1.
पद की गरिमा के बनें, झूठे दावेदार.
प्रिय है मिथ्या चाटुता, मिथ्या ही सत्कार.
2.
औरों की श्री कीर्ति का, कब रखते वे ध्यान?
कृपाकांक्षी हैं स्वयं, बनते कृपानिधान.
3.
थाली के बैंगन सदृश, कभी दूर या पास.
आखिर उनकी बात पर, कैसे हो विश्वास?
4.
उनकी बातें चुभ रहीं, चुभता हर संदेश.
पद- मद में जो चूर हैं, वही बढ़ाते क्लेश.
 5.
करते वे अपमान हैं, खुद बन कर भगवान.
याद न क्यों रहता उन्हें? समय बड़ा बलवान.
रश्मि ‘लहर’
इक्षुपुरी काॅलोनी
लखनऊ, उत्तर प्रदेश

1 टिप्पणी

  1. अच्छे दोहे हैं लक्ष्मी जी आपके लेकिन फिर भी पहले दोहे में चाटुता शब्द खटक रहा है।
    दूसरे दोहे के तीसरे पद में दो मात्राएँ कम हैं अत: इसमें मात्रा दोष आ रहा है ।अगर आप ‘वे’ शब्द जोड़ दें-” वे स्वयं” तो यह दोष खत्म हो जाएगा।

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