जब साहिर फ़िल्मों से जुड़े तो उन्होंने अपनी साहित्यिक कृतियों का इस्तेमाल हिन्दी सिनेमा में भी किया। 1950 से 1970 का काल एक ऐसा काल था जब मजरूह सुल्तानपुरी, राजा मेहदी अली ख़ान, शकील बदायुनी, हसरत जयपुरी, कैफ़ी आज़मी, राजेन्द्र कृष्ण, जांनिसार अख़्तर, क़मर जलालाबादी जैसे शायर सिनेमा में लिख रहे थे तो दीनानाथ मधोक, पंडित प्रदीप, नरेन्द्र शर्मा, शैलेन्द्र, इंदीवर जैसे गीतकार भी सक्रिय थे। जिस काल में इतना गुणवत्ता से भरपूर लिखा जा रहा हो वहां गीतकारों का सरताज बन पाना आसान काम नहीं था।
साहिर लुधियानवी का जन्म 08 मार्च 1921 को अब्दुल हयी के रूप में हुआ था। उनके पिता ज़मींदार थे और साहिर की माँ उनकी ग्यारहवीं बीवी थीं। उनकी जीवनी पर तो बहुत से लेख मिल जाते हैं। उनकी साहित्यिक कृतियों पर भी बहुत लिखा गया है। कुछ मित्रों ने फ़िल्मी गीतों पर भी क़लम चलाई है। मेरा अपना मत यह है कि जिस भी विषय पर फ़िल्मों में साहिर लुधियानवी ने लिख दिया, उस विषय पर उससे बेहतर कभी नहीं लिखा गया।
साहिर के गीत कुछ इस तरह से मुहावरे बन गये जैसे कि शेक्सपीयर की कुछ पंक्तियां अंग्रेज़ी में। फ़िल्मों में आने से पहले साहिर लुधियानवी उर्दू अदब के एक प्रतिष्ठित शायर बन चुके थे। उन्होंने अपनी शायरी में जीवन की विसंगतियों को बहुत ख़ूबसूरती से उकेरा। उनकी नज़में और ग़ज़लें समान रूप से लोकप्रिय हुईं। यह सोच कर हैरानी भी होती है कि यदि साहिर लुधियानवी पाकिस्तान छोड़ कर भारत न आते तो हिन्दी सिनेमा के गीतों का कितना नुक़्सान होता।
जब साहिर फ़िल्मों से जुड़े तो उन्होंने अपनी साहित्यिक कृतियों का इस्तेमाल हिन्दी सिनेमा में भी किया। 1950 से 1970 का काल एक ऐसा काल था जब मजरूह सुल्तानपुरी, राजा मेहदी अली ख़ान, शकील बदायुनी, हसरत जयपुरी, कैफ़ी आज़मी, राजेन्द्र कृष्ण, जांनिसार अख़्तर, क़मर जलालाबादी जैसे शायर सिनेमा में लिख रहे थे तो दीनानाथ मधोक, पंडित प्रदीप, नरेन्द्र शर्मा, शैलेन्द्र, इंदीवर जैसे गीतकार भी सक्रिय थे। जिस काल में इतना गुणवत्ता से भरपूर लिखा जा रहा हो वहां गीतकारों का सरताज बन पाना आसान काम नहीं था।
वैसे तो साहिर लुधियानवी ने नज़में, ग़ज़लें, नग़में, भजन, देशप्रेम और कव्वाली यानि कि सभी विधाओं में श्रेष्ठतम रचनाएं दीं, मगर उनके फ़िल्मी लेखन की एक ख़ासियत ऐसी भी है जिस पर अभी आलोचकों का ध्यान कम गया है। जब हिन्दी साहित्य में अभी नारी-विमर्श की कल्पना भी नहीं की गयी थी, साहिर लुधियानवी अपने फ़िल्मी नग़मों में नारी को लेकर इतना गहरा और संवदेनाओँ से भरपूर लिख रहे थे कि यह कहना अनुचित न होगा कि नारी विमर्श की गंभीर शुरूआत उन्हीं के गीतों से मानी जा सकती है।
यह भी एक संयोग ही कहा जा सकता है कि साहिर लुधियानवी का जन्म उसी दिन हुआ जिस दिन अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है। ज़ाहिर है कि हमें साहिर की शायरी में नारी से जुड़ा लेखन अवश्य देखने को मिलेगा। और इस 8 मार्च को उनकी जन्म शताब्दी भी है। तो साहिर की शायरी में लययुक्त नारी विमर्श का अवलोकन करने का प्रयास हम भी करते हैं।
साहिर ने अपना बेहतरीन काम गुरूदत्त और बी.आर. चोपड़ा की फ़िल्मों में किया। बाद में साहिर के जीवित रहने तक यश चोपड़ा की हर फ़िल्म में भी उन्हीं के गीत होते थे। 1957 की फ़िल्म प्यासा में साहिर ने शायद पहली बार नारी की वेदना को सही मायने में प्रस्तुत किया। जिस इलाक़े में जिस्मों के सौदे किये जाते हैं उनके बारे में लिखाः
“ये पुरपेच गलियाँ, ये बदनाम बाज़ार ये ग़ुमनाम राही, ये सिक्कों की झन्कार ये इस्मत के सौदे, ये सौदों पे तकरार जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं
वो उजले दरीचों में पायल की छन-छन थकी-हारी साँसों पे तबले की धन-धन ये बेरूह कमरों में खाँसी की ठन-ठन जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं
जवानी भटकती है बद-कार बन कर जवाँ जिस्म सजते हैं बाज़ार बन कर यहाँ प्यार होता है व्योपार बन कर ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है”
1958 में बी.आऱ. चोपड़ा की फ़िल्म ‘साधना’ में साहिर लुधियानवी ने पूरे समाज के सामने एक चुनौती भरा सवाल खड़ा कर दिया। औरत की समाज में क्या स्थिति उस समय थी, उसका सबस महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है यह गीत –
“औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया जब जी चाहा मसला कुचला, जब जी चाहा दुत्कार दिया। … … … मर्दों ने बनायीं जो रस्में, उनको हक़ का फ़रमान कहा औरत के ज़िंदा जलने को, क़ुर्बानी और बलिदान कहा, क़िस्मत के बदले रोटी दी, और उसको भी एहसान कहा।”
1955 में बिमल रॉय की फ़िल्म ‘देवदास’ में चन्द्रमुखी के मुँह से साहिर लुधियानवी उस समय की नृतकी की ज़िन्दगी का अफ़साना चन्द शब्दों में बयान कर देते हैः
“मैं वो फूल हूँ कि जिसको गया हर कोई मसल के मेरी उम्र बह गई है मेरे आँसुओं में ढल के जो बहार बन के बरसे वह घटा कहाँ से लाऊँ जिसे तू क़ुबूल कर ले वो अदा कहाँ से लाऊँ तेरे दिल को जो लुभाए वह सदा कहाँ से लाऊँ…”
अपनी इस सोच को साहिर लुधियानवी बी.आर. चोपड़ा की फ़िल्म ‘इन्साफ़ का तराज़ू’ में भी मार्मिक अभिव्यक्ति देते हैः
लोग औरत को फ़क़त जिस्म समझ लेते हैं रूह भी होती है उस में, ये कहाँ सोचते हैं रूह क्या होती है इससे उन्हें मतलब ही नहीं वो तो बस तन के तकाज़ों का कहा मानते हैं रूह मर जाती हैं तो ये जिस्म है चलती हुई लाश इस हक़ीकत को न समझते हैं न पहचानते हैं कितनी सदियों से ये वहशत का चलन जारी है कितनी सदियों से है क़ायम ये गुनाहों का रिवाज
साहिर लुधियानवी ने स्त्री पर प्रेमिका, माँ, बहन, बेटी, वेश्या हर रूप में क़लम चलाई है।
एक प्रेमिका के रूप में उनकी शायरी में खनक भी है और नख़रा भी तो वहीं अलग हो जाने का ग़म भी।
“मिलती है ज़िन्दगी में मुहब्बत कभी कभी होती है दिलबरों की इनायत कभी कभी”
मगर जब इश्क में न मिल पाने का दुख शामिल हो जाता है तो उनका प्रेमी तो आसानी से कह देता है –
“चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों…”
“वो अफ़साना जिसे अन्जान तक लाना न हो मुमकिन उसे इक ख़ूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा।”
मगर प्रेमिका की सोच अपने प्रेमी से एकदम अलग है। प्रेमिका अपने दिल का दर्द कुछ यूं बयान करती है –
“तुम मुझे भूल भी जाओ, तो ये हक़ है तुमको मेरी बात और है मैने तो मुहब्बत की है…”
फ़िल्म मुझे जीने दो की माँ अपने बेटे को दुआ देते हुए भी भीतर से डरी हुई है। उसे मालूम है कि बेटा एक डाकू का पुत्र है। पूरा समाज उसके विरुद्ध होगा। बड़ा होकर वह डाकू का बेटा कहलाएगा। माँ के रूप में वहीदा रहमान पर्दे पर साहिर के शब्द गाती हैं –
“तेरे बचपन को जवानी की दुआ देती हूँ और दुआ देके परेशान सी हो जाती हूँ मेरे मुन्ने मेरे गुलज़ार के नन्हें पौधे तुझको हालात की आँधी से बचाने के लिये आज मैं प्यार के आँचल में छुपा लेती हूँ कल ये कमज़ोर सहारा भी न हासिल होगा कल तुझे काँटों भरी राह पे चलना होगा ज़िन्दगानी की कड़ी धूप में जलना होगा तेरे बचपन को जवानी की दुआ देती हूं….”
फ़िल्म ‘त्रिशूल’ की माँ का दर्द अलग ही किस्म का है। उसका प्रेमी उसे गर्भवती करके उसे छोड़ गया है। उसने किसी अमीर लड़की से अपने माँ बाप की मर्ज़ी के हिसाब से विवाह कर लिया है। अपनी ग़ैरकानूनी औलाद की परवरिश करती हुई माँ कहती है –
“तू मेरे साथ रहेगा मुन्ने, ताकि तू जान सके तुझको परवान चढ़ाने के लिये कितने संगीन मराहिल से तेरी माँ गुज़री कितने पाँव मेरी ममता के कलेजे पे पड़े कितने ख़ंजर मेरी आँखों, मेरे कानों में गड़े…”
ये पंक्तियां पढ़ते हुए लगता है जैसे साहिर की अपनी माँ उन्हें ये सब कह रही है। साहिर की परवरिश में उसकी माँ को कितनी कठिनाइयां उठानी पड़ी होंगी।
गीतकार जावेद अख़्तर अपने संघर्ष के दिनों में साहिर साहब के काफ़ी करीबी थे। साहिर साहब को शायद इसलिये भी जावेद अख़्तर से स्नेह था क्योंकि वे जांनिसार अख़्तर के बेटे थे। जावेद अख़्तर का कहना ह कि साहिर साहब हर बात में अपनी माँ से सलाह लेते थे। यहाँ तक कि वे किस जगह कौन से कपड़े पहन कर जाएं, इस पर भी माँ की सलाह चलती थी।
जब एक बेटी के आगमन की बात होती है तो फ़िल्म कभी-कभी में साहिर के शब्दों में रुई के एक नर्म फाहे का सा अहसास उभर आता है –
“मेरे घर आई एक नन्हीं कली चान्दनी के हसीन रथ पे सवार…
उसके आने से मेरे आँगन में खिल उठे फूल, गुनगुनाई बहार देख कर उसको जी नहीं भरता चाहे देखूँ उसे हज़ारों बार चाहे देखूँ उसे हज़ारों बार”
साहिर लुधियानवी ने फ़िल्म चित्रलेखा में तो जीवन का पूरा फ़लसफ़ा ही एक नृतकी के मुंह से कहलवाया है। योगी कुमारगिरी को आईना दिखाते हुए चित्रलेखा साहिर के शब्दों का सटीक इस्तेमाल करती है और उसके पाखण्ड का पर्दाफ़ाश करती है –
“संसार से भागे फिरते हो, भगवान को तुम क्या पाओगे इस लोक को भी अपना न सके, उस लोक में भी पछताओगे ये पाप है क्या, ये पुण्य है क्या, रीतों पे धरम की मुहरें हैं हर युग में बदलते धर्मों को कैसे आदर्श बनाओगे ये भोग भी एक तपस्या है, तुम त्याग के मारे क्या जानो अपमान रचयिता का होगा, रचना को अगर ठुकराओगे।”
आम तौर पर देखा गया है कि साहिर लुधियानवी ने अपने जीवन के तल्ख़ अनुभवों को अपने पाठकों और श्रोताओं के साथ बांटा है। साहिर ने कहा भी है, “दुनिया ने तर्जुबा-ओ हवादिस की शकल में,/ जो कुछ मुझे दिया है, लौटा रहा हूँ मैं।’’
मगर फिर भी एक ऐसी फ़िल्म है जिसमें साहिर लुधियानवी ने एक ऐसी सुबह की कल्पना की है जो आज से बेहतर होगी। नारी को लेकर उस सुबह के बारे में साहिर का कहना है –
दौलत के लिये जब औरत की इस्मत को न बेचा जाएगा चाहत को न कुचला जाएगा, इज़्ज़त को न बेचा जाएगा अपनी काली करतूतों पर जब ये दुनिया शरमाएगी वो सुबह कभी तो आएगी, वो सुबह कभी तो आएगी।
मेरा मानना है कि साहिर लुधियानवी की शायरी के साथ कोई संपादकीय या लेख कभी भी न्याय नहीं कर सकते। मगर यह एक प्रयास है कि हम जान सकें कि नारी को लेकर क्या सोच थी सदी के महान फ़िल्मी शायर साहिर लुधियानवी की।
बहुत ही सुन्दर संपादकीय ।साहिर जी के विषय में जो नहीं पता था, वह भी पता चला। सिनेमा और साहित्य का खूबसूरत संगम इस संपादकीय में दृष्टिगत हो रहा है।आपको हार्दिक बधाई।
शब्दों के जादूगर साहिर के साहित्य का एक अनोखा दृष्टिकोण और उनके जीवन में महिलाओं के स्थान पर विहंगम दृष्टि डालता हुआ यह आलेख सहज ही महिला दिवस और उनकी जन्म शताब्दी पर श्रेष्ठ वैचारिक श्रद्धा सुमन हैं।
हार्दिक साधुवाद सहित।
बहुत अच्छा संपादकीय भाई। जानकारी से भरपूर। सिनेमा और साहित्य पर आपका चिंतन सराहनीय है।
हार्दिक आभार भाई हरिमोहन जी।
बहुत बढ़िया …साहिर लुधियानवी का अधिकतर गीत बहुत गहरे है। बहुत बढ़िया संपादकीय..हार्दिक शुभकामनाएं
प्रगति जी हार्दिक आभार।
आपके सम्पादकीय ने महान् शायर साहिर की लेखनी के साथ भरपूर न्याय किया है। हार्दिक साधुवाद स्वीकारें।
सराहना के लिए आभार आदरणीय।
बहुत ही सुन्दर संपादकीय ।साहिर जी के विषय में जो नहीं पता था, वह भी पता चला। सिनेमा और साहित्य का खूबसूरत संगम इस संपादकीय में दृष्टिगत हो रहा है।आपको हार्दिक बधाई।
आभार निशा जी।
बहुत खूब । बढ़िया संपादकीय । अच्छी जानकारी मिली । शुक्रिया
शुक्रिया डॉक्टर प्रीत
शब्दों के जादूगर साहिर के साहित्य का एक अनोखा दृष्टिकोण और उनके जीवन में महिलाओं के स्थान पर विहंगम दृष्टि डालता हुआ यह आलेख सहज ही महिला दिवस और उनकी जन्म शताब्दी पर श्रेष्ठ वैचारिक श्रद्धा सुमन हैं।
हार्दिक साधुवाद सहित।
आभार विरेंदर भाई।
साहिर लुधियानवी के गीतों में छुपी प्रत्येक सम्वेदनाओं पर आपका मनन लाज़वाब है ।साधुवाद
प्रयास की सराहना के लिए आभार प्रभा जी।