भजन मंडली भक्ति-रस में आकंठ डूबी है | ढोलक की थाप और मंजीरे की झंकार से भजन गाती महिलाओं के शरीर में थिरकन उमड़ रही है | वे एक-एक करके नृत्य के लिए उठ रही हैं | मीना भी नृत्य के लिए उठती है | उसकी संगमरमरी देह ढोलक की थाप को टंकार में बदलते हुए नागिन-सी लहरा रही है | मीना के उठते ही ढोलकी का उत्साह दुगुना हो जाता है, वह डूबकर बजाता है | मीना की लचकती कमर के साथ ढोलकी की उँगलियाँ भी लचकने लगती हैं | नृत्य मीना करती है, झूमता ढोलकी है |
भजन मंडली से जुड़कर ढोलकी की दुनिया ही बदल गई |
‘ढोलकी’ ! हाँ , भजन गाती महिलाएं उसे ढोलकी ही कहती हैं | यही नाम पड़ गया है उसका अब |
माँ ने ‘चेतन’  रखा था और बड़े प्रेम से रखा था,पर बाद में उसी नाम पर कुढ़ने लगी थीं | दिन भर काहिलों की तरह पड़ा रहता था | चेतना की कोई किरण ही नहीं दिखती थी उसमें | न किसी नौकरी में टिकता था, न किसी धंधे-पानी में | माँ घरों में घूम-घूमकर बरतन मांजकर, झाड़ू पोछा लगा-लगाकर जो कमाती थी वही दोनों का आधार था |
माँ के कड़कते घुटने अब आराम चाहते हैं | बेटे के जन्म लेने से लेकर बड़े होने तक पाली गई सारी उम्मीदें धूल धूसरित होकर उड़ गई हैं |बची है एक गहरी हताशा, और इस हताशा भरे समय में उजालों में भी अँधेरा दिखने लगता है, पर चेतन जैसे शून्य में रह रहा हो, उसे न तो माँ की इच्छाएं दिखती हैं न ही परेशानियाँ | माँ खुद को समझाती है  – ‘अपने ही मरे स्वर्ग देखना है विद्या, खटती रह, दर्द के घूंट पी-पीकर, पीड़ा के कौर खा-खाकर |’
उस दिन शाम की शुरुआत में ही माँ के दिल में अँधियारा उतर आया था | पूरे महीने भर के राशन के पैसे दिये थे माँ ने चेतन के हाथ में, लौटा तो हाथ में ढोलक थी और झोला खाली था | माँ धैर्य खो बैठी | चेतन ढोलक बजाने बैठ गया | माँ की गालियां ढोलक की आवाज में दब गईं | न दबी होती तो भी चेतन को कुछ फर्क नहीं पड़ता – माँ की गालियों की आदत पड़ गई है उसे |
घर में ढोलक के आते ही चेतन का भाग्य जगा था | माँ की गालियों और ढोलक की थापों ने सुनीता ताई को उसके घर लाया –
     ‘किस पर गुस्सा हो रही हो काकी ? … और ये ढोलक कौन बजा रहा है ?’ चेतन के घर में घुसते हुए सुनीता ने आवाज लगाई | सुनीता की आवाज सुनकर घंटे  भर से बेटे पर गुस्सा रही माँ की आवाज और तेज हो गई – ‘क्या कहूँ बिटिया, ऐसा काहिल बेटा पैदा किया है कि इस बुढ़ाई में भी मुझे ही काम करना पड़ रहा है | आने वाली दीवाली को अट्ठाईस का पूरा हो जायेगा, लेकिन जिम्मेदारी समझने का नाम नहीं लेता | अब ढोलक बजाने का एक और शौक पाल लिया है | न जाने कहाँ से सीखा और देखो तो जाकर ढोलक भी खरीद लाया … दिया था मैंने राशन लाने का पैसा, ये निगोड़ा ! ढ़ोल उठा लाया| अब महीने भर क्या बनाऊं ? क्या खुद खाऊं, क्या इसको खिलाऊं ?’
‘बजा तो बहुत अच्छा रहा है, काकी, | उनके गुस्से से निर्लिप्त सुनीता पीछे के कमरे से आ रही आवाज पर मुग्ध है |
‘हाँ, अब तुम लोग गाने-बजाने वाले हो, तुम लोगों को तो अच्छा ही लगेगा , बाकी मेरी तो जान जली जा रही है इस आवाज से  … इस कमबख्त को खाने-कमाने की सुधि नहीं है | मैंने बड़ी चिरौरी की थी तब कहीं जाकर ठेकेदार के यहाँ दो दिन का काम मिला था, पर ये गया ही नहीं |…दूसरों के घरों में बरतन  मांज-मांजकर मेरी हड्डियाँ घिसी जा रही हैं पर इसे कुछ समझ में नहीं आता, कुछ दिखाई नहीं देता | खा लेता है और तनकर सो जाता है | अब ढम-ढम का ये शोर और शुरू कर दिया है मेरे सिर पर |’ माँ के अंतर से दर्द भरी आवाज और हताशा उमड़ रही है |
      ‘अगर तुम्हें खराब न लगे, काकी,तो एक बात कहूँ |’ चारपाई पर बैठते हुए सुनीता ने बात शुरू की |
    ‘ बोलो बिटिया, ख़राब क्यों लगेगा ?’
    ‘ हमारी भजन मंडली में ढोलक बजाने वाला एक भी नहीं है | क्या ये हमारी भजन मंडली में ढोलक बजाएगा ? … कुछ न कुछ कमाई ही होगी काकी |’
    ‘ कमाई की तो न कहो, कमाई से इसे चिढ़ है | फालतू के सारे काम करेगा,लेकिन कमाएगा नहीं |’ माँ अभी भी क्रोध में हैं |
    ‘इक्यावन रुपये और एक नारियल तो पक्का समझो काकी, तुम तो देखती ही हो, हमारी मंडली को हर दिन कहीं न कहीं बुलाया जाता है | नवरात्र और गणेश चतुर्थी आदि त्योहारों में तो एक दिन में दो-दो,तीन-तीन जगह जाना पड़ता है … अगर ये हमारी मंडली से जुड़ जाये तो हमारा भी काम बन जायेगा और इसकी कमाई भी शुरू हो जाएगी | सबसे बड़ी बात तो ये कि इसके मन का काम रहेगा |’
    ‘तुम ही कहो उससे, मैंने तो कसम खा ली है, इसको मैं अब किसी काम के लिए नहीं कहूँगी – पैसा कमाने के लिए तो बिलकुल भी नहीं … क्या फायदा कुछ कहने का, एक कान से सुनता है दूसरे से निकाल देता है |’ माँ की आवाज में व्यग्रता भरी है |
सुनीता पीछे वाले कमरे में जाती है, जहाँ चेतन ढोलक बजा रहा है | चेतन अपनी धुन में है, उसे सुनीता के आने की कोई आहट नहीं होती | सुनीता चेतन को आवाज देती है, पर व्यर्थ | चेतन ताल पे ताल बदल रहा है | सुनीता उसका सिर पकड़ कर हिलाती है तब उसकी तन्द्रा टूटती है और वह चिहुंक कर पूछता है, ‘ कब आईं सुनीता ताई ?’
   ‘ आई तो मैं अभी ही, तुझे आवाज भी दी, पर तू तो रमा है ढोलक में … अच्छा बजाता है |’
    सुनीता के तारीफ भरे शब्दों को सुनकर चेतन संकोच से भर गया |
   ‘ अच्छा ये बता, चेतन,’ सुनीता ने बात आगे बढाई – ‘ढोलक बजाने का काम मिले तो करेगा ?’
    ‘ कहाँ ताई , मुझे कौन ढोलक बजाने का काम देगा |’ चेतन की आवाज में निराशा है |
    ‘ तू हाँ तो कर, काम तो दौड़ कर तेरे पास आएगा … अपनी भजन मंडली तेरे बिना सूनी है, चेतन, बजाएगा भजन मंडली में ?’
‘बिलकुल ताई, |,’ चेतन खुश है | ढोलक खरीदते ही काम मिल गया | दूसरे दिन से सुनीता के साथ जाने भी लगा | अब जाकर जान पाया है चेतन कि वह बना ही ढोलक के लिए था | माँ समझ ही नहीं पाती उसे | बात-बेबात चिढ़ती ही रहती है | अब वह भी दिखा देगा कि जहाँ उसका मन लगता है, डूबकर लगता है, देख ले माँ भी और वो सम्बन्धी भी जो उसे काहिल समझ कर रिश्ते झटक लिए हैं | चेतन जानता है, अब लपकेंगे सब उसकी ओर |
उस दिन के बाद से … आज दो साल हो गए | चेतन भजन मंडली में ढोलक बजाता है | सौ – पचास रुपये भी घर लाने लगा है | अब उसकी माँ खुश रहने लगी है | माँ-बेटे की जिन्दगी की गाड़ी ठीक-ठाक ढंग से खिंच रही है |
मंडली की महिलाएं चेतन को छोटा भाई मानती हैं | वह भी सबको ताई कहता है | महिलाएं चेतन के सामने ही तरह तरह के हंसी-मजाक करती हैं, कभी कभी तो इतना कि चेतन की उपस्थिति को ही नकार देती हैं | पहले-पहल चेतन झेप जाता था,पर अब नहीं | अब तो वह भी मजाक में शामिल हो जाता है और यदि मजाक मीना कर रही हो तो उसका चेहरा चमक जाता है, सर्वांग पुलकित हो जाता है, भले ही वह चेतन का मजाक ही उड़ा रही हो , वह बन जायेगा मजाक,पर मीना ऐसे ही हंसती खिलखिलाती रहे | पति ने छोड़ दिया है बेचारी को ! माँ के पास रहती है | कितना नालायक रहा होगा इसका पति, तभी तो हीरे की कद्र नहीं कर पाया | मीना चेतन को हीरा ही लगती है |
    मीना को भी चेतन पर बड़ा भरोसा है | जब किसी के यहाँ शाम को भजन रहता है तो समाप्त होने में रात हो जाती है | मंडली की सभी महिलाएं एक ही मुहल्ले की हैं, सब एक साथ चली जाती हैं,किंतु मीना दूसरे मुहल्ले से आती है | ऐसे में चेतन ही उसे उसके घर तक छोड़ता है | उसकी साइकिल पर पीछे बैठी मीना अपनी महक से चेतन को सराबोर कर देती है  | उसकी पीठ पर मीना का स्पर्श उसे आभासी संसार में ले जाता है – वो उसके खूबसूरत पल होते हैं , उसका पुरुष जागता है लेकिन उसकी चेतना उसे दबोच कर शांत कर देती है |
   दोस्तों को कहते सुना है चेतन ने कि लडकियों को पीछे बैठाकर एक झटके में ब्रेक लगाओ तो वो पूरी की पूरी पीठ पर लद जाती हैं – उमंग भर आती है शरीर में | पर चेतन इस सोच को झटक देता है| मीना क्या सोचेगी ? कहीं उसकी नजरों से गिर गया तो ! डूबकर मरने जैसी स्थिति हो जाएगी | कितना भरोसा है सब का उसपर, और मीना, वह तो आँख मूंदकर  उसपर भरोसा करती है | मंडली की दूसरी महिलाएं चिढ़ाती हैं उसे – असल भाई तो यह मीना का ही है, हम लोगों को तो ऐसे ही ताई कहता है |
   पर इधर कुछ दिनों से स्थिति बदल गई है | मंडली में मीना कुछ असहज रहने लगी है | उसे लगता है कि जब  वह नाचने उठती है तब ढोलकी की नजरें उसे देख कर भूखी हो जाती हैं | उसने अपने मन की बात सुनीता को भी बताया है |
    आज भी यही हुआ | मीना के उठते ही ढोलकी की उगलियाँ चपल हो गईं | वह झूम-झूमकर ढोलक बजाने लगा | मीना नृत्य और गीत में मगन थी | नृत्य की भंगिमा में उसके हाथ ऊपर उठे तो आंचल भी ऊपर उठ गया | उसी समय मीना की नजरें ढोलकी से टकराईं | ढोलकी मीना को ही निहार रहा था, मीना असहज हो गई और एक झटके में बैठ गई | ढोलकी सम्भला, ढोलक थोड़ी धीमी हुई, लेकिन दूसरी महिलाएं नृत्य कर रही थीं इसलिए उसने बजाना जारी रखा, पर ढोलक की आवाज कुछ सुस्त जरूर हो गई |
     मीना के अचानक बैठने से भजन गाती महिलाएं प्रश्न भरी नजरों से मीना को देखने लगीं | मीना आक्रोश में भरी है | भजन समाप्त होने पर आज फिर सुनीता से शिकायत की – ‘ ताई, या तो ढोलकी बदलो या मुझे|’
    ‘ क्यों भला ? … फिर से तुझे कुछ लगा ?’
    ‘ तुम्हे नहीं दिखता है, ताई ?  …कैसे  घूरता है मुझे नाचते समय ?’
    ‘ऐसा नहीं है, मीना | वो बड़ा सीधा है … तू कुछ जादा ही सोच रही है | मैं तुझे कितनी बार बोल   चुकी हूँ … तू बहुत अच्छा नाचती है, मीना, इसलिए वह अच्छी ताल देता है … खुश होकर तुझे देखता है … घर जाकर आराम कर और ये बात मन से निकाल दे |’
    ‘ नहीं ताई, तुम हमेशा यही कहती हो, पर अब नहीं … मैं नहीं आ पाऊँगी |’
    ‘ अरे नहीं, मीना, ऐसा मत बोल …तू आएगी | मैं उसे भी तो कुछ नहीं कह सकती मीना, वह मेरा पड़ोसी है | बचपन से उसे जानती हूँ | क्या कहकर हटाऊँगी उसे ! गरीब है | घर में पड़ा रहता था … जब से यहाँ आने लगा है उसकी कुछ कमाई होने लगी है | उसके दिल में, उसके घर में कुछ ख़ुशी आ गई है, मीना  |’
    ‘तुम्हे क्या करना है, तुम देखो ताई, …वैसे भी मैं एक हप्ते के लिए बाहर जा रही हूँ, लौटने पर देखूंगी |’ मीना के दो टूक जवाब से सुनीता असमंजस में है |
      हप्ते भर बाद मीना लौटी है | ट्रेन डेढ़ घंटे लेट हो गई है | रात के साढ़े ग्यारह बज रहे हैं | बाहर एक भी रिक्शा नहीं है | वैसे तो मीना का घर स्टेशन से दो किलोमीटर की दूरी पर ही है, पर इतनी रात को ! अकेली ! पैदल कैसे जाये  !!
एक हाथ में अपना सामान उठाये वह स्टेशन से बाहर निकली | सड़क सुनसान है | औरतें एक भी नहीं दिख रही हैं, अलबत्ता कुछ आदमी जरूर दिखाई दे रहे हैं | इक्का- दुक्का स्कूटर,मोटरसाइकिल और कारें भी गुजर रही हैं | पैदल चलने वालों में एकाध पिए हुए भी दिख रहे हैं | मीना भीतर ही भीतर डरती हुई आगे बढ़ी |
नुक्कड़ पर कुछ लोग खड़े हैं | मीना ने अपने कदम तेज कर लिए | वह वहाँ से अतिशीघ्र निकल जाना चाहती है | पीछे से आवाज आई – ‘मीना ताई,’
  मीना आवाज से डरी, चौंक कर पीछे पलटी – अरे, ढोलकी ! यहाँ !!
  मीना उसे नकारते हुए फिर से आगे बढ़ी, पर ढोलकी ने बड़ी दृढ़ता से उसे रोका |
मीना रुक गई, ढोलकी पास आया,  ‘ताई, आज ऑटो वालों की स्ट्राइक है | चलो मैं चलता हूँ तुम्हारे साथ |’ ढोलकी के साथ उसका एक मित्र भी आ गया है |
      ‘नहीं ढोलकी, – मीना भीतर तक काँप गई – इसकी नजर तो पहले से ही खराब है … इसके साथ जाना खतरे से खाली नहीं है | मीना पूरी कोशिश भर उसे मना करती है, ढोलकी  पूरी दृढ़ता भर उससे  कहता है-
      ‘इतनी  रात को अकेली कैसे जाओगी ताई, मैं चलूँगा साथ|’
मीना मन ही मन खीझती है – अपनी खराब नीयत को छुपाने के लिए ताई कहता है … चालबाज कहीं का |
 मीना फिर मना करती है, पर ढोलकी नहीं मानता और साथ चल पड़ता है |
मीना सतर्क हो गई है | ढोलकी और उसका मित्र चुपचाप आगे-आगे चल रहे हैं |
मीना चौकन्नी होकर उन दोनों के पीछे भाग सकने की एक सुरक्षित दूरी बनाये हुए चल रही है | उसके दिमाग में तरह-तरह की आशंकाएं घर बना रही हैं – अगर ढोलकी पीछे पलटा तो ! … पीछे की ओर मुड़कर भागूंगी … अब, इस जगह पलटा तो ! … इस गली में घुस जाऊँगी | ये दो हैं ,मैं अकेली | कितना भागूंगी ! कैसे भागूंगी! … सड़क पर कुछ दूर तक लाइट नहीं है, अँधेरा है | मीना का दिल धक् से हो गया – दोनों ने यहाँ कुछ किया तो ! कुछ दूर तक कोई बस्ती भी नहीं है … चिल्लाने पर भी यहाँ कोई नहीं सुनेगा … सामान फेंक कर दोनों पर झपट पडूँगी … अंतिम पल तक जूझूंगी  – सम्भावित खतरों से निपटने के लिए हर संभव खुद को तैयार करती हुई वह दोनों के पीछे-पीछे चलती हुई अपने घर के सामने तक पहुंच गई | उसकी सांसे सम्भली |
    ढोलकी उसे पहुँचा कर, बिना वहाँ क्षण भर रुके लौटने के लिए मुड़ गया | अब तक ढोलकी से डरी मीना घर के सामने पहुंचकर राहत की साँस ले ही रही थी कि अचानक उसका ध्यान ढोलकी के आज के व्यवहार पर गया – अरे, ये क्या ! ढोलकी ने हमेशा की तरह आज उससे बात नहीं की – न कोई हाल-चाल , न हंसी-मजाक ! पहुंचाया और बिना कुछ कहे पलट लिया ! जब तक वह सम्भलती, उससे कुछ कहती, वह काफी आगे निकल चुका था | मीना ठगी –सी रह गई … तो क्या सुनीता ताई ने उसे सब कुछ बता दिया ! कहा तो मीना ने ही था, पर उसे बताने के लिए नहीं, उसे हटाने के लिए | … कहीं सुनीता ताई ने उसे हटा तो नहीं दिया ! एक टीस उभरी मन में …! चाहती तो यही थी मीना,पर आज … बदल रहे हैं उसके विचार | वह प्रार्थना कर रही है – ईश्वर करें ऐसा न हुआ हो | इतना गलत क्यों समझा उसे ! सुनीता ताई कितना समझा रही थीं,पर उनकी एक न सुनी वह, अब कल जाकर माफ़ी मांग लेगी उनसे |
   ढोलकी के जाने के बाद मीना घर के भीतर गई, हाथ-पैर धुले ,पानी पिया और माँ के साथ खाना खाकर बिस्तर पर लेट गई | बार-बार ढोलकी ही याद आ रहा था | कैसे लौट गया जल्दी से ! बिना माँ से मिले ! पहले तो बिना मेरे कहे ही घर में घुस आता था और घंटों माँ से बतियाता रहता था | बिना चाय पिए, बिना कुछ खाए कभी लौटा था क्या घर से !! पर आज …कितनी जल्दी मची थी उसे ! विचारों में उलझी देर रात तक सो पाई थी मीना |
     दोपहर का समय है, बरसात होकर बीती है | वातावरण में उमस भरी गर्मी तारी है जो आलस को बढ़ा रही है, किंतु भजन मंडली इन सब से बेखबर अपने पूरे जोश में देवी के भजन में लीन है | उन  सब के बीच बैठी मीना बस नाम भर का साथ दे रही है | आते ही उसे झटका लगा था – ढोलकी की जगह दूसरा व्यक्ति !  तो सुनीता ताई ने हटा ही दिया उसे ! चाहती तो यही थी मीना, फिर क्यों भीतर तक टीस उठ रही है उसके ! क्यों मन कर रहा है कि सुनीता ताई के गले लगकर जी भरकर रो ले, कह दे कि ढोलकी को वापस ले आओ |
    महिलाएं नृत्य के लिए उठीं तो मीना का भी हाथ पकड़कर खींच ले गईं |
मीना नाच रही है, लेकिन न तो ढोलक की ताल से उसके पैर उठ रहे हैं न ही कमर में वैसी लहर भर रही है | मन अनमना-सा हो चला है | निर्जीव-सी वह बस हाथ-पैर हिला रही है | मन में ग्लानि भरी जा रही है |
    … ढोलक बजाने वाला पूरी तान में है | उसकी ओर देखते ही मीना के मन में गहरा सूनापन उतर आता है और वह  एक झटके में नीचे बैठ जाती है |
कई कहानी-संग्रह, कविता-संग्रह आदि प्रकाशित तथा विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में भी कहानियां, लेख, यात्रा – वृत्तांत एवं कविताएँ प्रकाशित. महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी का मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार प्राप्त. महाराष्ट्र में निवास. संपर्क - ashapandey286@gmail.com

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