हिंदी और मैथिली दोनों भाषाओं में बराबर अधिकार के साथ लिखने वाली वरिष्ठ लेखिका उषा किरण खान के नाम को किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है। उषा जी ने पानी पर लकीर, रतनारे नयन, सिरजनहार, भामती जैसे हिंदी-मैथिली दोनों भाषाओं में अनेक उपन्यासों सहित कहानी और नाटक आदि भी लिखे हैं। बाल-साहित्य पर भी उन्होंने काम किया है। मैथिली उपन्यास ‘भामती’ के लिए उनको साहित्य अकादमी से सम्मानित किया जा चुका है और अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का ‘भारत भारती पुरस्कार’ भी उन्हें देने की घोषणा हुई है। इस अवसर पर साक्षात्कार श्रृंखला की चौदहवीं कड़ी में युवा लेखक पीयूष द्विवेदी ने उषा किरण खान से बातचीत की है।
सवाल – सबसे पहले तो उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का पुरस्कार मिलने के लिए आपको बहुत बहुत बधाई। इसपर कुछ कहना चाहेंगी?
उषा किरण जी – धन्यवाद आपका। यह भारत भारती पुरस्कार सर्वाधिक महत्वपूर्ण है साहित्यजगत में। मैं भावविभोर हो गई!
सवाल – अपनी अबतक की जीवन-यात्रा को कैसे देखती हैं?
उषा किरण जी – मेरा जन्म आज़ादी के कुछ ही पहले हुआ। मेरे पिता जेल के अंदरबाहर रहते। मैंने अपनी माता को गंभीर कर्मठ संवेदनशील स्त्री के रूप में पाया। मेरा बचपन नये बनते भारत के सपनों के साथ बीता, गांधी आश्रम के संस्थापक मेरे पिता उनके सिद्धांतों पर चलते हुए उत्तर बिहार के सर्वाधिक पिछड़े इलाक़े में काम करने गये। हम भी गये। पर कुछ ही दिनों में दुर्घटना में दिवंगत हो गये। मेरी माँ ने खेती कर हमें पाला, पढ़ाया लिखाया। छोटी आयु में विवाह हुआ , हम साथ साथ पढ़ते और बढ़ते रहे। हमने घरसंसार नौकरी चाकरी और साहित्य के साथ जीवन जिया। बहुत तो नहीं अपना लक्ष्य ५०% पूरा हुआ सा लगता है। और आयु होने वाली है ७५ साल!
सवाल – आप हिंदी और मैथिली दोनों भाषाओं में लिखती हैं। मैथिली उपन्यास ‘भामती’ के लिए आपको साहित्य अकादमी मिला है। इन दोनों भाषाओं में से कौन-सी भाषा आपको रचनात्मक रूप से अधिक प्रिय है?
उषा किरण जी – मैथिली मातृभाषा है, उससे बहुत प्यार है। क्लासिकल भाषा है यह, बोलने में मधुर, स्थिर। लिखने में भी वैसी ही। हिंदी मेरी शिक्षा की भाषा है, स्वाभाविक लिखत-पढत की भाषा। वह प्रिय है। लिखने में हिंदी अधिक सरपट दौड़ती है।
सवाल – आपका नया उपन्यास ‘गयी झुलनी टूट’ अपनी रोजी-रोटी के लिए संघर्षरत एक गरीब की कथा है। इसमें लोकजुड़ाव के तत्व हैं। गाँव से शहर तक का संघर्ष विद्यमान है। इस तरह की संवेदनाएं आप कैसे ढूंढ लेती हैं?
उषा किरण जी – यदि आप संवेदनशील हैं तो लोक जुड़ाव होगा। मैं गाँव जाती रहती हूँ, वहाँ का सबकुछ जानती रहती हूँ। घर में काम करनेवाले लोगों से यदि आप दूरी न बनाएं तब आपको ऐसी अनेक सत्यकथायें मिल जायेंगी।
सवाल – आपने कहाँ गए मेरे उगना, हीरा डोम, एकसरि ठाढ़ जैसे नाटक लिखे हैं। मेरा सवाल ये है कि आप कहानी, उपन्यास और नाटक के लिए विषय चुनते हुए इनमें कैसे फर्क कर पाती हैं? आप यह कैसे तय करती हैं कि इस विषय पर नाटक लिखना है या कहानी?
उषा किरण जी – नाटक ऐसी विधा है कि लोगों के दिलोदिमाग़ मे तुरत छा जाती है। उस विधा की ओर मेरा ध्यान गया बाल नाटक रचते हुए। मैंने ‘कहाँ गये मेरे उगना’ के माध्यम से कविवर विद्यापति का जीवनदर्शन मंच पर साकार किया जिसे सामान्यजन जान सकें। हीरा डोम की कविता के आधार पर नाटक लिखना चुनौती था पर एक सच्ची घटना का आधार मिल गया। मंच पर अधिकाधिक लोग देखें यह अभीष्ट है।
सवाल – आपने बाल-नाटक और बाल उपन्यास भी लिखा है। गंभीर साहित्य और बाल-साहित्य दोनों में एकसाथ कैसे लेखन कर पाती हैं, क्योंकि इन दोनों प्रकार के लेखनों का मिजाज अलग-अलग है?
उषा किरण जी – बालसाहित्य लिखना कठिन नहीं। मैं नानी और दादी हूँ जो सुनाती हूँ वह लिख डालती हूँ।
सवाल – क्या आपको नहीं लगता कि बाल-साहित्य के प्रति वरिष्ठ लेखकों में एक प्रकार की उपेक्षा और अगम्भीरता का भाव है?
उषा किरण जी – बाल साहित्य पर काम नहीं होता यह सच है। वास्तव में बच्चों की समस्याओं को गंभीरता से लिया ही नहीं जाता। अभिभावक भी उनके मनोविज्ञान को समझने का प्रयत्न नहीं करते, इसीलिए कभी एकदम दुलार लुटाते हैं और अचानक ही बेहद सख्त भी हो जाते हैं। साहित्यकारों में ऐसी भावना है कि बाल-साहित्य लिखकर वे बड़े लेखक नहीं बन सकते। जबकि बाल-साहित्य लिखने वाला लेखक वयस्क साहित्य भी लिख सकता है, लेकिन लेखकों को बाल-साहित्यकार कहलाना पसंद नहीं। इस कारण इसपर कम काम होता है। यही कारण है कि विदेशी बाल साहित्य बच्चे पढ़ते हैं। यह स्थिति पीड़ादायक है जिसके भागीदार हम भी हैं।
सवाल – पानी पर लकीर, सिरजनहार, अगन हिंडोला आपके चर्चित उपन्यास हैं। अपने उपन्यासों में पात्र-योजना करते समय आप किन बातों का विशेष ध्यान रखती हैं? किन बातों के आधार पर मुख्यतः आपके प्रमुख चरित्र निर्मित होते हैं?
उषा किरण जी – सिरजनहार और अगनहिंडोला क्रमश – कवि विद्यापति और शेरशाह की जीवनी है सो उसमें पढ़ना बहुत पड़ा चरित्रनिर्माण के लिये; बस। पानी पर लकीर, रतनारे नयन, गई झुलनी टूट इत्यादि उपन्यास समकालीन हैं , उनके काल पात्र सबकुछ हमारे समय के हैं जो लिखने को उकसाते हैं।
सवाल – मैंने सुना है कि आपको कांचहि बांस की कहानियाँ खूब पसंद हैं। इसके पसंद होने का कोई विशेष कारण? इसके अलावा आपको अपनी कौन-सी कहानियाँ पसंद हैं?
उषा किरण जी – कांचहि बाँस नाम का संग्रह है। इस शीर्षक की कोई कहानी नहीं है। पर इसमें मैथिली की अनेक कहानियाँ जैसे – अजनास, त्यागपत्र, टुग्गरि वगैरह मेरी प्रिय कथायें संकलित हैं। मैं कैसे कहूँ कि कौन सी कथा कितनी पसंद है?
सवाल – ऐसे कोई लेखक जिनका आपकी लेखनी पर प्रभाव रहा हो?
उषा किरण जी – दरअसल हम दोनों एक ही स्थान के रहने वाले हैं, अतः हमारा परिवेश एक ही है। मेरे पिता नहीं थे, लेकिन नागार्जुन पिता की तरह थे। उनका मेरे ऊपर साया था। उन्हीकी प्रेरणा थी कि लिखो, लिखती रहो। हिंदी तो मैं लिख रही थी, लेकिन मैथिली में भी लिखो, ऐसा उन्होंने कहा था। अतः नागार्जुन की प्रेरणा और प्रभाव स्वीकार करती हूँ।
सवाल – आप विद्यानिवास मिश्र और नागार्जुन के काफी करीब रही हैं। उनसे जुड़ी कोई यादे जो आप हमसे साझा करना चाहें?
उषा किरण जी – दोनों की मिलीजुली याद सुनें। बाबा नागार्जुन मेरे बंदरबगीचा वाले आवास पर ठहरे थे। हमारे आँगन में दुर्गापाठ हो रहा था। बाबा नाश्तापानी कर कहीं घूमने निकले थे। तब पंडित विद्यानिवास मिश्र जी से हमारी आत्मीयता नहीं हुई थी। बाहर बरामदे पर आये, गार्ड से पूछा , पता चला कि बाबा कहीं घूमने गये हैं। पं जी ने पुर्ज़ा लिखा और टेबुल पर रख दिया — बग़ीचा मिला, बंदर गायब “– बाबा आये और हमें सूचना दी कि विद्यानिवास जी आये थे। वे हंस रहे थे, हमें बुरा लग रहा था । फिर बाबा ने बताया कि उनकी पत्नी पश्चिमी चम्पारण की हैं जिन्हें बाबा बबुनी कहते हैं। उस नाते पंडित जी बहनोई हुए। साले बहनोई का सहज परिहास था वह। अब हम भी हंस पड़े।
सवाल – ‘दूब धान’ आपकी संवेदनात्मक कहानी है। इसकी रचना-प्रक्रिया के विषय में कुछ बताइए।
उषा किरण जी – दूबधान, संवेदनायुक्त समरस समाज की कहानी है। समरसता अब भी बची है गाँवों में।
सवाल – साहित्य में विचारधारा के प्रभाव पर आपकी क्या राय है?
उषा किरण जी – साहित्य में विचारधारा हावी हो यह सही नहीं है। कहानी बोझिल हो जाती है। पर यदि पात्र किसी विचारधारा को मानता हो तब वह आना स्वाभाविक हैं। लेखक को समदर्शी होना चाहिये ऐसा मैं मानती हूँ।
सवाल – क्या आपको लगता है कि नए लेखकों की रचनाओं में व्यापक ‘रेंज’ नहीं है? अगर हाँ, तो क्या कारण है इसका?
उषा किरण जी – हाँ, मुझे लगता है कि ऐसा है और इसका कारण यह है कि नए लेखक पढ़ते कम हैं। आप कुछ भी लिखते हैं, उसके लिए पढ़ना जरूरी होता है, जबकि नए लेखकों में यह आदत कम है। लिखने के क्रम में उन्हें किसी जानकारी की जरूरत होती है, तो तुरंत गूगल पर पहुँच जाते हैं और गूगल उनकी खोज से सम्बंधित तमाम जानकारियां सामने ला देता है जिसके आधार पर वे लेखक कलम चला लेते हैं। लेकिन उन जानकारियों में तात्कालिकता अधिक होती है, अतः उनपर आधारित रचना में गहराई और व्यापक दृष्टि नहीं आ पाती। मैंने विद्यापति पर ‘सिरजनहार’ उपन्यास लिखा है, इसको लिखने के लिए मुझे वर्षों तक कितनी ही किताबों के पन्ने पलटने पड़े, तब जाके उपन्यास में उनका चरित्र गठन कर पाई। मगर नए लेखकों में ये अध्ययन व शोध-वृत्ति कम हुई है, इस कारण उनकी रचनाओं में गहराई नहीं मिलती।
सवाल – आयाम संस्था शुरू करने का मकसद क्या है?
उषा किरण जी – संस्था का नाम है – आयाम – साहित्य का स्त्री स्वर! ज़ाहिर है घरों में बैठी संकोच मे डूबी कवि-लेखक स्त्रियों की पहचान करनी है, उन्हें मुख्यधारा में लाना है। बिहार की पुरखिन लेखिकाओं की पहचान। उनपर गोष्ठी शोध वगैरह करवाना। स्त्रीलेखन का सूचीकरण इत्यादि कार्य इस संस्था के माध्यम से करने का प्रयास है।
सवाल – अभी कुछ नया लिख रही हैं?
उषा किरण जी – जीवन संघर्ष और संस्मरण लिख रही हूँ।
सवाल – आपकी प्रिय लेखक/लेखिकाएं और उनके लिए कोई संदेश?
उषा किरण जी – नाम मैं नहीं बता पाउंगी। संदेश है कि जो लिखें ज़िम्मेदारी से लिखें।
पीयूष – हमारे साथ बातचीत करने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
उषा किरण जी – आपका भी धन्यवाद।