वैसे तो धर्मयुग के ज़माने में भारती जी ने भी बहुत से लेखक पैदा किये। लेखकों और पाठकों के मन में उनके प्रति श्रद्धा, आदर व डर भी था। रवीन्द्र कालिया की कहानी काला रजिस्टर इस बात की गवाही देती है। ठीक इसी तरह कमलेश्वर जी ने भी सारिका के ज़माने में लेखकों की एक जमात पैदा की। मगर भक्ति को इंस्टीच्युशनेलाइज़़ करने का श्रेय नामवर जी और राजेन्द्र जी को जाता है।
राजेन्द्र यादव और नामवर सिंह के जाने के बाद हिन्दी साहित्य का भक्तिकाल लगभग पूरी तरह से समाप्त हो गया। दरअसल लगभग चार पीढ़ियां केवल इन दो महान विभूतियों की शाबाशी पाने के लिये साहित्य रचना करती रहीं। निर्मल वर्मा को स्थापित करने में तो नामवर सिंह के एक लेख की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही। मगर मामला वहीं नहीं रुका।
चित्रा मुद्गल, ममता कालिया, रवीन्द्र कालिया, सुधा अरोड़ा, सूर्यबाला, मैत्रेयी पुष्पा, संजीव, उदय प्रकाश, सृंजय, अखिलेश, कृष्ण बिहारी, शैलेन्द्र सागर, शिवमूर्ति, मनीषा कुलश्रेष्ठ, गीताश्री, विवेक मिश्र, अजय नावरिया, वंदना राग, जैसे सभी नाम इन महान विभूतियों की तरफ़ कुछ ऐसी निगाहों से अवश्य देखते थे कि कब ये लोग हमारे लेखन पर कोई टिप्पणी करेगे।
यानि कि लेखकों की चार चार पीढ़ियां एक साथ इन दोनों को अपना आक़ा मान चुकी थीं। अगर कभी राजेन्द्र यादव किसी की कहानी हंस में छाप देते तो वह अचानक अपने आपको महत्वपूर्ण लेखक मानने लगता। नामवर सिंह तो समय समय पर फ़तवे जारी करते रहते थे। जैसे उनकी एक टिप्पणी ने तो पूरे हिन्दी जगत को चकित कर दिया था – मुक्तिबोध के बाद हिन्दी का सबसे महत्वपूर्ण कवि है दिनेश जुगरान।
वैसे तो धर्मयुग के ज़माने में भारती जी ने भी बहुत से लेखक पैदा किये। लेखकों और पाठकों के मन में उनके प्रति श्रद्धा, आदर व डर भी था। रवीन्द्र कालिया की कहानी काला रजिस्टर इस बात की गवाही देती है। ठीक इसी तरह कमलेश्वर जी ने भी सारिका के ज़माने में लेखकों की एक जमात पैदा की। मगर भक्ति को इंस्टीच्युशनेलाइज़़ करने का श्रेय नामवर जी और राजेन्द्र जी को जाता है।
ब्रिटेन भी इस समस्या से जूझ रहा है कि अब मुख्य अतिथि किसे बनाया जाए। कैलाश बुधवार ने अब कार्यक्रमों में जाना बन्द कर दिया है। गौतम सचदेव और सत्येन्द्र श्रीवास्तव का निधन हो चुका है। बाक़ी के तमाम लेखक तो एक दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी रहे हैं। एक दूसरे से स्पर्धा चलती रही है। कोई किसी को अपने से बेहतर मानने को तैयार नहीं है। हर लेखक की अपनी कमीज़ दूसरे की कमीज़ से अधिक सफ़ेद है। अब ऐसे में भला किसी की भक्ति कैसे हो सकती है।
दोष इसमे नामवर जी और राजेन्द्र यादव जी का ही माना जाएगा। उन्होंने अपने जीते जी नये देवता तैयार नहीं किये जिनकी भक्ति इन दो महान् विभूतियों के बाद की जा सके। राजेन्द्र जी के हंस कार्यालय में बैठकें होती थीं, ठहाके लगते थे, हर लेखक अपने आपको धन्य मान लेता था… मगर इससे अधिक कुछ नहीं हो पाता था। नामवर जी की गंभीरता के आवरण को तोड़ पाना तो वैसे ही संभव नहीं हो पाता था। ये दोनों हम सबको एक ऐसी स्थिति में छोड़ गये हैं कि हम समझ नहीं पा रहे कि अपनी भक्ति भावना को कहां प्रकट करें। हम इस आदत के कितन आदी हो चुके थे।
यह ज़िम्मेदारी अब युवा पीढ़ी को लेनी होगी कि वह आपसी स्पर्धा को दरकिनार करते हुए अपने नये भगवान गढ़े। देखिये मार्केट में जो माल उपलब्ध है, काम तो उसी से चलाना होगा। किसी न किसी का आशीर्वाद पाने का लालच तो बना रहना चाहिये। वरना हिन्दी साहित्य की भक्ति परंपरा तो पूरी तरह से समाप्त होने की कगार पर है।
बहुत सुन्दर और ज्ञानवर्धक लेख।
गौतम सचदेव जब बीबीसी की हिन्दी सेवा में काम करते थे तो उनकी “विवेचना” उच्च स्तर की होती थी।
बहुत मीठी-मीठी चोट की है संपादकीय में आपने… भक्ति और श्रद्धा के नाम पर। विचारणीय..
तेजेंद्र सर, आपने सही कहा है. हिंदी साहित्य की भक्ति परंपरा अब टूटने की कगार पर है या यूँ कहें कि लगभग टूट चुकी है. सोशल मीडिया ने इस भक्ति परंपरा पर ज़ोरदार प्रहार किया है. सर, अब समय बदल चुका है. अब ऐसे भी युवा लेखक सोशल मीडिया की मदद से खुद से प्रचार-प्रसार करके सामने आ रहे हैं, जिनका कोई पारिवारिक पृष्ठभूमि भी नहीं है और उनके ऊपर किसी का क्षत्रछाया भी नहीं है.