ण की भूमिका में उनका अभिनय काफी सहज रहा। उनकी संवाद अदायगी और भाव भंगिमा भविष्य में उनके फ़िल्म कैरियर के प्रति आशा जगाती है।
मूल रूप से मराठी फिल्मों में सक्रिय अभिनेता चिन्मय मंडलेकर ने फारूक अहमद डार (बिट्टा कराटे) की भूमिका में हालांकि उनकी बहुत ज्यादा ख़ौफ़ पैदा करने वाली एक्टिंग नहीं है, लेकिन उनकी ठहरी हुई गंभीर अभिनय शैली अवश्य ही हिंदी सिनेमा में उनकी पहचान पुख्ता करने में कामयाब रहेगी।
बाकी सह भूमिकाओं में शारदा पंडित के रूप में भाषा सुंबली, लक्ष्मी दत्त के रूप में मृणाल कुलकर्णी, करण पंडित के रूप में अमान इकबाल और अफ़ज़ल के रूप में सौरव वर्मा भी अपने अभिनय से निराश नहीं करते हैं। अधिकांश अभिनेताओं का मूल रूप से कश्मीरी होना फ़िल्म को ‘रियल लुक’ देता है।
फ़िल्म का धीमा गीत-संगीत (रोहित शर्मा) फ़िल्म का एक प्लस पॉइंट माना जा सकता है। (ऐसी फिल्मों में वैसे भी लाउड म्यूजिक नहीं होता) बैक ग्राउन्ड संगीत के साथ, कश्मीरी लोक गीत सहज ही सुनने में अच्छे लगते हैं।
फ़िल्म की फ़ोटोग्राफ़ी (उदय सिंह मोहिते) में विषय की ‘डार्कनेस’ के चलते अधिकांश दृश्यों में अंधकार दिखाया गया जो कुछ जगह खलता है तो कई जगह प्रभावित भी करता है। आल ओवर फ़ोटोग्राफ़ी को यदि अंक दिए जाए तो पांच में से चार दिए जा सकते हैं।
इससे पहले कश्मीर पर चर्चित रही फिल्मों में मिशन कश्मीर आंतकवाद से जुड़ी एक मसाला फ़िल्म थी तो शिकारा में कश्मीर वासियों के पलायन विषय के बीच लव एंगल डाल कर उसे आदर्शवादी बनाने का प्रयास हुआ था। पलायन के कड़वे सच को दिखाने का साहस इसी फिल्म में किया गया। हालांकि बहुत से ऐसे दृश्य थे, जिनसे बचा जा सकता था या उन्हें सीमित किया जा सकता था।
ऑन स्क्रीन ‘आरा मशीन से शारदा पंडित को काटने और लोगों को एक लाइन में खड़े करके (नंदी ग्राम कांड) मारने और ‘करण पंडित’ को मारने जैसे दृश्यों को संकेतित ढंग से फिल्माया जा सकता था। (बरसों पहले शोले में गब्बर द्वारा एक मासूम को मारने का सीन इशारे से दिखाने के बाद भी दर्शकों के दिल के सिहरन पैदा करने में सफल रहा था।) चावल के ड्रम में हत्या और खून सने चावल खिलाने वाले दृश्यों को भी दोहराने से बचा जा सकता था।
बहराल फ़िल्म में एक पत्रकार, एक डॉक्टर के साथ प्रशासनिक और पुलिस अफसर के बिम्ब रूप में जिस तरह एक आम आदमी की कथा को  बुना गया है, वह सराहनीय है। हालांकि कथा के बीच कश्मीर से जुड़े मुद्दों ‘दिभर्मित युवा, जे एन यू का माहौल, धारा 370, को समेटने के चक्कर में फ़िल्म की अवधि (170 मिनट) भी बढ़ी है और थोड़ा भारीपन भी महसूस होता है, लेकिन फिर भी निर्देशक इस फ़िल्म को खींच ले जाने में सफल रहा है। स्क्रीन पर अंग्रेजी ट्रांसलेशन देना इस फ़िल्म के दायरे को विस्तृत करता है, क्योंकि हिंदी में कश्मीरी भाषा का समावेश सभी के लिए सहज समझने वाला नहीं हो सकता।
बहरहाल फ़िल्म की कथा (कथा सहयोग, सौरभ पांडेय) और इसके पूर्ण फिल्मांकन में निर्देशक विवेक अग्निहोत्री की छाप स्पष्ट नजर आती है। और इसका चरम बिंदु फ़िल्म के अंत में है जहां कृष्ण पंडित सदियों से कश्मीर के अखंड भारत का हिस्सा रहने और इसके आध्यात्मिक संदर्भ पर अपनी ‘स्पीच’ में विस्तृत बात करता है।
कहना न होगा कि फ़िल्म पूरी तरह से एक दस्तावेज है जिसके पूरे फिल्मांकन में पलायन करने वाले सैकड़ों कश्मीरी पंडितों के अनुभव/साक्षात्कार (यहां यह बताना भी गौरतलब रहेगा कि इन साक्षात्कार और डिटेलिंग का दावा विवेक अग्निहोत्री द्वारा स्वयं किया गया है।) का प्रभाव नज़र आता है। और ऐसी फिल्में (भले ही विवादास्पद होती हैं) बार-बार नहीं बनती हैं, जिनमे संपूर्ण रूप से एक इतिहास समाया होता है। सच्चाई का एक पक्ष जानने के लिए फ़िल्म को देखना जरूरी ही नहीं अनिवार्य कहा जा सकता है।
RELATED ARTICLES

2 टिप्पणी

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Most Popular

Latest