कमलेश कमल

कमलेश कमल हिंदी के उभरते हुए युवा लेखक हैं। रेणु की धरती पूर्णिया से आते हैं। आईटीबीपी में डिप्टी कमांडेंट हैं। इनका एक उपन्यास ‘ऑपरेशन बस्तर – प्रेम और जंग’ प्रकाशित हो चुका है और बेस्टसेलर रहा है। इसकी लोकप्रियता का अंदाजा इसीसे लगा सकते हैं कि साल भर के अंदर ही इसके तीन संस्करण आ चुके हैं। इसके अतिरिक्त कमलेश कमल राष्ट्रवादी लेखक संघ, मातृभाषा उन्नयन संस्थान, भारत संस्कृति न्यास आदि अनेक संगठनों में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन करते हैं। कोरोना काल में इन्होंने अपनी टीम बनाकर पूरे देश में अनेक जरूरतमंद लोगों तक मदद पहुंचाने का काम किया। आज पुरवाई के लिए युवा लेखक/समीक्षक पीयूष द्विवेदी ने कमलेश कमल से बातचीत की है।

सवाल – नमस्कार कमलेश जी। पुरवाई से बातचीत में आपका स्वागत है। बातचीत की शुरुआत मैं आपके निजी जीवन से करना चाहूंगा। अपनी जीवनयात्रा के बारे में कुछ बताइये।
कमलेश कमल – प्रतिदिन आगे बढ़ने की चाहत रखनेवाला एक संवेदनशील व्यक्ति हूँ। फणीश्वरनाथ रेणु के अंचल में राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त शिक्षक पिता और गृहिणी माता के घर जन्मा एक आम बालक रहा हूँ। आगे बढ़ने की तीव्र इच्छा को नवोदय विद्यालय पूर्णियाँ में पंख लग गए। आगे चलकर IIT के लिए गणित पढ़ाता था और स्वयं स्वान्तः सुखाय साहित्य पढ़ता था। शब्दों के प्रति समझ थी, तो यूँ ही इसकी व्युत्पत्ति आदि के बारे सोचता रहता। गणित की तरह व्याकरण को देखने की कोशिश करता और पत्र-पत्रिकाओं में लिखता रहता। UPSC के माध्यम से 2007-08 में अधिकारी बनते ही रोजी-रोटी की समस्या हल हो गई, तो भाषा-विज्ञान पर और गहनता से कार्य करने लगा। इसी क्रम में साहित्य की विविध विधाओं में 2000 से अधिक आलेख आदि प्रकाशित हुए और कुछ पत्र-पत्रिकाओं के संपादन का दायित्व भी निभाता रहा। इसकी फलश्रुति कहिए कि देशभर से लोगों का भरपूर प्यार मिला और कई संस्थाओं ने महत्त्वपूर्ण दायित्व भी सौंपे। साहित्य से जो भी अर्थोपार्जन होता है, उसे समाज को ही लौटा देता हूँ, व्यक्तिगत उपयोग नहीं करता।
सवाल – आप आईटीबीपी में डिप्टी कमांडेंट हैं, शिक्षक भी हैं, किताब भी लिख चुके हैं और साथ-साथ सामाजिक कार्यों में भी सक्रिय रहते हैं, इतनी गतिविधियों के बीच संतुलन कैसे साधते हैं ?
कमलेश कमल –  मानव जीवन को देखें, तो यह कुछ और नहीं अपितु संतुलन की साध है। जिसने साध लिया वह ‘बुद्ध’, जो एकदम न साध सके वह ‘बुद्धू’। हम-आप जैसे आमजन इन दोनों के बीच में होते हैं, साधने की कोशिश करते रहते हैं। अपने बारे में कहूँ तो सदा अपना परिष्कार करता रहना चाहता हूँ। कल तक जहाँ था, आज उससे कुछ आगे बढूँ। कल आज से आगे की यात्रा हो। हाँ, साहित्यकार हूँ तो सहृदय हूँ और इस अर्थ में किसीके काम आ सकूँ… यह चेष्टा भी हमेशा रहती है। UPSC  प्राथमिक परीक्षा उत्तीर्ण छात्रों के लिए निबंध और हिंदी साहित्य का निःशुल्क मार्गदर्शन हो अथवा चिकित्सा हेतु किसीकी मदद– मूल भाव बस इतना होता है कि यह जीवन बेकार तो नहीं जा रहा है ।
सवाल – आपका एक उपन्यास ‘ऑपेरशन बस्तर’ प्रकाशित हो चुका है। इस उपन्यास की विषयवस्तु और रचना-प्रक्रिया के विषय में कुछ बताइये।
कमलेश कमल –  ‘ऑपरेशन बस्तर : प्रेम और जंग’ को जो पाठकीय प्रतिसाद मिला है, वह लेखन और प्रकाशन जगत् दोनों के लिए सुखद है। #1 बेस्टसेलर होना हो, 1 वर्ष में तीन-तीन संस्करण आना हो, 5 शोध होना हो या कई भाषाओं में अनुवाद…यह पाठकों का प्यार ही विविध रूपों में सामने आ रहा है। अपनी तरफ़ से तो बस इतनी कोशिश थी कि बस्तर के बीहड़ों में पनपे इस प्रेम कहानी को कोई पढ़ना आरंभ करे, तो अंत तक पढ़ कर ही रुके… कभी रोए, तो कभी रोमांच से भर जाए। नक्सली और पुलिस दोनों का पक्ष साफ-साफ दिख जाए और पाठक स्वयं तय करे कि वह किसके साथ है।
लेखकीय निष्ठा के उदाहरण के रूप में एक अभूतपूर्व दावा इस पुस्तक के साथ था– अगर कोई भी पाठक इसे पढ़कर केवल इतना कह दे कि किताब पसंद नहीं आई, तो बिना कुछ पूछे उसके पूरे पैसे वापस होंगे। यह दावा आज भी है, पर आज तक एक भी ऐसा पाठक नहीं मिला जिसे किताब पसंद नहीं आई।
सवाल – ऑपेरशन बस्तर का कथानक नक्सलवाद के विषय पर आधारित है। हम जानना चाहेंगे कि नक्सलवाद को उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, सैद्धांतिक आधार और व्यवहारिक स्वरूप में आप कैसे देखते हैं ?
कमलेश कमल – उत्तर देने के पूर्व यह कहना चाहूँगा कि कुछ सीधे-सीधे नैरेटिव पर लिखना साहित्यकार का काम नहीं है। बस, लोगों को सही तस्वीर मिल जाए, दोनों पक्षों की अच्छाई-बुराई दिख जाए– लोग स्वयं निर्णय कर लेंगे। इस पुस्तक के लेखन में मैंने इसका विशेष ध्यान रखा।
अब आपके मूल प्रश्न का उत्तर संक्षेप में देता हूँ–
कमियाँ और खूबियाँ दोनों ओर हैं। हाँ, जैसे वामपंथ किताब में कुछ और होता है, ज़मीन पर कुछ और– वैसे ही नक्सलवाद की भी स्थिति है। सीधी बात है– जब कोई कहे विकास नहीं हो रहा और विकास होने भी न दे तो क्षोभ होता है। सार्वभौम समता, मानवीय गरिमा आदि के नाम पर सड़क, मोबाइल टॉवर आदि उड़ाए जाएँ, लोगों को गाजर-मूली की तरह काटा जाए; तो लगता है कि कुछ भी हो, स्थिति बदलनी चाहिए।
सवाल – आजकल शहरी नक्सलवाद की भी बड़ी चर्चा है। इसे लेकर कुछ कहना चाहेंगे ?
कमलेश कमल – ‘शहरी-नक्सलवाद’ और ‘लव-ज़िहाद’ आज़ाद-भारत की दो ऐसी अवधारणाएँ हैं जिनके अस्तित्व को अस्वीकार करने वाले ही इन्हें अंदर से हवा देने की कवायद करते देखे गए हैं। बाक़ी आमजन के बीच कोई विवाद नहीं है। उन्हें पता है कि ये दोनों ही हैं। ‘शहरी-नक्सलवाद’ की बात करें, तो यह नक्सलवाद को न केवल वैचारिक ईंधन देने की कोशिश करता है बल्कि हथियार जुटाने, दवाई पहुँचाने आदि से लेकर नई भर्ती करने तक में सहयोगी भूमिका में रहता है। ऐसे अनेक मामले सामने आए हैं जहाँ  ‘शहरी-नक्सलियों’ ने नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में जाकर हिंसा भड़काने का प्रयास किया है। ऑपरेशन बस्तर में भी हेमा के पति के माध्यम से शहरी-नक्सलवाद की ओर इंगित किया गया है।
सवाल – हिंदी साहित्य में एक समय के बाद से विचारधारा विशेष का वर्चस्व रहा है। आपके विचार से इस स्थिति ने साहित्य को कितना फायदा या नुकसान पहुंचाया है?
कमलेश कमल – सहृदयता साहित्य की पहली शर्त है। जब आप विचारधारा  के खाँचे में साहित्य को सिमटा देते हैं; तब न आप विचारक बन पाते हैं और न ही साहित्यकार। साहित्यकार को कम-से-कम सर्जना की प्रक्रिया में हर ‘वाद’  से अलग रहते हुए शालीनता से अपनी बात रखनी चाहिए और विचारकों से अलग दिखना चाहिए। यह सच है कि विगत कई दशकों में हमने एक विचारधारा विशेष से प्रभावित ढर्रे का लेखन ही देखा जिससे साहित्य की पठनीयता बुरी तरह घट गई है। हिंदी पट्टी की ही बात करें, तो साक्षर जनसंख्या के अनुपात में साहित्यिक पुस्तकों की क्रय-संख्या अत्यधिक कम है। इससे स्पष्ट है कि हमें पूर्वाग्रहमुक्त और समावेशी लेखन की ओर उन्मुख होना होगा। वाद-विशेष का रंगीन चश्मा पहन कर सब कुछ उसी रंग का देखना-जानना साहित्य के लिए कतई शुभ संकेत नहीं है। भारत की सामासिक संस्कृति का सम्मान करते हुए यहाँ की लोक-अस्मिता की तलाश साहित्य में प्रतिध्वनित हो न कि सर्वग्रासी ध्वंसात्मक लेखन।
सवाल – भाषा को लेकर आप अत्यंत कठोर और अनुशासित दिखाई देते हैं। आजकल युवाओं द्वारा जो लेखन हो रहा है, उसे भाषाई कसौटी पर कितना खरा पाते हैं?
कमलेश कमल – यह सच है कि आज का लेखक शिल्प के प्रति अधिक सजग नहीं दिखता। रोचक लिखने का अर्थ यह नहीं कि हिंग्लिश लिखी जाए, गाली लिखी जाए, अश्लीलता परोसी जाए। शब्द-सजग होकर भाषाई-संस्कार का परिमार्जन करना भी लेखक का दायित्व होता है।
सवाल – आजकल लेखक किताब लिखने के साथ-साथ बेचने का काम भी करने लगे हैं। ऐसा लगता है जैसे फेसबुक पर हर नया लेखक अपनी दुकान खोलकर बैठा है। लेखक पर इस दोहरे दायित्व को क्या आप ठीक मानते हैं ? क्या इससे प्रकाशक और काहिल नहीं हो जाएंगे ?
कमलेश कमल – यह एक बदलाव है जिसे स्वीकार करना ही होगा। साहित्य लेखन भले व्यवसाय न हो, प्रकाशन तो व्यवसाय है ही। प्रकाशक बस यह चाहता है कि उसकी अधिक-से-अधिक प्रतियाँ बिक जाएँ। तथ्य है कि आज लेखक से अधिक क्रिकेटर और फिल्मस्टार की किताबें बिक रही हैं। ऐसे में लेखक अपना सेलिंग कोशेंट (बेचने की क्षमता) दिखाकर अपनी उपादेयता सिद्ध करता है। फेसबुक भी एक महत्त्वपूर्ण माध्यम है। यही आज का युगसत्य है।
सवाल – कोरोना की दूसरी लहर के दौरान आपने व आपकी टीम ने देश भर में लोगों को सहायता पहुंचाई। कैसा अनुभव रहा?
कमलेश कमल – जब दूसरी लहर आई तो हम सबने यह महसूस किया कि जीवन कितना क्षणभंगुर है। लोग अस्पतालों में बेड के लिए या ऑक्सीजन के अभाव में दम तोड़ रहे थे। प्रतिदिन मोबाइल से 1-2 संपर्क डिलीट करना पड़ रहा था। लगा किसी दिन लोग लोग मेरा नंबर डिलीट करेंगे। ऐसे में 25 चिकित्सकों और 15 स्वयंसेवकों की मदद से 40 लोगों की एक कोर टीम बनाकर लोगों की मदद करने का प्रयास किया जो देखते-देखते 1000 से अधिक समर्पित लोगों का समूह बन गया। विभिन्न राज्यों के लिए 10 व्हाट्सअप समूह बनाकर देश भर के लोगों की दिन-रात मदद की जाने लगी और हज़ारों लोगों की जान बचाने में हम अपना योगदान दे सके। किसी भी व्यक्ति से 1 रुपया लिए बिना हमने कई शहरों में मुफ़्त भोजन, मास्क, सैनिटाइजर, दवाई आदि का वितरण किया जिसकी सराहना देश भर में हुई। कुल मिलाकर अब देखता हूँ तो लगता है कि यह सब करके आत्मिक रूप से समृद्ध हुआ हूँ।
सवाल – आजकल क्या कुछ पढ़ और लिख रहे हैं ?
कमलेश कमल – हिंदू धर्मग्रंथों को भाषा-वैज्ञानिक दृष्टि से पढ़ रहा हूँ। कृष्ण, अर्जुन, शल्य आदि 100 नामों को चिह्नित किया है जिस पर विस्तार से लिखना चाह रहा हूँ। इसके अलावा ‘वेदांत’ के समानांतर HBS (हार्वर्ड बिजनेस सकूल) से आई मैनेजमेंट की कुछ किताबें पढ़ने का प्रयास कर रहा हूँ। लेखन की बात करूँ तो ‘दुःख : एक जीवन साथी’ पुस्तक प्रकाशक को दे रहा हूँ। इसमें 32 मनोवैज्ञानिक निबंधों के माध्यम से दुःख के उद्भव, इसकी प्रकृति, इसके विविध कारण और निदान पर रोचक तरीके से लिखा है। इसकी भूमिका साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदरश मिश्र ने लिखी है। इसके साथ ही अगले उपन्यास ‘धूसर’ पर भी कार्य हो रहा है। अंग्रेजी उपन्यास ‘Adolescence’ के प्रूफ पर कार्य हो रहा है। इसे 5 वर्ष पूर्व ही लिख लिया था और 1 बड़े प्रकाशन समूह ने इसे छापना भी चाहा लेकिन मुझे लगा कि इसमें अभी मेरा सर्वोत्तम निवेश नहीं हुआ है। अब संतुष्ट हूँ, तो आशा कर सकते हैं कि यह कुछ महीनों में प्रकाशन हेतु चली जाएगी। साहित्य तभी सर्वकालिक हो सकता है, जब इसमें सर्वोत्तम निवेश हो।
पीयूष द्विवेदी – हमसे बातचीत के लिए समय निकालने हेतु आपका धन्यवाद कमलेश जी।
कमलेश कमल – धन्यवाद।
उत्तर प्रदेश के देवरिया जिला स्थित ग्राम सजांव में जन्मे पीयूष कुमार दुबे हिंदी के युवा लेखक एवं समीक्षक हैं। दैनिक जागरण, जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला, नवभारत टाइम्स, पाञ्चजन्य, योजना, नया ज्ञानोदय आदि देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में समसामयिक व साहित्यिक विषयों पर इनके पांच सौ से अधिक आलेख और पचास से अधिक पुस्तक समीक्षाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। पुरवाई ई-पत्रिका से संपादक मंडल सदस्य के रूप में जुड़े हुए हैं। सम्मान : हिंदी की अग्रणी वेबसाइट प्रवक्ता डॉट कॉम द्वारा 'अटल पत्रकारिता सम्मान' तथा भारतीय राष्ट्रीय साहित्य उत्थान समिति द्वारा श्रेष्ठ लेखन के लिए 'शंखनाद सम्मान' से सम्मानित। संप्रति - शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय। ईमेल एवं मोबाइल - sardarpiyush24@gmail.com एवं 8750960603

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