पिछले दिनों वरिष्ठ लेखिका ममता कालिया ‘कलम’ के कार्यक्रम में लंदन गयी थींवहां उनसे पुरवाई की सलाहकार समिति की सदस्य डॉ अरुणा अजितसरिया एम बी ई ने बातचीत की जो कि अब पुरवाई के पाठकों के लिए प्रस्तुत है।

सवाल – ममता जी नमस्कार! प्रभा खेतान फाऊंडेशन की अंतर्राष्ट्रीय शृंखला कलम के तत्वावधान में आपका स्वागत करते हुए मुझे आंतरिक प्रसन्नता हो रही है। आपने सोलह वर्ष की उम्र से लेखन कार्य शुरू किया और तबसे आप अनवरत लिखती रही हैं। मेरा पहला प्रश्न आपकी सृजन शक्ति की इस अपरिमित ऊर्जा और प्रेरणा-स्रोत के बारे में है। आपने इस अवधि में नाटक, कविता, कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, यात्रा-संस्मरण आदि सभी साहित्यिक विधाओं में रचना की, हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेज़ी में भी लिखती रही हैं। सर्जनात्मक ऊर्जा की प्रेरणा आपको कहाँ से मिलती है? अपनी प्रेरणा के बारे में बताएं।

ममता जी – अरुणा जी, पद्मेश जी और कलम के दोस्तों, सबसे पहले तो मुझे कलम के इस कार्यक्रम में प्रभा खेतान फाऊंडेशन की अंतर्राष्ट्रीय शृंखला कलम में शामिल होकर बहुत खुशी हो रही है क्योंकि आप सबसे मिलने का और संवाद करने का शायद अवसर, एक साथ बैठ कर, बहुत कठिन होता है मिलना। हम मन ही मन एक दूसरे से संबोधित होते हैं, कभी फेसबुक पर एक झलक दिख जाती है उससे गदगद होते हैं लेकिन इन सब चीजों की स्मृति बहुत कमज़ोर होती है, इधर वह छवि गायब हुई और उधर वह हमारे मानस पटल से भी गायब हो जाती है।

अरुणा जी, आपने यह प्रश्न पूछा कि आखिर इतने वर्षों से लिखती रही हूँ तो मुझे भी आश्चर्य होता है कि मैं 60 सालों से कैसे लिखती जा रही हूँ आखिर कैसे लिखती रही? या कोई भी व्यक्ति यदि लिखता है, आप भी लिखती हैं, मैं भी लिखती हूँ यह समानधर्मियों की बैठक है, तो आपने यह देखा होगा कि जिसको जितने धक्के लगते हैं जीवन में, वह उतना ही ज़्यादा लेखन में संलग्न रहता है। वो धक्के कई बार बसों में नहीं लगते, कई बार वो धक्के आपको सड़क पर नहीं लगते, वो धक्के आपको ज़ेहन में लगते हैं, दिल में लगते हैं, दिमाग में लगते हैं और आप उनसे उबर नहीं पाते हैं, या कई बार हमारे अंदर सवाल पैदा होते हैं और स्त्री होने के नाते, लड़की होने के नाते, जो सवाल हमारे अन्दर उठते हैं, एक समय था जब हम वो सवाल किसी बाहरी शक्ति या व्यक्ति से नहीं पूछ सकते थे। क्योंकि जब हम बड़े हो रहे थे वह जमाना ऐसा था, उस समय कैसी फिल्में आती थीं? ‘मैं चुप रहूंगी’, ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’ यानी कि आपको चुप रहना सिखाया जाता था। और स्त्री की यही सबसे बड़ी विडम्बना है कि जो सवाल उसको कुलबुलाते हैं, जो उसको खौलाते हैं और गुस्सा दिलाते हैं, बेचैनी दिलाते हैं, उन सवालों से उसे चुप रहना सिखाया जाता है।

देखा जाए तो लिखना मेरे लिए एक तरह से वो विस्फोट था कि मैं उन सवालों को अगर किसी से पूछ नहीं सकती तो कागज़ पर तो उतार सकती हूँ। कागज़ का लोकतंत्र बहुत बड़ा है आप अपने आपको प्रकट कर लेते हैं। बहुत दिनों तक आप डायरी में बन्द रहते हैं, आप किसी के सामने ज़ाहिर नहीं करते हैं, और ज़ाहिर करते हैं तो किसी अख़बार में, किसी पत्रिका में करते हैं, जहाँ आपसे कोई ‘क्यों’, ‘क्या’ ‘कैसे’ सवाल नहीं पूछ सकता।

सवाल – ममता जी आपने जिस समय की बात की है, सचमुच उस समय स्त्रियों को चुप रहने को बाध्य किया जाता था, पर आज वह परिस्थिति बदल गई है।

मेरा दूसरा प्रश्न उपन्यास की विधा को लेकर है। ई एम फॉर्स्टर ने लिखा था, ‘oh dear oh, the novel tells a story!’ यह सच है कि उपन्यास कहानी कहता है, पर हर कहानी उपन्यास नहीं बन सकती, केवल कथा तत्व से एक सफल उपन्यास नहीं बनता। वह ‘और कुछ’ क्या है जो एक साधारण सी लगने वाली घटना या स्थिति को ऐसी दीप्ति दे देता है जिससे वह उपन्यास या कहानी के रूप में साहित्यिक रचना के रूप में प्रतिष्ठित हो जाती है, आप उसे कैसे परिभाषित करेंगी?

ममता जी – अरुणा जी, देखा जाए तो आपने कहानी संरचना और उपन्यास संरचना के विषय में एक गंभीर सवाल पूछा है। मुझे खुशी है कि इतनी गंभीरता से हम इस विषय पर विचार-विमर्श कर रहे हैं। देखिए होता क्या है जैसे शुरू में ई एम फॉर्स्टर ने लिखा, 1948 में ई एम फॉर्स्टर ने लिखा कि कहानी एक फ्लैश एक आईडिया, एक संवेद, एक आवेग पर आधारित होती है जैसे कि कविता एक संवेद, एक आवेग पर आधारित होती है। देखिए होता क्या है, हमें कोई बात बहुत तीखे से महसूस हो गई हमने कविता लिख दी ,देखिए कितनी प्यारी कविता है ज्ञानेन्द्र पति की:

चेतना पारीक, कैसी हो?

अभी भी ट्राम में वह जगह ख़ाली है जहाँ तुम खड़ी होती थी

चेतना पारीक

क्या अब भी जिससे प्रेम करती हो उसे दाढ़ी रखाती हो?’

कितनी प्यारी हैं ये पंक्तियाँ! जैसे कविता एक आवेग को लेकर लिखी जाती है, मुझे लगता है यह नियम कहानी पर भी लागू होता है। कई बार एक घटना इतने प्रबल रूप से हमारे सामने आती है चाहे वह चेख़व की कहानी हो या मैं समझती हूँ कि रेणु की कहानी हो। रेणु की कहानी मारे गए गुलफ़ाम उर्फ तीसरी कसम जिस पर इतनी अच्छी फिल्म बनी थी। अब उस कहानी में क्या है? एक गाड़ीवान है जो एक कंपनी की नाचने वाली को अपनी गाड़ी में बैठा कर ले जाता है और उसको लेकर पूरी की पूरी कहानी है। और वह उसके प्रेम में इतना पड़ जाता है, या कहना चाहिए कि वह उसके प्रति इतना आकृष्ट है, जबकि दोनों बिलकुल दो अलग-अलग दुनिया से हैं।

गाड़ी वाले का क्या है, वह तो शाम को बैठेगा, चिलम फूंकेगा और जाकर नौटंकी देखेगा। अब वह नौटंकी बाई से इतना प्रेम करता है कि उसको लगता है कि उसे देख कर कोई सीटी न बजाए। उसको देख कर कोई हल्की बात न करे। यह जो पूरा का पूरा गुम्फन होता है यह कहानी में काम आता है। लेकिन, आप देखें कि उपन्यास क्या माँगता है? उपन्यास हमसे सामाजिक समझ और सरोकार मांगता है जब हमारे पास समाज के प्रश्न इकट्ठे होते हैं, जब हम समाज की ओर ध्यान देते हैं और हमारे पात्र अपने आप से निकल कर दूसरों के साथ इंटरैक्ट करते हैं, तब उपन्यास पैदा होता है। क्योंकि यदि देखा जाए तो उपन्यास में बहुत सारे सवालों का अनुसंधान या खोज होती है, हम लगातार यह खोजते हैं कि यदि ऐसा है तो क्यों है।

आपने एक से एक उपन्यास पढ़े होंगे प्रेमचंद से लेकर आधुनिकतम चेतन भगत तक के उपन्यास पढ़े होंगे, आपने देखा होगा कि कैसे उपन्यास का कथ्य भी बदलता जाता है बारबार। क्योंकि आज सूचना विज्ञान का जमाना है, आज का उपन्यास प्रेमचंद के यथार्थ पर नहीं लिखा जाता है। प्रेमचन्द ने ग्रामीण यथार्थ का जो उपन्यास लिखा वह यथार्थ आज बदल गया है आज ग्रामीण यथार्थ में नये प्रश्न उठ रहे हैं।

अभी हमारे यहाँ पिछले दिनों दो उपन्यास आए हैं वे ग़ाँव के बारे में हैं, लेकिन बदली हुई परिस्थिति के यथार्थ के बारे में हैं। वो कैसे? संजीव का एक उपन्यास आया है जिसमें गन्ना किसानों की मजबूरी के बारे में बताया गया है कि अच्छी खड़ी फसल होने के बावज़ूद गन्ना किसान आत्महत्या करता है, क्योंकि वह जो सरकारी लोन लेता है, उसे चुका नहीं पाता। कारण कि बारिश नहीं हुई और फसल नष्ट हो गई। लोन देने वाले इतने हृदयहीन हैं कि उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं कि फसल नष्ट हो गई इसलिए किसान लोन या ऋण चुका नहीं सकता। इस चीज़ को लेकर वह खड़ा-खड़ा अपने गन्ने के खेत में आग लगाकर खुद उसके भीतर चला जाता है और अपने को ख़तम कर देता है।

एक और उपन्यास आया है, पंकज सुबीर का ‘अकाल में उत्सव’, उसमें लिखा है कि किसानों को जो लोन दिया जाता है उसका आधे से अधिक ब्लॉक डेवलपमेंट ऑफिसर और पटवारी ले लेते हैं। अब वह जमाना गया जब जमींदार ले लेते थे, अब जमींदार नहीं रहे तो नये जमींदार पैदा हो गए हैं। तो आप देखिए कि बदला हुआ यथार्थ आखिर कैसे आएगा? उसको लाने के लिए कहानी छोटी पड़ जाएगी। ओ हेनरी की कहानियों को लीजिए, उनकी कहानियाँ मूड्स की कहानियाँ हैं, छोटी-छोटी घटनाओं की कहानियाँ हैं, लेकिन वे घटनाएँ याद रह जाती हैं। ये कहानियाँ इतने वर्षों पहले लिखी गईं हैं, पर आज भी वे घटनाएँ याद रह जाती हैं।

आज हमें समझाया जाता है कि कहानी झटके से ख़तम नहीं होनी चाहिए, कहानी का बहुत स्मूद अंत होना चाहिए, अनाटकीय होना चाहिए, नाटक नहीं होना चाहिए। कहानी हो या उपन्यास, हम हेमिंग्वे को भी उसी तरह से याद करते हैं जिस तरह प्रेमचंद को याद करते हैं। अब कहानी और उपन्यास में यह अंतर है, जब कोई कहानी को खींचतान कर उपन्यास बनाता है तो उसे पढ़कर हम कुछ असंतुष्ट हो जाते हैं लगता है कि हमारा टाइम वेस्ट हो गया, अरे क्या बात तो कुछ निकली नहीं।

एक कहानी के मैटर को फैलाना वैसा ही है जैसे इलास्टिक की जितनी कैपेसिटी है उसको उससे ज़्यादा चौड़ा करना, इलास्टिक बचेगा नहीं, वह लटक जाएगा या फट जाएगा। इसी तरह से कहानी की थीम को आप उपन्यास में नहीं ला सकते, न ही उपन्यास की थीम को कहानी में। कुछ नये और उत्साही लेखक उसे कहानी में पैक अप करने की कोशिश करते हैं, अगर आप इतनी सघनता से कहानी में पैक करेंगे तो क्या होगा? सूटकेस तो फट जाएगा, उसका ज़िप तो बेकार हो जाएगा। तो कहानी के कलेवर को आप उपन्यास में नहीं डाल सकते और उपन्यास की थीम को आप कहानी में पैक नहीं कर सकते क्योंकि उसमें आपकी कला और कौशल दोनों की हानि होगी।

सवाल – धन्यवाद ममता जी, आपने बहुत अच्छी बात कही कि एक लम्बी कहानी उपन्यास नहीं बन सकती और एक छोटा उपन्यास कहानी नहीं। यह अंतर आपने बहुत अच्छी तरह से व्यक्त किया है।

ममता जी जब मैं आपके बारे में जानकारी जुटा रही थी तो मुझे यह जानकर आंतरिक ख़ुशी हुई कि आप छोटी उम्र से देश-विदेश के लेखकों को पढ़ती रही हैं। इस सिलसिले में आपने सिल्विया प्लैथ और ब्रेख़्त से प्रभावित होने की बात की। तो मैं यह जानना चाहूंगी कि यह प्रभाव आपकी रचनाओं में किस रूप में प्रतिबिम्बित होता है? आप सिल्विया प्लैथ की आत्माभिव्यक्ति की शैली से या उनके जीवन की त्रासदी, उत्पीड़ित मन के अवसाद और दंश की संवेदना से जिसका अंत उनकी दर्दनाक आत्महत्या से हुआ, प्रभावित हैं। आपको कौन सी चीज इतनी प्रभावित की कि आपने उन्हें उद्धृत किया?

ममता जी – अरुणा जी, सिल्विया प्लैथ एक जमाने में मेरी बहुत प्रिय लेखिका रही हैं, उसी तरह जैसे सिमोन द बोवूआर और महादेवी वर्मा मुझे बहुत पसंद रही हैं। देखिए, जहाँ-जहाँ स्त्री की पीड़ा को आवाज़ मिलती है, वहाँ-वहाँ हम उससे बंधते चले गए। सिल्विया प्लैथ ‘द ग्लास जार’, ‘गुड बाई सौरो में या सिमोन द बोवूआर स्त्री के प्रश्नों के जवाब देती हैं या उनके जवाब खोजने की कोशिश करती हैं। मैं लेखन में स्त्री-पुरुष का विभाजन नहीं करती, मैं यह सोचती हूँ कि यह विभाजन हमें प्रतीक्षालय के लिए रखना चाहिए या शयन कक्ष के लिए रखना चाहिए या मूत्रालय के लिए रखना चाहिए।

यह विभाजन साहित्य में काम नहीं आता, लेकिन फिर भी एक दृष्टि होती है और एक झेलने की कपैसिटी होती है, हम जिन सवालों से जूझते हैं, हम जिन परिस्थितियों से गुज़रते हैं शायद पुरुष उनसे नहीं गुज़रते या उनके लिए जीवन अपेक्षाकृत सरल होता है। उनकी परेशानियाँ दूसरे किस्म की होती हैं। अब हमारी परेशानियाँ दूसरे किस्म की हो गई हैं क्योंकि हम कामकाजी हो गए हैं, हम बाहर जाकर नौकरी करने लगी हैं। जो घर की परेशानियाँ हमने ले रखी हैं, जो गर्भधारण और बच्चों को बड़ा करने में मिल रही हैं, वे सारी बाहर जाकर काम करने के साथ मिलकर अधिक कॉम्प्लीकेट हो जाती हैं।

विश्व में जहाँ भी स्त्री की पीड़ा को आवाज़ दी गई है, वह चाहे कहीं भी हो चाहे वह मार्गरेट ऐटवुड हो जिसने अपनी कहानियों में कितना अधिक विदेशों में रहने वाली स्त्रियों की दशा के बारे में लिखा हो और हिंदुस्तान में तो महादेवी वर्मा ने तो आप सोचिए कि 1934 में स्त्री के अधिकारों के बारे में लिखा। उन्होंने लिखा था कि हम पुरुष के ऊपर न तो जय चाहते हैं न पराजय, हम केवल अपना स्थान चाहते हैं जो हमारा है, जो हमारा स्वत्व है, अधिकार है – हम उसको चाहते हैं। महादेवी वर्मा ने सिमोन द बोवूआर से 15 साल पहले यह कहा था।

देखा जाए तो स्त्री विमर्श की बात या वीमेंस राईटिंग की बात शुरू होती है महादेवी वर्मा से और उससे भी पहले आप चली जाएं तो हमारे देश में जो बौद्ध भिक्षुणी थीं जो बौद्ध धर्म स्वीकार करके भिक्षुणी बन गई थीं या आप मीराबाई को लीजिए। मीरा ने जब कहा कि मैं इस पति के साथ नहीं रहूंगी कृष्ण मेरा पति है मैं तो उसके साथ रहूंगी, उसने अपने आराध्य को अपना पति बता कर पति से विद्रोह किया।

ये सारी बातें फेमिनिस्म का जीता जागता उदाहरण हैं। इससे यह पता चलता है कि हमारे यहाँ स्त्री जाति ने अपने स्वातंत्र्य के लिए कितने संघर्ष किए, कितना उसने चाहा कि वह अपने पैरों पर खड़ी हो, अपने सवालों का अपनी तरह से हल करे। वह यह नहीं चाहती कि हर समय वह एक पुरुष की संगिनी बन कर मांग में सिंदूर डाल कर पति के एक कदम पीछे चले, वह तो उसके साथ चलना चाहती है और योग्यता होगी तो उसके आगे भी चलेगी!

सवाल – ममता जी, मेरा अगला प्रश्न आपकी अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में है। आपने कहीं लिखा है कि फ्लॉबेयर को पढ़े बिना कोई रचनाकार नहीं बन सकता। मैं उनके प्रसिद्ध उपन्यास मैडम बोवरी की बात कर रही हूँ। यह प्रसिद्ध है कि फ्लॉबेयर अपने उपन्यास की नायिका, मैडम बोवरी के आर्सनिक विषपान करके आत्महत्या करने का दृश्य लिखते समय उसमें इतने तल्लीन हो गए थे कि उनके अपने रक्त में आर्सनिक विष के चिह्न पाए गए थे। मैं आपसे जानना चाहती हूँ कि क्या आप अपने पात्रों की रचना करते समय उनमें इसी तरह से आत्मसात हो जाती हैं या उनसे दूरी बनाए रख पाती हैं। भोगने वाले पात्र और सृजन करने वाले रचनाकार के बीच की रेखा किस बिन्दु पर जाकर धूमिल हो जाती है? अपने किसी प्रिय पात्र के उदाहरण से बताएं।

ममता जी – अरुणा जी बहुत अच्छा सवाल है, बहुत अच्छा सवाल! देखिए आपको क्या बताऊँ? हम और आप सब लेखक हैं। लेखक के साथ सबसे बड़ी सुविधा क्या है? सबसे बड़ी सुविधा यह है कि अगर आप पुरुष के बारे में लिखते हैं तो थोड़ा पुरुष बन जाते हैं और अगर आप स्त्री के बारे लिखते हैं तो थोड़ी स्त्री बन जाते हैं। यह जो तादात्म्य या एकरूपता है, यह केवल रचनाकार के लिए होती है।

कलम लेकर जब आप बैठते हैं, अकेले कमरे में आपके सामने एक मेज़ और आपके पास केवल कोरा कागज़, कलम और पानी का गिलास होते हैं। उस समय जब आप रचना कर रहे होते हैं, रचना करते समय आप वही हो जाते हैं जिसके बारे में लिख रहे होते हैं। यदि मैं 18 साल की लड़की के बारे में लिख रही होती हूँ, मेरा मन भीतर से उछलने लगता है, मैं स्वयं को 18 साल की लड़की की तरह अनुभव करने लगती हूँ।

यह होता है, हम सबके साथ होता है। जब मैंने ‘आपकी छोटी लड़की’ लिखी मेरे सामने एक रिबन था लाल रंग का जो ख़ुलता चला गया, ख़ुलता चला गया। जब मैंने ‘आपकी छोटी लड़की’ लिखी छोटी लड़की की उम्र 13 साल की थी और मैं उस समय 40 साल की थी, लेकिन मुझे ऐसा लगा कि मैं 13 साल की हो गई हूँ। मुझे लगा कि मैंने 13 साल की उम्र को जीया।

शायद यही हुआ होगा जब तालस्ताय ने अन्ना केरेनीना और जब फ्लॉबेयर ने मदाम बोवरी लिखी होगी। जब उन्होंने रचना की मदाम बोवरी के रूप में उन्होंने क्या पात्र बनाया! विवाहेतर प्रेम प्रसंग का इससे अधिक कारुणिक कोई पात्र नहीं हो सकता। हम उससे जरा भी नफरत नहीं करते, हम यह नहीं सोचते कि वह कितनी बेवकूफ़ है, कैसे वह प्यार में पड़ी हुई है और वह कैसे पैसे उधार लिए जा रही है! उधार ड्रैस लिए जा रही है, सब कुछ उधार ले रही है, जीवन में एक किस्म का घातक आकर्षण उसके अंदर है सम्बन्धों को लेकर और वह अपने आप को खत्म किए जा रही है। अन्ना के बारे में जब हम सोचते हैं तो उसके पति के बारे में नहीं सोचते, हम फ्रांस्की के बारे में सोचते हैं। और यह जो एक क्षमता है, शक्ति या ताकत है यह कलम की ताकत है कि हम किसी को जीवन देते हैं और वह जीवन हम सौ, दो सौ सालों तक उसे अपनी हथेली पर धड़कते हुए महसूस करते हैं।

हमारे हाथ में किताब है और हमें लगता है कि ऐसा है, ऐसा हुआ होगा। सबसे बड़े रचनाकार तो बाल्मीकि थे, उन्होंने रामायण  लिखी और हम सबने हज़ारों, लाखों किताबें लिख दीं कि राम अच्छे पति थे कि नहीं, अच्छे पुत्र थे या नहीं सीता की व्यथा कथा और देखा जाए तो ये पात्र केवल एक रचना के पात्र हैं। वह रचना इतनी कालजयी हो गई कि उसका पुनर्लेखन हुआ। तुलसीदास ने क्या किया? बाल्मीकि को उन्होंने फिर से लिखा, आसान शब्दों में, अवधी भाषा में लिखा और हम उन पर इतना विश्वास करते हैं कि एक-एक दोहे और चौपाई पर हमलोग पूरा ग्रंथ लिख देते हैं। हमारे भीतर उन पात्रों की विश्वसनीयता कम नहीं होती।

कालिदास ने शकुंतला का निर्माण किया, हमें दुश्यंत पर गुस्सा आता है, जो भूल गया, शकुंतला की बेवकूफी पर गुस्सा नहीं आता। हमारी सारी सहानुभूति चली जाती है शकुंतला के साथ! शेक्सपियर को लीजिए, हमें ओफीलिआ अच्छी लगती है, डेस्डीमोना अच्छी लगती  और उन पात्रों से हम नफरत करते हैं जिनके कारण वह पीड़ा पा रही है। मैं मानती हूँ कि यह कलम की शक्ति है जब तक हम इसे पहचानेंगे नहीं तब तक हम अपनी रचना में जीवंत पात्र नहीं खड़े कर सकते। मेरी कोशिश यही रहती है कि मैं पात्र बनाऊँ तो वह जीवंत हो, उसके भीतर ऑक्सीजन हो, उसके भीतर ऐसे गुण हों कि वह वर्षों-वर्षों तक लोगों को याद रहे।

मैंने 1970 में ‘बेघर’ उपन्यास लिखा था, आज तक उसके पुनर्संस्करण हो रहे हैं, लोग मुझसे आज भी पूछते हैं कि संजीवनी का क्या हुआ, आपने उसे बीच में छोड़ दिया, वह अब कहाँ चली गई? इसी तरह मेरी एक कहानी ‘दूसरा देवदास’ जो पाठ्यक्रम में रखी गई है, स्टूडेण्ट्स मेरे पास आते हैं वे पूछते हैं कि उसके बाद क्या हुआ उन दोनों का? उनकी शादी हुई या नहीं? मैं कहती हूँ कि यह मैने तुम्हारी कल्पना पर छोड़ दिया है, तुम जो चाहो करो। वही जैसे देवदास का हाल है। देवदास कितना प्रिय पात्र लगता है! वह शराबी है, गंजेड़ी है, बीड़ी पीता है, प्यार में धोखा देता है, जब वह भागने को कहती है तो पारो के साथ भागता नहीं, फिर भी जब हमें ऐसा लड़का दिखता है जो प्यार में पागल हो तो उसे हम कहते हैं कि वह बिलकुल देवदास है। यह ताकत है कलम की!

शरत बाबू ने जब देवदास लिखी क्या उम्र थी उनकी? 25 साल के भी नहीं थे और मुश्किल से 90 पृष्ठों की किताब है और उसमें कितनी शक्ति है यह पता चलता है जब हम उसे पढ़ते हैं! धर्मवीर भारती के ‘गुनाहों का देवता’ को जितनी बार पढ़ते हैं लगता है हमारी आँखों के सामने चन्दर और सुधा दोनों घूम रहे हैं एक दूसरे के साथ लड़ते झगड़ते हुए! यह शक्ति है पात्रों की!

सवाल – आपने कहा कि जिस पात्र के बारे में आप लिख रही होती हैं उसमें तन्मय हो जाती हैं और ऐसा आवश्यक भी है क्योंकि यदि आप उसमें तन्मय न होंगी तो उसकी संवेदना के साथ न्याय नहीं कर पाएंगी। लेकिन क्या कोई एक ऐसा पात्र है जिसे आप अपने बहुत निकट पाती हैं, जो आप अपने से अभिन्न पाती हैं, उसके बारे में बताएं।

ममता जी – यह तो आपका बहुत ही शरारती प्रश्न है। देखिए मेरे निकट सबसे प्रिय पात्र वही है जो हर बार मेरा हीरो बन जाता है। वह 6 फुट लम्बा है, बहुत खूबसूरत है, पंजाबी है लेकिन हिन्दी बोलता है और जो अपनी महबूबा पर कुर्बान रहता है। दरअसल मुझे रवीन्द्र कालिया ऐसे समय में मिले जब शायद मैं भी बहुत अकेली थी और वे भी जीवन में बहुत अकेले थे। होता यही है कि जीवन में आपके जो पहला पुरुष आता है और अगर वह इत्तिफ़ाक से अच्छा निकला, सज्जन भी हुआ और उसके साथ मिलकर यदि कोई वारदात नहीं हुई और सीधे-सीधे आप मुहब्बत के क्षेत्र में कूद गए तो जीवन में आपका हीरो जो है वह उसी के इर्द-गिर्द घूमता रहता है। तो अक्सर मेरी कहानियों को पढ़कर लोग पूछते हैं कि यह पात्र आपने कहाँ से उठाया, असल में मैंने उसे जीवन से ही उठाया होता है। पर हाँ मैंने कई स्त्री पात्रों की रचना की है जो मुझसे अभिन्न हैं और लोगों को बहुत याद आती हैं, उनमें कहीं न कहीं देखे हुए की छाया आती है।

कोई भी रचना केवल कल्पना के ऊपर नहीं खड़ी रह सकती। वह कल्पना के पहले आपकी नींव में होती है, आपको कहीं कोई चीज़ कुछ प्रभावित करे, अच्छी लगे। आप समझिए कि बेगम अख्तर की नाक की लौंग का लश्कारा आप समझिए, यदि किसी को एक बार याद रह गया तो जीवन में कभी भूल नहीं सकता, जब वे तान मारती थीं कान और नाक के हीरे जो चमकते थे वे पात्र की तरह मेरे भीतर चमचमाते हैं।

कई बार तो अनजान लोगों की अदाएँ हमारे भीतर आत्मसात हो जाती हैं। एक बार मैंने औटो में देखा दो लड़कियाँ हँस रही थीं। अरे वे केवल दाँतों से नहीं हँस रही थीं। उनका अंग-अंग हँस रहा था, उनका अंग-अंग थिरक रहा था। वह दृश्य मुझे आज तक याद है, उस दृश्य को मुझे कहीं न कहीं कहानी में कैद करना है। न जाने कितनी बार कोई अनजान बच्चा कहीं जा रहा होता है, उसकी नाक बह रही है, उसका कौतुक और किलकारी इतने आकर्षक लगते हैं उसको पकड़ना लेखक के लिए ज़रूरी हो जाता है और स्वाभाविक भी।

सवाल – आपने कुछ देर पहले ‘आपकी छोटी लड़की’ की बात की। वह मेरी भी प्रिय कहानी है। छोटी लड़की ने मुझे अपना बचपन याद दिला दिया। हर परिवार में एक बच्चा औरों की अपेक्षा माँ-बाप का फेवरेट होता है जिसके फलस्वरूप दूसरे बच्चे नेगलेक्टेड अनुभव करते हैं। और इस बात को माता-पिता समझ कर भी स्वीकार नहीं करना चाहते। इस कहानी में आपने छोटी लड़की की संवेदना को इतनी स्वाभाविकता से चित्रित किया है कि कहानी पढ़ते समय मुझे लगा कि मैं अपने ही बारे में पढ़ रही हूँ। साहित्यशास्त्र में इसी को साधारणीकरण कहते हैं कि पाठक को पात्र की संवेदना अपनी से लगने लगे। जानना चाहूंगी कि कहानी लिखते समय क्या आपके सामने पाठक होता है? क्या आप यह सोच कर लिखती हैं कि पाठक पर इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी? संक्षेप में, आप किसके लिए लिखती हैं और पाठक का आपके लेखन में क्या स्थान है?

ममता जी – देखिए अरुणा जी पाठक का स्थान वैसे तो बहुत ऊँचा है और ज़ाहिर है कि जब हम लिखते हैं तो सोचते हैं कि ऐसी कोई बात न लिखें जिससे कि पाठक भटक जाए। लेकिन जब मैं लिखती हूँ, या जब मैंने छोटी लड़की लिखी तो उस समय मैं छोटी लड़की में ही इंवॉल्व्ड थी, उस छोटी लड़की में ही मगन थी और मैं चाहती थी कि उस छोटी लड़की की सारी व्यथा सामने आ जाए। अच्छा, और व्यथा भी ऐसी कि उस लड़की को उसकी चेतना भी नहीं थी। यह तो ठीक है किसी समय हो जाती है जब लड़के उससे पूछते हैं कि क्या यह तुम्हारी सगी बहन है, वह घर आकर अपना चेहरा देखती है और कहती है कि ऐसी क्या बात है कि उनलोगों ने ऐसा कहा? चमड़ी तो मेरी भी चमचमी है, साँवली है तो क्या? और वह लगातार सोचती है कि ऐसा क्यों है। उसकी बहन हर मामले में उससे बीस है और वह सोचती है कि ऐसा क्यों है। पर मेरा यह ख्याल है कि दरअसल कुछ देर बाद पाठक गायब हो जाता है और पात्र इतने जीवित हो जाते हैं कि उनका जीवन ही लेखक के लिए, मेरे लिए सर्वोपरि हो जाता है। क्योंकि मुझे लगता है कि इनके प्रति मुझे न्याय करना है जो पात्र मैं बना रही हूँ वे किसी तरह से अविश्वसनीय न हों, ऐसा न लगे कि ऐसा कभी हो ही नहीं सकता। मेरा ख़्याल है कि मेरे दिमाग में पाठक लिखने के पहले आ सकता है, लिखने के बाद आ सकता है, पर लिखने के दौरान नहीं आता है।

सवाल – आप भले ही लिखते समय पाठक के बारे में न सोचें, पर आप इतनी सहजता से लिखती हैं कि उससे पाठक स्वयं ही जुड़ जाता है। साहित्य की सफलता का मनदण्ड भी यही है।

ममता जी, मेरा अगला प्रश्न आपसे कुछ इतर है। आज के लेखकों से मुझे यह शिकायत है कि वे केवल अपने बारे में पढ़ते हैं, अपनी ही रचना पढ़ते हैं, पर किसी दूसरे की नहीं पढ़ते। यह बात आप पर लागू नहीं होती, आपकी बातों से यह ज़ाहिर है कि आप एक वैलरैड लेखक हैं और इसीलिए आपके लेखन में इतनी विविधता और सहजता है। आप बताएँ आज की पीढ़ी में ऐसा कौन लेखक है जिसमें आप भविष्य की संभावना देखती हैं?

ममता जी – आपने कहा कि लेखक अपने आप में सिमटे रहते हैं और अपने लिए लिखते हैं। यह एक समस्या पैदा हुई है, पर यह समस्या लेखकों की उतनी नहीं जितनी इस वक़्त की है, समय की है। यह समय आत्मकेन्द्रित समय है जैसे हम हर समय अपने लैपटॉप और मोबाइल पर निगाह फिक्स रखते हैं। हमें यह नहीं पता होता कि बगल में बैठे व्यक्ति को इस समय क्या हो रहा है, यदि उसे हार्ट अटैक भी हो रहा हो तो हम अपने मैसेज पर अधिक ध्यान देते हैं कि अगला मैसेज क्या है, ताकि नेट पर होने वाली बात हमसे छूट न जाए। यह आत्मकेन्द्रीयकरण ‘मैं’ शब्द से आया है।

एक जमाना था जब हम मानते थे कि ‘हम’ शब्द इम्पौर्टेण्ट है, पर आज हम ‘मेरा भारत महान’ कहते हैं ‘हमारा भारत महान’ नहीं कहते। हर क्षण ‘मेरा’ शब्द का प्रयोग करके अपने को सीमित कर रहे हैं। लेखक भी इसका शिकार हो रहा हैं, वह सोचता है कि मैं अपनी भावना लिख रहा हूँ कोई इसे समझे या न समझे मुझे क्या मतलब। लेकिन यह लेखक को अपठनीय बना रहा है। कोई आपको क्यों पढ़ेगा? केवल आपकी कुंठाएँ पढ़ने के लिए तो हम किताब नहीं खोलते। हम केवल आपकी भूख-प्यास, आपकी निद्रा, आपके सुख-दु:ख या आपका प्रेम जानने के लिए तो नहीं पढ़ते। हम चाहते हैं कि कहीं वह हमसे रिलेट करे। लेखक और पाठक के बीच में एक धागा होता है, एक डोर होती है वह तब बन पाती है जब आपके अंदर वह संवेदना हो।

इसमें कोई शक नहीं कि इधर के दौर में आत्मकेन्द्रित साहित्य से बहुत हानि हुई है। हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं को इससे हानि उठानी पड़ रही है क्योंकि लोग पढ़ना नहीं चाहते, सर्क्यूलेशन गिर रहा है, लोकप्रियता कम हो रही है। जिस तरह से हम नाम लेते हैं नागार्जुन, रेणु और निर्मल वर्मा का उस तरह से हम आज के लेखकों का नाम नहीं ले पाते। यह अपने आपमें काफ़ी बड़ा नुकसान है। पर, साथ ही साथ परिस्थिति इतनी भी ख़राब नहीं, कुछ लेखक अभी भी कोशिश कर रहे हैं कि वे ऐसा लिखें जो समाज तक जाए और समाज के प्रश्नों से दो चार हो जाए। जैसे पिछले दिनों अखिलेश का एक उपन्यास आया है, ‘निर्वासन’ लेखक की सोच है कि हम आधुनिक होते-होते इतनी दूर निकल गए हैं कि भारतीय भी नहीं रहे।

उपन्यास का एक पात्र है चाचा, वह अपने घर में दो कमरे ऐसे बनाता है जिसमें हर चीज भारतीय रखता है। उसने मिक्सी हटा दी, उसकी जगह सिल बट्टा रखा, गैस हटा दी और अंगीठी रखी। वह कहता है कि उसे टीवी नहीं चाहिए और पुराने जमाने का रेडियो लाया। यह ठीक है कि यह थोड़ा अतिवाद है जीवन में थोड़ा समय के साथ चलना चाहिए। जीवन में थोड़ा बहुत तो तालमेल करना होता है। लेकिन लेखक अपने यथार्थ से यह जता रहा है कि आज हमने अंधी दौड़ में अपना नाम लिखाया है वह दौड़ कहाँ जाकर ख़त्म होगी।

इसी तरह मनोज पाण्डेय ने एक कहानी में बताया है कि कैसे हम आज अपनी नदियाँ और तालाब सब बड़े-बड़े मल्टीनेशनल को बेच रहे हैं और वे यहाँ आकर पीने के पानी की फैक्टरी खोल कर बोतल में भरकर महंगे दाम में पीने का पानी बेचते हैं जिसे हम खरीदते हैं और पानी की कमी से हमारे खेत सूखे पड़े हैं। जलाशय सूखने से पानी का अभाव भारत की बहुत बड़ी समस्या है। या तो नदी किनारे बनी फैक्टरी लगा दी जाती हैं उसका सारा कचरा नदी में जाता है जिससे पानी विषैला हो जाता है।

आज गंगाजल शुद्ध नहीं है, प्रदूषित हो गया है। इस प्रकार की समस्याएँ कुछ लेखक उठा रहे हैं। इसी तरह से अपने आप में इतना व्यस्त हो जाना नौकरी में कि परिवार के लिए समय न दे पाना यह थीम बार-बार आ रही है। जैसे वंदना राखी की कहानी ’मार्स पर चूहे’ नायक का दोस्त उससे पूछता है कि क्या तुम्हें याद है कि तुमने आखिरी बार अपनी पत्नी का चुम्बन कब लिया था। आज के कॉपोरेट जीवन में व्यस्त आदमी की कहानी है, ऑफिस की रिस्पौंसबिल्टी और टारगेट पूरे करने के चक्कर में आदमी इतना व्यस्त हो गया है, सारा दिन कंपनी के बारे में सोचता है, वह यह नहीं देखता कि उसका बच्चा किस हाल में है, उसकी पत्नी उसे कितना मिस कर रही है या उसके किसी और से सम्बन्ध हो रहे हैं। उसे किसी के लिए समय नहीं है।

इसी तरह से भारत में एक बहुत बड़ी समस्या यौन हिंसा की है, छोटी-छोटी लड़कियों को उठा कर ले जाते हैं उनके साथ अपनी हवस पूरी करके उन्हें मार देते हैं। आपको निर्भया काण्ड की याद होगी जो सन सोलह में हुआ था। मैं सोचती हूँ कि लेखकों को इस समस्या को छोड़ना नहीं चाहिए। क्योंकि लिखना साहित्यकार की एक सामाजिक ज़िम्मेदारी है। हम लिखते हैं तो चाहते हैं कि समाज में बदलाव आए, समाज में जो ख़राब सोच है उसको हम बदल सकें नहीं तो हमारे लिखने का कोई फ़ायदा नहीं है। लिखना आज नींद की गोली नहीं है, जगाने की गोली है, आपने पढ़ा तो आप जाग गए, यह नहीं कि पढ़ा तो नींद आ गई!

सवाल – आप की यह बात आज के लेखकों के लिए सामाजिक सरोकारों से जुड़ने के लिए प्रेरणा दायक है। अंत में मैं आपसे जानना चाहूँगी कि आप की रचना के बीज रूप में क्या कोई चरित्र होता है या कोई सोच जिसे आप कहानी में गूंथ देती हैं। यह मेरा अंतिम प्रश्न है, उसके बाद हम सब आपकी कविता सुनना चाहेंगे।

ममता जी – देखिए, यह शायद एक मिली जुली प्रक्रिया है। मेरा लिखने का तरीका बहुत गड़बड़ है, बिना सोचे समझे कभी यदि मुझे कोई नाम पसंद आ गया तो मैं उस नाम के इस्तेमाल के लिए मैं चरित्र बना लेती हूँ और उसके इर्दगिर्द कहानी गढ़ लेती हूँ। कविता मैं दो तरह से लिखती हूँ, कभी मैं बहुत मस्ती से लिखती हूँ और कभी पस्ती में लिखती हूँ। कभी मैं कविता लिखती हूँ जब मैं बहुत गुस्से से भरी होती हूँ और कभी जब मुहब्बत से भरी होती हूँ। ऐसा सबके साथ होता होगा जब मूड्स हमारे अंदर इतने प्रबल हो जाते हैं कि आसपास के वातावरण से कोई फर्क नहीं पड़ता। मैंने बहुत सी प्रेम कहानियाँ और प्रेम कविताएँ लिखी हैं।

कई बार लोग मुझसे पूछते हैं कि आपने यह प्रेम कहानी या प्रेम कविता कैसे लिखी। मैं उन्हें अपना कमरा दिखा देती हूँ। मैं कहती हूँ देखिए यह मेरा कमरा है, मेरे कमरे में एक तरफ़ बच्चे खेल रहे हैं, एक तरफ़ कोई बच्चा डिब्बा पीट-पीट कर गाना गा रहा है, पंचम स्वर में ट्रांजिस्टर रेडियो पर गाना बज रहा है, मेरे पति बैठे सिगरेट पी रहे हैं, और आप सोचिए कि ऐसे माहौल में मैं प्रेम कविता या प्रेम कहानी लिख लेती हूँ। हम औरतों की यह कण्डीशनिंग होती है कि सारे केऑस के बीच भी हम अपना काम पूरा कर लेते हैं, समय पर खाना बन कर तैयार हो जाता है और रचना भी लिखी जाती है।

मैंने तो अखबारों के लिए बहुत लिखा है, उनमें डैड लाइन पूरी करनी होती है। चालीस वर्षों तक शिक्षण करने से मेरे भीतर एक अनुशासन आ गया है कि हर हालत में काम पूरा होना चाहिए। खैर, अब मैं एक कविता सुनाती हूँ। एक बहुत सुन्दर वाक्य है, किसी ने कहा है कि जो लोग जीवन में नहीं आ पाते वे कहानी या कविता में आ जाते हैं, जो जीवन में आ जाते हैं उनके बारे में कहानी या कविता लिखने की आवश्यकता नहीं रह जाती। मेरी एक कविता है ‘अपरिचित से प्रेम’

सबसे पहले तो बताओ

अपना नाम

फिर मोहल्ला

कहाँ रहते हो

क्या करते हो

रोज सुबह इकतीस नंबर की बस से

कहाँ जाते हो?

और

अक्सर, चाय की रद्दी सी दुकान पर

क्यों खड़े रहते हो?  

तुम्हारे बारे में बहुत कुछ जानने की इच्छा है।  

पता नहीं क्यों मुझे लगता है

तुम मेरे अनुमानों से भी ज़्यादा अच्छे हो।

अरुणा: ममता जी, अपनी रचना और रचना प्रक्रिया को हम सबसे साझा करने के लिए आपका बहुत धन्यवाद।

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