पुस्तकः ब्यूरोक्रेसी का बिगुल और शहनाई प्यार की (2020 – उपन्यास); लेखकः अनिल गान्धी; पृष्ठ संख्याः 339; मूल्यः ₹315/– मात्र; प्रकाशकः नोशन प्रेस, मयलापुर, चेन्नई, तमिलनाडु-600004.
अफ़सरशाही के तेज़ स्वरों में हो सकता है कि प्यार के स्वर सुनाई न दें। या यह भी कहा जा सकता है कि दो वाद्य यंत्रों की जुगलबंदी में अगर साम्य न हो तो बजाने और सुनने वाले को आनंद न आए। स्वार्थ चाहे व्यक्तिगत हो या शारीरिक, इंसान सारे खेल इसी के इर्द-गिर्द बुनता है। कारण कोई भी हो, अंततः सारी योजनाओं का क्रियान्वयन, इसकी पूर्ति के बाद मिली सुखद अनुभूतियों के लिए होता है। लेखक ने अपने अनुभवों को अफ़सरशाही और प्रेम के इर्द-गिर्द रोचक तरीके से बुनकर पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है।
उपन्यास का मुख्य पुरुष पात्र नील टीचर होने के साथ-साथ थिएटर आर्टिस्ट भी हैं।  मुख्य स्त्री पात्र अलका आर्य दलित ब्यूरोक्रेट है। उनकी साहित्य में रुचि है। दोनों ही थिएटर के प्रति प्रतिबद्ध और अनुशासित हैं। इसके अलावा उपन्यास में काफ़ी पात्र है, जो कथानक को आगे बढ़ाने में सहयोग करते हैं।
उपन्यास की शुरुआत नील सोनी के वी.आर.एस. लेने के दो महीने बाद भी पेंशन, ग्रेच्युटी, कंप्यूटेशन और इंश्योरेंस से जुड़ी कार्यवाही, प्रशासनिक अधिकारियों की नौकरशाही के तले दबी हुई है, इस तथ्य से होती है।
नील के पेंशन और मिले हुए रुपयों की प्राइवेट बैंक में एफ.डी.  से जुड़े सभी काम, अलका की वज़ह से बहुत सुगमता से हो जाते हैं। अलका की ईमानदारी पूरे महकमें में ज़ाहिर है। अलका एक जगह नील को बोलती है…
“अगर आप भ्रष्ट हैं तो आपको मिलेंगे मलाईदार महकमे। अगर ईमानदार हैं तो ऐसे काम मिलते रहते हैं। जाओ जी, फ़ॉरेन डेलीगेशन के विज़िट का समन्वय करो….”
अलका नील के साथ एक और बात साझा करती है जिसमें महिला मंत्री उससे कहती है…“न खाती हो न खाने देती है। कलंक हैं आप मेरे मंत्रालय में।” अब बताओं कलंक कौन था। अगले ही दिन तबादला हो गया।…
अलका के किए उपकारों तले नील कृतज्ञ है। और वह उसकी किसी भी बात को टाल नहीं पाता। दोनों एकल हैं। नील के बच्चे ईशा और केशव विदेश में नौकरी कर रहे हैं। उनकी बातें और विचार पूर्णतः व्यवहारिक और विदेशी संस्कृति में रचे बसे हुए हैं। पिता की अलका के साथ तेजी से बढ़ती हुई दोस्ती बच्चों को असहज करती है।  उन्हें इंडियन ब्यूरोक्रेट्स का ईमानदार होना, नहीं पचता। वह अपने पिता को विभिन्न सलाह देकर सचेत करते हैं, ताकि भविष्य में कोई मुश्किल खड़ी न  हो।
बच्चों की सलाहनुसार दोनों शादी से पहले आठ महीने डेटिंग की पालना करने पर विचार करते हैं। ताकि फाइनल निर्णय पर पहुँचने से पहले एक दूसरे को जान ले। मगर समय से पहले लिव-इन में रहने लगते हैं। वयस्क होने के बाद भी कुछ भावनाओं पर जोर नहीं चलता, सहज चित्रण है।
युवावस्था को पार कर चुके इन दोनों आशिकों को छोटे शहरों की सोच से भी रूबरू होना पड़ता है, साथ ही खुद के जज्बातों से भी लड़ना पड़ता है। यही बातें उन्हें जल्द विवाह करने की सोच पर ले आती हैं। मगर अलका का अप्रत्याशित व्यवहार और अफसरशाही, नील को जल्दी निर्णय न लेने के लिए सचेत करता  है। नील अलका को पत्नी सुमन की बरसी तक रुकने का कहता है।
आज लोग पश्चिमी संस्कृति का अनुसरण कर स्वच्छंदता और स्पेस की बातें करते हैं। मगर सच यही है कि कुछ रिश्ते हर बात को सहजता और सरलता से स्वीकार नहीं पाते। एक जगह अलका नील को बोलती है…
“समझने की कोशिश करो नील जिस स्पर्श की बात मैं कर रही हूँ उसकी तड़प पच्चीस वर्षों से मुझे तरसा रही है। अंततोगत्वा पुरुष पुरुष ही रहेगा। उसके शब्दकोक्ष में स्पर्श की तड़प का अर्थ ‘संभोग’ ही होगा।…”
अलका की कुंठाएं जब नील को बार-बार आहत करती हैं,  वह दूर जाने की कोशिश करता है। मगर असल में ऐसा नहीं कर पाता क्योंकि उसके एहसानों तले दबा उसका समर्पित मन साथ रहने पर मज़बूर है। उसे कहीं न कहीं स्त्री देह का सुख और अलका का प्रभावी व्यक्तित्व भी रुकने को कहता है। तभी वो उसके मनमाने आधिपत्य जमाने पर भी स्वीकृति देता है।
दरअसल अफसरशाह और टीचर के बीच प्रेम का बिगुल बजना चाहता है, मगर वह आज के दौर जैसा सतही है। यहाँ शारीरिक संबंध किसी भावनात्मक जुड़ाव की वज़ह से नहीं बनते बल्कि समय और जरूरत की वज़ह से बनते हुए दर्शाए  गये हैं। जो ज़रूरत पूरी होते ही खत्म हो जाते हैं, तभी किसी पात्र को मलाल नहीं होता। पात्र बहुत सहजता से मूव-ऑन कर जाते हैं। आज की आधुनिकता का यही परिदृश्य है। तभी तो समाज में रिश्तो में विघटन या अन्य समस्याओं की उपस्थिति है।
जीवन में आठ स्त्रियों से संबंध रहने के बाद नील सहज है। अलका के भी चार पुरुषों से संबंध बने। जिन्होंने उसे सिर्फ़ शोषित किया। दोनों पात्र अपना इतिहास साझा कर आगे बढ़ने को तत्पर हैं। इस साझा करने में उत्सुकता, बेचैनी, बहस,लड़ाई-झगड़ा और संघर्ष सबका मिश्रण नजर आता है। नील स्पष्ट बोलता है, मगर अलका को उसकी स्पष्टता में खुद के लिए असुरक्षा नज़र आती है।
एक और नील की युवा संतान गलत-सही बातों के लिए सचेत करती है। दूसरी ओर बेटी ईशा अलका की मदद के लिए भी तैयार हो जाती है। ताकि उसके पापा और अलका के बीच दूरियाँ नजदीकियों में बदल जाए।
बच्चों के किन्हीं बातों पर विरोध करने पर नील सुमन की सेक्स के प्रति उदासीनता की बखिया उधेड़कर, खुद को दोषमुक्त करने की कोशिश करता है। छप्पन का होने के बाद भी उसका अपने मन पर जोर नहीं है। साथ ही जब हिंदुस्तानी चश्मे से खुद का आकलन करता है तो आत्मग्लानि भी महसूस करता है। हरेक को अपने लिए स्वच्छंदता चाहिए मगर पति-पत्नी जैसे रिश्ते में स्वच्छंदता कैसे स्वीकारे, यह प्रश्न सामने आकर विद्रोह करवाता है।
उपन्यास में नौकरशाही व थिएटर के माहौल को अच्छे से चित्रित किया है। हर बात का ब्यौरा बहुत खुलेपन के साथ है।  स्त्री पात्र पुरुषों पात्रों की तरह सबल है। जिन्हें हर तरह की छूट है। चाहे वह नौकरानी कमली या कांता हो या फिर अन्य कोई भी महिला पात्र।
अलका बहुत संघर्ष के बाद अफसर पद पर पहुंची है। पैदाइशी लेबल से उबरने में उसकी जीवटता मददगार बनती है। किसी भी व्यक्ति को उसकी औकात याद दिलाने में वह समय नहीं लेती।  ब्यूरोक्रेट बनने के बाद भी अलका अपने रंग, जाति की कुंठा और अकेलेपन से जूझ रही है। तभी वो नील को बोलती है..“मैं काली जरूर हूँ मगर इतनी भी काली नहीं कि तुम मुझसे डरो।…”
नील उसे कहता भी है… आज तुम अपने एकाकीपन से डरती हो, कल दाम्पत्य जीवन से डरोगी। और अलका अब मेरा डर सुन लों- तुम्हारी भड़ास निकलेगी केवल मुझ पर,.. अभी हमारी मुलाकात एक महीना  पुरानी है। इसको एक प्यारे से सपने की तरह सँजो कर रखेंगे। आप तथ्य और सत्य से दूर नहीं भाग सकते।”
पाठकों को अंत तक बार-बार यह महसूस होगा कि दोनों विवाह करेंगे भी या नहीं। ईशा की मदद से दोनों विवाह के बाद अपनी क्रिएटिव जर्नी साथ-साथ करने का फैसला लेते हैं।
उपन्यास सरकारी महकमे और समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, जाति की जड़ें, रंगमंच अवर्ण और सवर्ण  के बीच की खाई और हीन भावना के अलावा, स्वयं आरक्षित वर्ग के बीच पसरे भेदभाव, शोषण और असुरक्षा की परतों को बहुत तरीके से खोलता है। दलित वर्ग के साथ लेखक की संवेदनाएं दिखाई देती हैं। बुद्धिजीवी सोच में सोशल ड्रिंकिंग माहौल बनाने का हिस्सा दर्शाया गया है।
कथानक का स्वच्छंद वातावरण युवा वर्ग को आकर्षित करेगा। सरल सहज शब्दों में संवाद लिखे गए हैं। भाषा पर कहीं पर भी कोई अंकुश लगाने  की कोशिश नहीं की गई है। एक ही पैराग्राफ में बहुत जगह दो पात्रों के संवाद साथ चलते हैं जो भ्रम पैदा करते हैं। उपन्यास में रोचकता के साथ खिंचाव भी है। कुल मिला कर पठनीय उपन्यास है जिसके लिए लेखक अनिल गांधी को मेरा साधुवाद।
प्रगति गुप्ता, ई-मेलः pragatigupta.raj@gmail.com

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