सागर घन बनते रहे, और शिलाएँ रेत ।
चिरस्थायी कुछ नहीं, समय करे संकेत ।।
समय कसौटी पर कसे, करता रहता जाँच ।
साबित करता वक्त ही, क्या हीरा, क्या काँच ।।
जिनका सरल स्वभाव है, मिलता उन्हें दुलार ।
सागर सूखें प्रेम के, देख कुटिल व्यवहार ।।
जिनका सृजन सुहावना, वे मन लेते मोह ।
बढ़ता जाता सहज ही, उनसे निस्पृह छोह ।।
बहती है जीवन नदी, अपने ही अनुसार ।
युक्ति, कुशलता, संतुलन, सहज कराते पार ।।
धन की मूढ़ अधीनता, देती मन के रोग ।
नेह-गंध से जो भरें, वही सयाने लोग ।।
तुच्छ हुए सम्बन्ध अब, सब धन के आधीन ।
भावों को तीली दिखा, मानव हुआ मशीन ।।
अनुभव देकर उम्र ने, ऐसा किया निहाल ।
एक मौन के सामने, हारे सौ वाचाल ।।
करें भलाई लोक की, बना प्रेम को सत्व ।
जो परहित में विष पिये, पाता वही शिवत्व ।।
ध्येय, धैर्य, धुन,ढंग,श्रम, रहते जिसके पास ।
समयशिला के वक्ष पर, लिखता वह इतिहास ।।
त्रिलोक सिंह ठकुरेला समकालीन छंद-आधारित कविता के चर्चित नाम हैं. चार पुस्तकें प्रकाशित. आधा दर्जन पुस्तकों का संपादन. अनेक सम्मानों से सम्मानित. संपर्क - trilokthakurela@gmail.com

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