यूँ तो इस कोटड़ी वाले धोरे पर सभी ग्राम वासी होते थे तो स्वाभाविक है कि संवाद भी सभी करते रहे होंगे परन्तु किसने क्या कहा यह स्मरण कर पाना मेरे लिए कठिन है और बहुत अधिक नाम पाठकों में भी भ्रम पैदा करते हैं, इसलिए अधिकांश संवाद सुरा काकू और जगिया के बीच ही रहेंगे | सुरा काकू का जिक्र पहले भी आया है लेकिन आप सभी का उनसे परिचय नहीं हुआ | इसलिए पहले आप सभी का परिचय ‘सुरा काकू’ से करवाता हूँ|
काका से बने काकू शब्द से तो सभी परिचित होंगे | सुरा का अर्थ पाठक मदिरा से नहीं लें | मदिरा में चौबीस घंटे टुन्न रहने वाले काकू भी काफी थे पर ये सुरा काकू कभी वार त्यौहार ही सेवन करते थे | इसलिए इन्हें मदिरापान की वजह से यह नाम नहीं मिला बल्कि मारवाड़ी (राजस्थानी) में सुरा का अर्थ होता है ‘सुगन्धित’ | हालाँकि धूप और आंधियाँ बारह महीने रहती थीं और किसान आदमी को स्नान करने का मौका कम ही मिलता था | स्नान करना भी अपने आप में बहुत मेहनत का काम था | हो सकता है कि कुछ लोगों को मेरी इस बात पर असहमति हो या हँसी आए कि स्नान में कैसी मेहनत ? पर यह सच है क्योंकि यहाँ ऐसा नहीं था कि बाथरूम में नल खोला, फव्वारा ऑन किया या बाथटब में बैठे और भैंस की तरह नहा लिए | यहाँ सौ सौ पुरस (पाँच सौ फीट) गहरे कुएँ में से पानी निकालना और फिर नहाना होता था | इसलिए सभी लोगों की तरह सुरा काकू से भी अक्सर पसीने की बदबू ही आती थी पर अंधे का नाम भी नयनसुख हो सकता है तो बदबू के बावजूद उनका नाम सुरा (खुशबू) रखने में कौन आपत्ति कर सकता था ? वैसे सुरा काकू का असल नाम यह नहीं था | यह नाम तो उन्हें असीम प्रेम करने वाली गाँव की जनता ने दिया था जिसे उन्होंने भी उदार मन से स्वीकार कर लिया था |
हुआ ये कि काकू एक बार बाड़मेर शहर गए | हमारे निकटतम शहर, जिला मुख्यालय बाड़मेर ही था | शहर तो क्या वह भी गाँव ही था पर जिला मुख्यालय की अपने आप में एक इज्जत होती है इसलिए सरकार ने वह इज्जत देने के लिए उसे शहर मान लिया था और सरकार की इज्जत रखने के लिए जनता ने भी उसे शहर कहना शुरू कर दिया था | सुरा काकू जब बस से उतरे और बाड़मेर को शहर घोषित करती एकमात्र चौड़ी और डिवाइडर वाली स्टेशन रोड़ से मुख्य बाजार की तरफ़ बढने लगे तो सड़क के दोनों और कतार से बांस की ओडियों (टोकरियों) में अपनी अपनी दुकान सजाए महिलाएं बैठी थीं | महिलाएं, बूढी, जवान, किशोर सभी उम्र की थीं लेकिन सुरा काकू उस समय जवान थे | आँखें चौंधिया जाए ऐसा सफ़ेद नया तेवटा (धोती जैसा वस्त्र) उतना ही सफेद कमीज़ और केसरिया साफा पहने आगे बढ़े तो उन महिलाओं ने मुस्कराते हुए उनका स्वागत किया | कोई हँसी, कोई मुस्कराई, कोई झुकी पर सुरा काकू किसी को लिफ्ट दिए बिना आगे बढने लगे | क्योंकि उनसे पहले बाड़मेर जाने वाले कुछ लोगों ने बस में बैठने से पहले ही उन्हें आगाह कर दिया था कि वहाँ सड़क किनारे कामणगारियाँ (जादू करने वाली) बैठती हैं | सावधान रहना वे अपने वश में कर लेती हैं और फिर मन चाहा सामान भले वह रद्दी ही क्यों नहीं हो, बेच देती हैं |
सुरा काकू को सामान बेचने या खरीदने की उतनी फ़िक्र नहीं थी जितना एक और वहम था | वो इसलिए कि सुरा काकू न सिर्फ शास्तर-वास्तर पढ़ते थे बल्कि वे भगत (भक्त) आदमी भी थे | भजन-वजन भी करते थे और कथा वगेरह में भी वार त्यौहार जाते रहते थे | एक बार किसी भजन मंडली में उन्होंने वो किस्सा सुना था जिसमें गुरु गोरखनाथ जी कहते हैं, ‘जाग मच्छंदर गोरख आया’ | उस किस्से के अनुसार मत्स्येन्द्र नाथ जी अपने शिष्य गोरक्ष नाथ जी को ज्ञान देकर कहते हैं कि अब जाकर इसे पूरे भारत में फैलाओ, अलख जगाओ परन्तु एक बात ध्यान रखना कि किसी लोभ के वशीभूत होकर मेरे दिए हुए इस ज्ञान, सिद्धियों और शक्तियों का दुरूपयोग मत करना वरना ज्ञान और शक्तियाँ तुम्हारे पास नहीं रहेंगे | गोरख नाथ जी ने तो ऐसा कुछ नहीं किया परन्तु दुर्भाग्य से यह गलती स्वयं गुरु से हो गयी | वे कामरू देश (कामरूप-कामख्या, असम) की जादूगरनियों के सम्पर्क में आ जाते हैं | कहते हैं कि उन कामणगारियों (जादूगरनियों) को जो पुरुष पसंद आ गया उसे वे वश में कर लेती हैं | फिर चाहती तो वे उसे गुलाम बनाकर रखती और मन होता तो पशु पक्षी भी बना लेती थीं | मत्स्येन्द्र नाथ जी को वे जादूगरनियां पक्षी बनाकर कैद कर लेती हैं | इधर गोरखनाथ जी वापस गुरु के पास जाते हैं तो वे नहीं मिलते हैं | उन्हें जैसे ही जादूगरनियों का किस्सा पता लगता है वे वहां जाते हैं लेकिन उनके यहाँ इतना सख्त पहरा होता है कि किसी पुरुष का वहां तक पहुंचना असंभव होता है | तब वे गुरु की दी हुई शक्तियों से पक्षी बनकर भीतर जाते हैं और अपनी सूक्ष्म दृष्टि से वहां पक्षी बना दिए गए गुरु को पहचान लेते हैं लेकिन गुरु की शक्तियाँ नष्ट हो चुकी होती हैं तो वे गोरख को नहीं पहचान पाते | तब गोरख नाथ जी कहते हैं:- ‘जाग मच्छंदर गोरख आया’ | अचानक गुरु उन्हें पहचानते हैं | गोरखनाथ जी उन्हें लेकर बाहर आते हैं और फिर से इन्सान में बदलते हैं | इस तरह वे अपने गुरु को उन जादूगरनियों से मुक्त कराते हैं | इस कथा के अंत मैं काकू ने ही तन्दुरे के तार छेड़ते हुए कहा था- ‘साधो साधो’ और सामने बैठे भजनी कूंपजी बा ने कहा था- ‘जय गोरख जय गोरख’ |
यह कथा सुनने के बाद सुरा काकू ने इस विषय पर काफ़ी खोजबीन की थी | उन्हें ज्ञात हुआ कि कामरु देश कामरूप का अपभ्रंश है । कहते हैं कि कामरूप देश का जिक्र रामायण, महाभारत और पुराणों में भी है । ईस्वी सन 350 से 1140 तक यानी लगभग 800 वर्षों तक कामरूप देश बड़ा समृद्ध राज्य रहा । 12 वीं शताब्दी के बाद वह कई राज्यों में विभक्त हो गया और उसका महत्त्व कम हो गया ।
वर्तमान में तो वह असम का एक जिला मात्र रह गया है लेकिन नीलशैल पर्वतमालाओं पर स्थित माँ भगवती कामख्या का सिद्ध शक्तिपीठ सती के इक्यावन शक्तिपीठों में सर्वोच्च स्थान रखता है । यहीं भगवती की महामुद्रा (योनि-कुण्ड) है । मान्यता है कि जो इंसान जीवन में तीन बार इसके दर्शन कर लेते हैं उन्हें सांसारिक भव बंधन से मुक्ति मिल जाती है । प्रतिवर्ष आम्बुवाची पर्व पर जब माँ तीन दिन के लिए रजस्वला होती है, तब काले जादू को सिद्ध करने के लिए आज भी दुनिया भर के तान्त्रिक यहाँ आते हैं ।
कामरू देश की जानकारी लेते हुए काकू को एक और कहानी ज्ञात हुई | वह इस प्रकार थी कि कामरूप देश में ही एक छोटा-सा शहर है, ‘धुबड़ी’ । कहा जाता है कि यह नेताई धुबुरीन के नाम पर बसा है, जो कभी काला जादू की प्रमुख जादूगरनी थी । उसके आतंक का आलम यह था कि जब राजा मान सिंह के पोते और औरंगजेब के सेनापति राजा राम सिंह की कैद से छत्रपति शिवाजी महाराज और उनके पुत्र आजाद हो गये तो औरंगजेब ने सजा स्वरूप उन्हें और उनकी पलटन को असम पर आधिपत्य करने के लिए फरमान सुनाया। सुनते ही सब कांप गये । वहां जाएं तो नेताई धुबुरीन से बचना मुश्किल और नहीं जाएं तो बादशाह की नाफरमानी का कोप।
तब राजा राम सिंह ने सिखों के नौवें गुरु तेग बहादुर सिंह के पास जाकर अरदास की | उन्हें साथ चलने का अनुरोध किया । गुरु ने यह प्रस्ताव इसलिए स्वीकार कर लिया क्योंकि वे उस भूमि का दर्शन करना चाहते थे जहां गुरु नानक देव ने असम की कला, साहित्य जन-जीवन को गहराई से जाना था, समझा था, वहाँ रुके थे और तपस्या की थी । गुरु वहाँ गए भी और उनका सहयोग भी किया । कहते हैं कि धुबुरीन जीवन में पहली बार किसी से पराजित हुई । उसकी काले जादू की शक्तियां गुरु तेगबहादुर की आध्यात्मिक शक्तियों के सामने पराजित हईं। इससे पूर्व किसी भी मुगल, अफगान या अन्य शासकों की हिम्मत नहीं हुई कि उन जादूगरनियों के कामरू देश में जाकर राज करने की सोचे |
इतना कुछ जानने के बाद उस काले जादू का साया काकू के साये से चिपक कर हर समय उनके साथ रहने लगा | इसलिए काकू को यह वहम था कि ये बाड़मेर की कामणगारियां भी अगर वैसा कोई जादू जानती हैं और उन्हें कैद कर लिया या पंछी बना दिया तो उनका क्या होगा ? उनके लिए न तो कोई गोरखनाथ जी और न ही कोई गुरु तेगबहादुर सिंह जी आने वाले हैं | इसलिए झुकती हईं किशोरियों के दर्शनलाभ का लालच मन में दबाए वे दाएं बाएँ देखे बिना आगे बढ़ते गए |
जहाँ पंक्ति खत्म हो रही थी वहां तक के लिए मन में जय हनुमान ज्ञान गुण सागर, जय कपीस तिहूँ लोक उजागर, भूत पिशाच निकट नहीं आवे महावीर जब नाम सुनावे…गुनगुनाते हुए आगे बढ़ रहे थे | आँखें लगभग बंद थीं, बस इतनी सी खुली थीं कि धुंधली सड़क दिखती रहे ताकि ठोकर खाकर किसी की ओडी (टोकरी) में ना गिरे | जब उन्हें अनुमान हुआ कि अब पंक्ति खत्म हो गई है, तब उन्होंने दोनों आँखें खोली |
पंक्ति के आखिर में बैठी खूबसूरत किशोरी अपनी मोतियों जैसी ऊजली दंत पंक्ति निकाल सुरा काकू को दावत दे रही थी | हनुमान जी का नाम लेते हुए, अंगूठे और तर्जनी से दोनों कानों का निचला भाग छूते हुए काकू आगे बढने लगे तो अपनी बड़ी बड़ी आँखों पर धीरे से पलकों को गिराते हुए बोली:- ‘बन्ना सा इतना सा काम भी ना करेंगे इस नाचीज़ का ?’ फिर आगे की तरफ यूँ झुकी जैसे किसी पहाड़ी से झरना गिर रहा हो | कातिल मुस्कराहट के साथ बोली:- ‘और कुछ नहीं तो एक इत्र की शीशी तो ले ही लें |’ खुद के गले पर हाथ रखते हुए बोली:- ‘कसम खाकर कहती हूँ शादीसुदा हैं तो इस खुशबू के लोभ में भाभीसा कभी पीहर नहीं जाएगी और कुंवारे हैं तो जो भी सूंघेगी आपकी हो जाएगी |’ उसके हाव भाव देखकर और बातें सुनकर काकू को लगा जैसे उन्होंने कई दिनों से पानी नहीं पिया है और गला सूख रहा है | काकू ने दो बार थूक गटका | ऐसा उन्होंने सूखे गले को तर करने के लिए किया या फिर इस चराचर जगत में चारों तरफ व्याप्त भय जो इस समय उन्हें निगलने को आतुर था, उस भय को निगल जाने के उद्देश्य से किया यह ठीक से वे स्वयं भी नहीं जान पाए थे लेकिन इतना जरुर था कि ऐसा करने के बाद उन्हें कुछ तसल्ली जरुर हुई | इससे पहले कंठ सूखा हुआ था और उस कामणगारी की तरफ बढ़ते हुए कदम लड़खड़ा रहे थे | इसलिए ऐसा करके कुछ साहस बटोरना आवश्यक था | इतने साहस के बाद अब पंक्ति के आखिर में बैठी उस लड़की के पास जाने से सुरा काकू को न तो हनुमान जी रोक पाए, न ही मत्स्येन्द्र नाथ जी की दुःख गाथा और न राजा रामसिंह की दुविधा | काकू हनुमान चालीसा को छोड़ कर चच्चा ग़ालिब जैसे शायरों की पूरी जमात को याद करते हुए, ‘मैं बर्बाद होने आया हूँ तेरे दर पे…’ ऐसी कोई ग़ज़ल मन में गुनगुनाते हुए उस किशोरी की ओडी के सामने पहुँच कर बैठ गए |
उसने आँख से इशारा करते हुए पूछा:- “क्या दिखाऊँ ?” काकू शर्माते हुए बोले:- “अभी तो बस इत्र की शीशी |” वो हँसी और इत्र दिखाने लगी | बीस रूपये से लेकर दो रूपये तक के सारे तरह के इत्र उसने दिखाए | काकू ने अपनी जेब जिसे वे बस में भी पांच सात बार टटोल चुके थे, एक बार फिर टटोली और अंदाज़ लगाया कि जरूरत का सामान खरीदने और वापसी के बस भाड़े के बाद मुश्किल से दो चार रूपये बचेंगे | इसलिए उन्होंने तय किया कि आखिर में दिखाई गयी ‘नागचम्पा’ की सबसे छोटी शीशी ही उनके बजट में बैठेगी | उन्होंने उसी का मोल भाव किया तो वह एक रूपये में देने को तैयार हो गयी | फिर उन्हें अनुभवी लोगों की बताई युक्ति याद आई और ‘महंगी है’ कह उठकर जाने लगे | पीछे से आवाज़ देते हुए वह लड़की फिर से बोली बन्ना बारह आना में लेनी हो तो ले लो इससे कम नहीं होंगे | काकू वापस आए, जेब से फटाफट पच्चीस पैसे के तीन सिक्के निकाल कर दिए और वह इत्र की शीशी लेकर जाने लगे | अभी तक घबराहट, भय और मोल भाव में उलझे काकू अब जब जाने लगे तो कुछ सहज हुए | उनका तन आगे बढ़ रहा था लेकिन मन पीछे रह गया था | वह अब भी उस सौन्दर्य में अटका हुआ था | अचानक ऐसा लगा जैसे उनके पैरों में बेड़ियाँ डाल दी गई हों | लड़की पीछे रह गई थी लेकिन उसकी कामणगारी आँखें, उसके चमकते दांत, उसकी खनकती हँसी और उसका झुका हुआ बदन अब भी सुरा काकू के सामने हवा में तैर रहे थे | प्रत्यक्ष देखने की गरज से काकू पीछे मुड़े | उन्हें यकीन था कि लड़की उसी गर्मजोशी से उनका स्वागत करेगी लेकिन वह लड़की अब चुपचाप बिना किसी हलचल के एकदम सीधी बैठी थी | किसी योगिनी की भांति निर्लिप्त भाव से बैठी उस लड़की के होठों पर कोई मुस्कराहट नहीं थी और ऐसा लग रहा था जैसे काकू को जानती भी नहीं हो | कई बार किसी के कहे को जितना कहा गया है हम उससे कुछ ज्यादा समझ लेते हैं, इस बात को समझे बिना काकू ‘हूँ ह बेवफ़ा कहीं की…’ कहते हुए आगे बढ़ गए और वो लड़की किसी नए ग्राहक को इत्र बेचने के इतंजार में वहीं बैठी रह गयी |
बाजार में काकू ने मंगवाया गया सामान खरीदा | एक कट्टे में बांधा और दुकान से बाहर निकलते समय शर्माते हुए सेठजी से बोले:- “थोड़ी रुई देना |” रुई सामान्यतया दीया बाती के काम ली जाती थी | इसलिए सेठजी ने पूछा, ‘माचीस भी चाहिए ?’ काकू के इंकार में दायें बायें गर्दन हिलाई तो सेठजी ने आखिरी बचे माचीस को निकालते हुए उस पैकेट में थोड़ी सी रुई डाल काकू को पकड़ा दी | काकू के जाने पर सेठजी मन ही मन काफी देर तक काकू के रुई मांगते समय शर्माने के राज का पर्दाफास करने की कोशिश करते रहे पर हिसाब किताब और जासूसी दो अलग अलग विषय हैं, इसलिए उन्हें कुछ समझ नहीं आया |
उधर काकू ने सेठजी की आँखों से ओझल होते ही कंधे को अपने भार से कष्ट देते सामान के कट्टे से बदला लेने के लिए उसे सड़क किनारे पटका और उस पर बैठ गए | उन्होंने शर्माते हुए, झुकी नजरों की कनखियों से दांयें बांयें देखा कि कोई उन्हें देख तो नहीं रहा है ? फिर जेब से रुपयों से भी सुरक्षित रखी हुई उस कामणगारी की दी हुई इत्र की शीशी निकाली | दूसरी जेब से सेठजी की दी हुई रुई निकाली | थोड़ी सी रुई ली और उसे इत्र से गीला कर फूंबा (फाहा) बनाकर कान में ठूंस दिया | उन्होंने एक बार फिर से चारों तरफ कनखियों से देखा कि कोई देख तो नहीं रहा है ? आश्वस्त होने पर दोनों चीजें अपनी दोनों जेब में रखी और मन ही मन शहर की तारीफ़ की कि यहाँ के लोग कितने सभ्य हैं | दूसरों के काम में टांग नहीं अड़ाते हैं | गाँव में होता तो अभी तक न जाने कितने ही लोग पंचायती करने आ जाते और सवालों की झड़ी लगा देते, जैसे इत्र क्यों लगा रहा है ? कहाँ से लाया ? कितने का लाया ? इत्र लगाकर कहाँ जाएगा ? या फिर मुफ्त की सलाह देने लग जाते, जैसे इत्र लगाने से कुछ नहीं होता, मर्द का बच्चा बन या इससे भूतनी-चुड़ेल लग जाती हैं आदि आदि | खैर, ऐसा कोई सवाल या सलाह तो क्या यहाँ तो इतनी भीड़ में से किसी ने देखा भी नहीं | हालांकि काकू जिस बात के लिए शहर की तारीफ कर रहे थे उसी शहर की इस अनदेखी ने उन्हें थोड़ा उदास भी किया | इत्र से ‘नागचम्पा’ की खुशबू बहुत अच्छी आ रही थी और काकू ने मन ही मन अंदाज़ लगाया कि लगभग आधा कोस तक तो आराम से फैलती होगी |
तभी अंग्रेजों के जमाने का कोई ट्रक निकला, उसने इतना धुँआ फैंका कि वह ट्रक भी नहीं देखा जा सकता था | वह धुँआ नागचम्पा की सारी खुशबू पी गया | इस धुंए से हताश होकर काकू ने अपना रास्ता बदल लिया | उन्होंने तय किया कि मुख्य सड़क से होते हुए जाने की बजाय राय कोलोनी से होते हुए बस ठेसन (स्टेशन) जायेंगे |
काकू नागचम्पा की खुशबू और कामणगारी की आँखों में खोए हुए राय कोलोनी की संकड़ी गलियों से होते हुए निकल रहे थे कि अचानक उनके दिल के तार वीणा के तारों की तरह झंकृत हो उठे | किसी दो मंजिले मकान की प्रथम मंजिल के कमरे की बालकोनी में खड़ी नवयोवना की हँसी से झर झर झरता शहद बरस रहा था | काकू ठिठक कर अपनी जगह खड़े हो गए और उस शहद का आस्वादन करने लगे | हिरणी जैसे काजल लगे उसके खूबसूरत नयन अपलक काकू को निहारे जा रहे थे | अचानक हुई इस घटना से काकू स्तब्ध थे | उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए ? बहुत देर बाद उन्हें याद आया कि उन्होंने इतनी देर से साँस भी नहीं ली है, तब उन्होंने एक लम्बी आह भरी और फिर से ऊपर देखा | ठीक उसी वक़्त उस नवयोवना का पति आकर उसके निकट खड़ा हो गया | अब काकू के पास आगे बढने के सिवाय कोई चारा नहीं था | काकू के मन में जितना प्रेम इस नवयोवना के लिए उमड़ा था उतनी ही श्रद्धा इत्र देने वाली उस कामणगारी के प्रति जागी | उन्होंने उस इत्र वाली लड़की को बेवफ़ा कहा था, वह सर्टिफिकेट मन ही मन कैंसिल किया और शुक्रिया कहा | आखिर यह उस नागचम्पा के इत्र की खुशबू का कमाल ही तो था कि वह नवयोवना इस तरह आकर्षित हुई थी | हालाँकि काकू ने आँखें चौंधियाते अपने नवीन श्वेत वस्त्रों, केसरिया साफ़े, बिच्छु के डंक जैसी अपनी मूंछों, शरीर सोष्ठव और खूबसूरती को भी आकर्षण का कारण माना लेकिन सर्वाधिक नम्बर उस कामणगारी के इत्र को ही दिए |
काकू ने अगले दिन कोटड़ी वाले धोरे पर यह बात सुनाई कि छोरी ने ऐसा सुरा अंतर (खुशबूदार इत्र) दिया कि मेरे तो भाग्य खुल गए | फिर उन्होंने विस्तार से वह कहानी सुनाई कि किस तरह उस इत्र की खुशबू से बाड़मेर की राय कोलोनी में वह घटना घटित हुई | थोड़ी सी उसमें गप्प जोड़ दी थी कि इस नागचम्पा की सुगन्ध के वशीभूत होकर उस नवयोवना ने मेरे को इशारा करके रोका, नाम पता पूछा, काफी देर बातें करती रही और फिर कभी चाय पर आने का बोल कर विदाई दी |
सभी लोग इसे पूरा सच मान लेते लेकिन तभी अन्य काकू ने उनकी इस बात का पुरजोर विरोध किया | ये वे ही काकू थे जिन्हें लगता था उम्मेद भवन पैलेस सेवासदन से बेहतर तो क्या ही होगा लेकिन तब सुरा काकू ने सबके सामने साबित कर दिया था कि कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली | बात सच थी, कहाँ तो दुनिया की सबसे श्रेष्ठ होटलों में सुमार उम्मेद भवन पैलेस और कहाँ वह बाड़मेर की धर्मशाला सेवासदन | फिर भी आदमी को इससे फर्क नहीं पड़ता कि वह सच्चा है या झूठा, अगर कोई उसे झूठा साबित कर दे या बेइज्जत कर दे तो वह बदला लेने की फिराक में रहता है | इन काकू को आज ऐसा अवसर मिल गया था | उन्होंने अपनी कुटिल मुस्कान से सुरा काकू को जता दिया कि पुतर इस दुनिया में समय सभी का आता है | उस दिन मैं मौन साधे मन ही मन कह रहा था कि अपना टाइम आएगा | वह आज आ गया है | अब देख मेरा जलवा | कैसे मैं तेरे इस किले को ध्वस्त करके तेरी भी बेइज्जती करता हूँ |
बात चूँकि उन काकू के दिल में गहराई तक चुभी हुई थी इसलिए यह संसद या विधानसभा में स्वयं को विपक्षी साबित करने के लिए झूठमूठ का विरोध किया जाता है वैसा दिखाने वाला विरोध नहीं था बल्कि पूरी ईमानदारी से विरोध किया गया | उन्होंने कहा कि काकू के पीछे पीछे सड़क के दूसरे किनारे वो भी आ रहे थे | उस महिला ने काकू को रोका नहीं था | बातें करना या चाय का निमन्त्रण वगेरह भी गप्प है | वह बालकोनी में आई तब क्षण भर के लिए उसकी नजर इस गेले (बेवकूफ़) पर चली गयी जिसे इसने प्यार समझ लिया | उनका कहना था कि मैं सड़क के दूसरे किनारे था इसलिए मुझे साफ़ दिख रहा था कि कमरे के अंदर वे पति पत्नी एक दूसरे से हँसी मजाक कर रहे थे | हँसते हँसते वह बाहर आ गयी थी और पीछे पीछे उसके पति, बस इतनी सी बात हुई थी | जहाँ तक इत्र के ज्यादा सुरा होने की बात है तो बता दूँ कि रोड़ की उस तरफ मुझे भी उसकी खुशबू नहीं आयी तो पहली मंजिल तक क्या खाक पहुंची होगी ?
सुरा काकू ने इन काकू द्वारा किए गए इस खंडन का खंडन किया | पहला, वे अपनी बात पर अड़े रहे कि मैंने जो कहा सच कहा है | दूसरा, उन्होंने धोरे पर बैठे सभी सदस्यों से आग्रह किया कि इसने मुझे गेला (बेवकूफ़) कहा है, जो गलत है | मैं आप लोगों को कहीं से गेला दिखता हूँ ? तीसरा, उन्होंने कहा ये वहां था ही नहीं, होता तो मुझे भी तो दिखता |
सभी सदस्य जानते थे कि सुरा काकू की बौद्धिक क्षमता और ज्ञान पर अविश्वास नहीं किया जा सकता है | हालाँकि उनका यह भी मत था कि प्यार मोहब्बत की बात जरा अलग है, इसमें कई बार समझदार आदमी भी बेवकूफ़ बन जाता है | फिर भी सभी सदस्यों का झुकाव और दबाव सुरा काकू की तरफ होने के कारण गेला कहे जाने की बात पर दूसरे काकू ने माफ़ी मांगकर अपने शब्द वापस ले लिए | सुरा काकू को समझदार घोषित किए जाने के बाद अब आगे की कार्यवाही शुरू की गयी | तीसरे तथ्य यानि दूसरे काकू वहीं थे यह साबित किए बिना पहली बात यानि सुरा काकू की बात को झूठा कहने का कोई अर्थ नहीं निकलता था इसलिए सदन ने पहले उनसे वहां होने के सुबूत मांगे | दूसरे काकू ने उस घटना का समय, उस महिला की साड़ी का रंग, उसके पति के कमीज़ का रंग, बालकोनी की जाली का रंग ऐसे कई सुबूत बताए जिनसे सुरा काकू ने सहमती जताई तो सदन ने सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया कि वे दोनों शख्स उस दिन बाड़मेर की राय कोलोनी में थे, जब यह घटना घटित हुई |
अब कौन कितना सही गलत कह रहा है इस बात की पड़ताल शुरू हुई तो आखिर यह तय हुआ कि चाय का निमन्त्रण या उस महिला से सुरा काकू का बातें किया जाना तो साबित नहीं हो सका, फ़िलहाल यह सत्य था कि वह महिला कमरे में भले ही पति के साथ हँसी मजाक कर रही हो या न कर रही हो परन्तु बालकोनी में आने के बाद काफी देर तक हँसती मुस्कराती रही थी और काफी देर तक उसकी नज़रें सुरा काकू पर टिकी हुई थीं | उसके पति के आने के बाद जब उसने महिला और सुरा काकू दोनों को खारी नज़रों से देखा तो वो पति को देखने लगी और काकू आगे बढ़ गए | हालाँकि ‘उसकी नज़रें सुरा काकू पर टिकी हुई थीं’ न्यायमूर्ति बनी जनता की इस बात पर दूसरे काकू ने ‘ऑब्जेक्शन मीलार्ड’ कहा लेकिन खंडपीठ ने अपने व्यवहार से जता दिया कि ‘ऑब्जेक्शन ओवररुल्ड’ यानि आपको बहुत सुन लिया है अब और नहीं सुनेंगे | यह हमारे निर्णय देने का समय है और आप चुपचाप निर्णय सुनते जाएँ |
खंडपीठ ने यह स्वीकार कर लिया कि उस स्त्री की नज़रें सुरा काकू पर टिकी थी और जहाँ तक इत्र की खुशबू की बात है उसका फूंबा (फाहा) आज भी काकू के कान में था और धोरे पर बैठे सभी लोगों को उसकी खुशबू आ रही थी | असल में उस खुशबू के कारण ही यह सारी चर्चा चल निकली थी | इसलिए यह तय हुआ कि भले ही शहर में गाड़ियों के धुंए के कारण दूसरे काकू को खुशबू न आयी हो या सोतिया डाह की वजह से वे ऐसा कह रहे हों पर सभी ने एक होकर स्वीकार किया कि इत्र की सुगंध अति-उत्तम क्वालिटी की है इसमें कोई दो राय नहीं | इसके बाद सुरा काकू के कान में अक्सर इस इत्र का फूंबा लगा रहता था इसलिए उनका नाम ‘सुरा’ काकू (सुगन्धित काकू) पड़ गया |
एक अच्छी पुस्तक