लगभग सभी यह जानते और मानते हैं कि इवोल्यूशन का सिद्धांत प्रसिद्ध ब्रिटिश जीववैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन ने दिया था। इवोल्यूशन या जीवन के क्रमिक विकास के सिद्धांत का सारा श्रेय डार्विन को ही दिया जाता है, विज्ञान जगत द्वारा भी और साधारण जगत द्वारा भी। बहुत कम लोग जानते हैं कि इवोल्यूशन का सिद्धांत चार्ल्स डार्विन से भी पहले एक अन्य ब्रिटिश जीववैज्ञानिक अल्फ्रेड रसेल वालेस ने दिया था। वालेस डार्विन के समकालीन थे और इवोल्यूशन के सिद्धांत पर डार्विन से अलग काम कर रहे थे।
वालेस ने इवोल्यूशन के सिद्धांत पर अपने अध्ययन का कुछ हिस्सा ब्रिटेन के एक साइंस जर्नल में प्रकाशित करवाया। तब तक डार्विन भी उसी सिद्धांत पर लम्बा अध्ययन कर चुके थे किन्तु अपने खराब स्वास्थ्य और पारिवारिक तनाव के चलते अपने अध्ययन को पूर्ण नहीं कर पाए थे। जब डार्विन के मित्रों ने साइंस जर्नल में प्रकाशित वालेस का अध्ययन पढ़ा तो उन्हें चिंता हुई कि कहीं डार्विन के पिछले बीस वर्षों का परिश्रम व्यर्थ न चला जाए और कोई अन्य वैज्ञानिक इवोल्यूशन के सिद्धांत का सारा श्रेय ले जाए।
उन्होने डार्विन से संपर्क कर उन्हें अपना अध्ययन जल्दी से जल्दी पूर्ण करके प्रकाशित करने को कहा। मगर तब तक डार्विन तब के वैज्ञानिक जगत में एक सम्मानित नाम बन चुके थे। लगभग सभी तत्कालीन वैज्ञानिक यह जानते थे कि डार्विन इवोल्यूशन के सिद्धांत पर काम कर रहे थे। डार्विन को अपना श्रेय चले जाने की अधिक चिंता नहीं थी। खराब स्वास्थ्य और पारिवारिक तनाव से पीड़ित डार्विन को एक बारगी तो यह भी लगा कि अच्छा ही है कि इवोल्यूशन के सिद्धांत पर कोई और काम कर रहा है। अब वे अपना अध्ययन छोड़कर अपने स्वास्थ्य पर ध्यान दे सकते हैं। मगर उनके मित्र उन्हें अपना अध्ययन पूर्ण करने के लिए उत्साहित करते रहे।
डार्विन ने वालेस से संपर्क किया। वालेस भी उस समय के अन्य वैज्ञानिकों की तरह डार्विन का सम्मान करते थे और यह भी जानते थे कि डार्विन इवोल्यूशन के सिद्धांत पर लम्बा अध्ययन कर चुके थे । वालेस ने अपने अध्ययन की एक प्रति डार्विन को भेजी। जब डार्विन ने वालेस का अध्ययन पढ़ा तो उन्हें घोर आश्चर्य हुआ कि वालेस भी लगभग उसी नतीजे पर पहुँचे थे जिस पर डार्विन पहुँचे थे कि पृथ्वी पर जीवन का इवोल्यूशन या क्रमिक विकास साधारण जैविक संरचना से होते हुए मानव प्रजाति तक हुआ है और यह क्रमिक विकास नेचुरल सिलेक्शन या प्राकृतिक चयन की प्रक्रिया से हुआ है।
डार्विन ने वालेस को अपने साथ मिलकर काम करने के लिए आमंत्रित किया। कुछ समय बाद डार्विन और वालेस ने मिलकर ब्रिटेन की एक साइंस सोसाइटी के सामने ‘थ्योरी ऑफ़ इवोल्यूशन थ्रू नेचुरल सिलेक्शन’ पर जॉइंट पेपर प्रस्तुत किया। इसके लगभग एक साल बाद डार्विन ने अपनी प्रसिद्द पुस्तक ‘ओरिजिन ऑफ़ स्पीशीज़’ प्रकाशित की।
डार्विन और वालेस के इवोल्यूशन के सिद्धांत से जो लोग सबसे अधिक उत्साहित हुए वे थे उस दौर के नास्तिक भौतिकवादी वैज्ञानिक। उन्हें लगा कि इवोल्यूशन के सिद्धांत से उन्होने धर्म और ईश्वर पर विजय प्राप्त कर ली है। पवित्र बाइबिल के सृजन के सिद्धांत को झुठला दिया है, चर्च की सत्ता को चुनौती दे दी है। कोई सृजनकर्ता ईश्वर नहीं है। पृथ्वी अरबों वर्ष पुरानी है न कि कुछ हज़ार वर्ष पुरानी जैसा कि चर्च उन्हें बताता आया है। पृथ्वी पर अरबों वर्षों से जीवन का क्रमिक विकास हो रहा है। कोई ईश्वर नहीं है जिसने मनुष्य को अपनी छवि में बनाया है। लेकिन दिलचस्प बात यह थी कि डार्विन स्वयं एक धार्मिक व्यक्ति थे।
आरंभिक दिनों में तो वे एक परम्परावादी ईसाई और सच्चे आस्थावान थे। प्रभु यीशु पर उनकी अटूट आस्था थी। उनकी पत्नी एमा उनसे भी अधिक धार्मिक और आस्थावान थी। किन्तु समय के साथ डार्विन की आस्था कमज़ोर होती गई। उनकी आस्था को सबसे बड़ा झटका लगा उनकी सबसे बड़ी संतान एनी की दस वर्ष की अल्पायु में मृत्यु से। डार्विन ने एनी के जीवन के लिए प्रभु यीशु से बहुत प्राथनाएँ की थीं किन्तु एनी बच नहीं पाई। एनी की मृत्यु का सदमा डार्विन आसानी से सह नहीं पाए। वे शारीरिक रूप से और अधिक अस्वस्थ और कुछ कुछ मानसिक रूप से भी बीमार हो गए।
साथ ही उनका यह विश्वास भी बन गया कि पृथ्वी पर जीवन और मृत्यु में ईश्वर का कोई योगदान और हस्तक्षेप नहीं है। यह बात उनके वैज्ञानिक अध्ययन से भी मेल खाती थी। किन्तु बावजूद इसके डार्विन कभी पूर्ण नास्तिक नहीं हुए। ईश्वर पर किसी न किसी रूप में उनकी आस्था बनी रही। लेकिन अपने वैज्ञानिक अध्ययन को उन्होने अपनी आस्था से अलग ही रखा। उनका मत यही रहा कि पृथ्वी पर इवोल्यूशन या क्रमिक विकास पूर्णतः भौतिक है और उसमें किसी ईश्वर या दैवीय शक्ति का हस्तक्षेप नहीं है।
किन्तु डार्विन के विपरीत वालेस मानते थे कि इवोल्यूशन या क्रमिक विकास पूर्णत भौतिक नहीं है और उसका एक आध्यात्मिक आयाम भी है। वालेस का मानना था कि वनमानुष और मनुष्य की बुद्धि और चेतना के बीच जो बहुत बड़ा अंतर है उसे मात्र मस्तिष्क की भौतिक संरचना के आधार पर स्पष्ट नहीं किया जा सकता। वालेस का मानना था कि मनुष्य के मस्तिष्क में वनमानुष की तुलना में कहीं बहुत ऊँचे स्तर की आध्यात्मिक चेतना आकर मिलती है और वही मनुष्य की उच्च स्तर की मेधा का कारण है।
वालेस का यह आध्यात्मिक मत उस समय के नास्तिक और भौतिकवादी वैज्ञानिकों को रास नहीं आया, और न ही उनके बाद आए उनसे भी अधिक नास्तिक और भौतिकवादी वैज्ञानिकों को पसंद आया। अपने आध्यात्मिक विचारों का खामियाज़ा वालेस को भरना पड़ा। धीरे धीरे विज्ञान जगत ने उन्हें भुला दिया। इवोल्यूशन के सिद्धांत का सम्पूर्ण श्रेय डार्विन को मिल गया।
मगर आज हमारे समय के सबसे बड़े भौतिक वैज्ञानिक और फिजिक्स के नोबल पुरस्कार विजेता रॉजर पेनरोज़ लगभग वही कह रहे हैं जो कि अल्फ्रेड रुसेल वालेस का मानना था। रॉजर पेनरोज़ का चेतना का सिद्धांत भी यही कहता है कि चेतना मस्तिष्क की उपज नहीं है। चेतना ब्रह्माण्ड के मूल में है जहाँ से वह मस्तिष्क में क्वांटम कॉलेप्स के द्वारा आती है।
मगर रॉजर पेनरोज़ विज्ञान जगत में नास्तिक और भौतिकवादी वैज्ञानिकों के दबदबे को भली-भांति समझते हैं इसलिए वे चेतना के ब्रह्माण्ड के मूल में होने की बात करते हुए भी अध्यात्म, आत्मा या स्पिरिट जैसे किसी शब्द का इस्तेमाल करने से कतराते हैं। आज की मूल धारा के वैज्ञानिकों के विपरीत उनका मानना है कि सृष्टि की रचना अपने आप और अकारण नहीं हुई है। वे मानते हैं कि सृष्टि के मूल में कुछ बहुत ही गूढ़ है जिसकी अभी तक हमें समझ नहीं है किन्तु वे उसे किसी ईश्वर या परमात्मा का नाम देने से परहेज़ करते हैं।
(संदीप नैयर की फेसबुक वाल से साभार)