मेरे पति सन उन्नीस सौ इक्यासी से सन पचासी तक गुड़गांव में हरियाणा बिजली बोर्ड में मेडिकल ऑफिसर थे। फिर ट्रांसफर होकर हम यमुनानगर चले गए और चार साल रहने के बाद नौकरी से त्यागपत्र देकर कानपुर शिफ्ट हो गये।
अब लगभग पैंतीस सालों बाद बेटा एक हफ्ते की ट्रेनिंग के लिए गुडगांव गया तो मैं भी उसके साथ चली गई। वहाँ पहुँचकर पुराने साथियों सत्या रस्तोगी और अरोड़ा भाभी जी से मिलने की लालसा जाग उठी। इन दोनों से हमारे पारिवारिक संबंध थे पर समस्या ये कि उनके फोन नंबर नही थे। पहले लैंड लाइन वाले थे भी तो बाद में मोबाइल आने की वजह से वो बंद हो गये। फिर दूरी और व्यस्तता उनसे संपर्क खत्म सा हो गया था।
रही बात ऐड्रेस की तो डॉक्टर साहब को उन लोगों का पता अच्छे से मालूम था पर अब जब वो नही रहे तो मुझे उनके घर का पता ठीक से नही याद था फिर भी दिमाग पर ज़ोर डालने के बाद रस्तोगी जी के घर का नंबर बामुश्किल याद आया और अरोड़ा जी के घर का नंबर थोड़ा आसान सा था इसीलिए दिमाग पर थोड़ा सा जोर डालते ही मुझे याद आ गया तो मैं अपने बेटे के साथ उनसे मिलने की लालसा लिये निकल पड़ी। पर रस्तोगी जी के घर जाकर निराशा हाथ लगी…वह घर बेचकर कहीं चले गए थे..पर कहाँ? ये कोई नहीं बता पाया।
दुखी मन से हम अरोड़ा जी के घर के लिए चल पड़े। रास्ते भर मन में उथल पुथल मची थी। अच्छे बुरे ख्याल मन में आये जा रहे थे कि पता नहीं वो लोग होंगे या फिर घर बेचकर चले गए होंगे या फिर,,अरोड़ा जी बीमार रहते थे तो क्या पता कि,,,,
“सात सौ सत्तर, सात सौ इकत्त्हर, बहत्तर,,,,,लो आ गया 789 यानि सात सौ नवासी” अचानक बेटे की आवाज़ सुनकर मेरी तंद्रा टूटी तो मेरी नज़र गेट के बगल में लगी नेमप्लेट पर गई “सतीश कुमार अरोड़ा” उस पर उनका नाम पढ़कर मेरे दिल में खुशी की लहर दौड़ गई और जान में जान आई कि अरोड़ा साहब घर छोड़कर नही गए वरना रस्तोगी भाईसाहब की तरह कहीं,,,,,
“मम्मी, फाइनली घर मिल ही गया ना” तभी मेरे बेटे ने फिर से कहा तो मैं खुशी की अतिरेकता से चीख सी पड़ी.. “हाँ,हाँ यही है, यही है..” कहती हुई मैं कार का दरवाज़ा खोलकर जल्दी से उतर पड़ी। गेट के अंदर करीब पच्चीस-छब्बीस साल का सुंदर नौजवान लड़का अपने मोबाइल पर कुछ कर रहा था..शायद वह अरोड़ा जी का बेटा है.. पहले दो बेटियाँ थी और दस साल बाद बेटा हुआ था। उसने मेरी भावनाओं को या फिर शायद मेरी खोजी दृष्टि को समझ लिया था। उसने वहीं से खड़े खड़े पूछा “किससे मिलना है आपको?”
“अरोड़ा भाईसाहब से,भाभीजी से…वो हैं?…” जोश से मैं बोली।
” हाँजी,पर आप लोग कौन..?” उसने कहा तो मैं हँस पड़ी..”भाभी जी को पता होगा…बहुत पुराने मिलने वाले हैं हम” कहती हुई जल्दी से मैं गेट खोलने लगी। अपना नाम ना बताकर मानो मैं उन्हें सरप्राइज़ देना चाहती थी।
“जी,पर नाम क्या है आपका?” उस लड़के ने हाथ बढ़ाकर मुझे वहीं रुकने का संकेत दिया तो मैं खिसिया गई। सच ही तो कह रहा है ये..बगैर जाने बूझे कैसे कोई अजनबी को घर के अंदर जाने दे सकता है? मैंने अपने को संयत किया और बोली “बेटा, मम्मी,पापा से कहो डॉक्टर दिनेश,,,मेरा मतलब है कल्पना का नाम बता देना, वो समझ जायेंगे।”
सुनकर वह अंदर चला गया और कुछ ही मिनटों में एक बुज़ुर्ग के साथ हाजिर था। मैंने ध्यान से उन्हें देखा.. हाँ अरोड़ा साहब ही थे वो।
“हाँ जी,कौन हैं आप?” मुझे ध्यान से देखते हुए उन्होंने पूछा..शायद वह मुझे पहचान नही पाये थे। वैसे पहचाने भी कैसे? तकरीबन पैंतीस साल बाद हम मिल रहे थे इतने अंतराल में मैं भी साठ पार कर रही थी और वो भी पिछत्तर के करीब पहुंच चुके होंगे..मैं मन ही मन गणित लगाने लगी और वैसे भी पूरी तरह से हम लोगों का शारीरिक सौष्ठव बदल चुका था।
“जी,मैं कल्पना,,,,मिसिज़ डॉक्टर दिनेश,,,” मैं जब तक पूरा परिचय देती कि पीछे से आतीं उनकी पत्नी की आवाज़ सुनाई दी…”नई बस्ती? सेठ साहब के यहाँ हम इकट्ठे किरायेदार थे ना?” उन्होंने पहचान लिया था! दरअसल अरोड़ा जी,रस्तोगी जी और हम..तीनों ही लोग नई बस्ती में रहने वाले सेठ साहब के यहाँ किरायेदार रहे थे ।
वहाँ तीन साल हमने एक साथ रहकर बहुत अच्छा वक्त गुज़ारा था। मेरी दोनों बेटियाँ भी वहीं हुईं और डिलीवरी के समय भाभीजी ने मेरी बहुत देखभाल की थी..बिल्कुल एक माँ की तरह मुझे झप्पी पाकर दुलारतीं ,जबरन सोंठ गुड़ के लड्डू खिलातीं।
“हाँ, जी,जी…नमस्ते भाभी जी” कहते हुए मैं उनके गले लगने के लिए लपकी तभी उनके बेटे की तेज़ आवाज सुनकर मेरे कदम ठिठक गये..”आँटी जी,पहले अपने हाथ और सामान तो सेनेटाइज़ कर लीजिए”..कहते हुए उसने मेरे और मेरे बेटे के हाथों और पर्स पर स्प्रे कर सेनेटाइज़ करके तुरंत ही अपने मम्मी पापा को सोफे से थोड़ी दूर रखी कुर्सी पर बैठा दिया तो मेरी भाभी जी से गले लगने की तमन्ना दिल में ही रह गई।
फिर पुरानी बातों का सिलसिला शुरू हो गया। डॉक्टर साहब नही रहें” ये जानकर वो बहुत दुखी हुये फिर उनकी तमाम यादें,बच्चों के पैदा होने से लेकर उनके नामकरण..मकानमालिक से नोंक झोंक,रस्तोगी जी की बातें..साथ में घूमने फिरने की,फिल्में देखने की एवं अन्य तमाम अच्छी बुरी यादें ताज़ा करते हुए कब दो घंटा बीत गया, पता ही नहीं चला।
कोरोना की वजह से उनके यहाँ कोई घरेलू सहायिका नही आ रही थी तो मेरे मना करने के बावजूद भी, भाभी जी के आग्रह पर उनका बेटा चाय बना लाया और फिर चाय पीते हुए दस पंद्रह मिनट और लग गये। इस बीच मैंने ध्यान दिया कि उनका बेटा कुछ अनमना सा लग रहा था मानो उसे हमारा इतनी देर तक बैठना अच्छा नहीं लग रहा हो।
ख़ैर..चाय खत्म करते ही हम जाने के लिए उठ खड़े हुए तो वह भी सेनेटाइज़र लेकर झट से उठ खड़ा हुआ।
जाते-जाते भाभी जी ने झप्पी लेने के लिए अपने हाथ आगे बढ़ाये लेकिन फिर बेटे की ओर देखकर ना जाने क्यों वह पीछे हट गईं। मैं ड्राइंग रूम से निकलकर बाहर आई तो पीछे-पीछे सुमित भी निकल आया और जब हम कार में बैठने लगे तो वह तुरंत ही अंदर चला गया।
मुझे उसका व्यवहार अजीब तो लगा साथ ही भाभी जी के बढ़े हाथ याद आ गये “बेचारी झप्पी लेना चाहती थीं पर पता नहीं क्यों नही ले पाईं?पक्का बेटे से डरती होंगी… पर मैं भी तो पागल हूँ, मैं ही बढ़ के झप्पी ले लेती” सोचते ही मैं भावुक हो गई.. “अब क्या पता फिर कब आना हो या आ ही ना पाऊँ?
ये आजकल के बच्चे भी कितने असंवेदनशील होते हैं! अपने माँ बाप और उनकी भावनाओं को कुछ समझते ही नही। वैसे भी कितने सालों बाद मिले हैं। नही, नही अब उनके बेटे को चाहे कितना भी बुरा लगे.,मैं ही झप्पी ले आती हूँ तभी मुझे भी तृप्ति मिलेगी वरना हमेशा पछतावा रहेगा।” सोचते ही मैं कार से उतरी। जल्दी में शायद सुमित गेट खुला छोड़ गया था।
जैसे ही गेट से प्रवेश कर मैं ड्रॉइंगरूम के दरवाज़े के पास पहुँची कि अंदर से आती सुमित की तेज आवाज़ से मेरे कदम ठिठक गए! वह सोफे,मेज़, चाय के कप ,दरवाजे.. सबको सेनेटाइज़ करते हुए बोलता जा रहा था..”दुखी मत हो मम्मी! कोरोना खत्म हो जायेगा तो आपको कानपुर ले जाकर आँटी से मिलवा लाऊँगा..पक्का प्रॉमिस। मुझे आप लोगों की चिंता है..देखो ना,कोरोना फैला हुआ है और इस उम्र में इम्यूनिटी पावर कम हो जाती है। ऐसे में अगर आप लोगों को कुछ हो गया तो मैं क्या करूंगा? इसीलिए अब मुझे किसी का आना नही अच्छा लगता है।”
मेरा मन भीग गया। सुमित के अजीब से व्यवहार का सच मेरे सामने आ गया था। कितनी गलत थी मैं कि “आजकल के बच्चों में संवेदनाएं नही होतीं हैं ,वो ज़िम्मेदारी नही उठाना चाहते हैं।” सच तो ये है कि आजकल के बच्चे भी अपने बुज़ुर्गों के प्रति बहुत ज़िम्मेदार और संवेदनशील होते हैं। मेरा मन भावनाओं में बह गया। मैं खड़ी ना रह सकी और उल्टे पाँव वापस आकर कार में बैठकर अपने होटल लौट गई।
बहुत सुंदर लिखा मन भीग गया ! समझदारी दो तरफा हो तो सुख है !