Monday, October 14, 2024
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वंदना पाण्डेय की लघुकथा – अघोरी

मेरे कस्बे के बाहर अभी कुछ दिनों से एक अघोरी धूनी रमा रहा था..। वेशभूषा वही….सर पर जटाएँ… नेत्र जैसे दो सुर्ख अंगारे चेहरे पर जड़े हों….पूरे शरीर में राख का लेप, हाथ में एक डंडा और गले में लटकी हुयी इंसान की खोपड़ी….

लोग कहते हैं श्मशान में धूनी रमाता है…। जिन्न को सिद्ध किये है….कभी कभी दरवाजे पर आकर गम्भीर, रहस्यमयी आवाज मे उद्घोष सा करते  थे “अलख निरंजन”….। मै उन्हें यथासाध्य कुछ भोजन की व्यवस्था कर देती थी…। कुछ विशेष दिनों मे वो अपने स्थान से कहीं और प्रस्थान कर जाते …जैसे अमावस्या, पूर्णिमा य किसी त्योहार के आस-पास..। मुझे उनके रहस्यमय क्रियाकलापों के प्रति उत्सुकता रहती थी…। कुछ पूछने की कोशिश करूँ तो बोलते  ,”माँ अपनी गृहस्थी देख”..।

उनके शान्त चेहरे से भी क्रोध सा टपकता रहता था..।

एक बार मेरे थोड़ा ढिढायी  से पूछने पर दहाड़ उठे, “माँ मैं शव साधना करता हूँ शमशान में…..। देखता हूँ तू कितनी निडर है…। अमावस्या को रात्रि के दूसरे प्रहर मे साधना करता हूँ… आ जाना… किसी एक को साथ मे भी ला सकती है..।”

मेरे मन मे भय व रोमांच का अद्भुत सम्मिश्रण मुझे रोमांचित व उद्वेलित कर रहा था…। पता नही क्यों… पर मै अघोरी पर विश्वास भी कर रही थी…। मैं रात्रि के दूसरे प्रहर निश्चित समय पर एक दोस्त फोटोग्राफर के साथ नदी के किनारे श्मशानघाट पर पहुंँच गयी…। घनघोर अंधेरा…. हाथ को हाथ नही सूझ रहा था….। पास में ही एक अधबुझी चिता से धीमें धीमें धुआँ  निकल रहा था….।

अघोरी की गंभीर धीमी आवाज गूँजी….,”यहाँ..बैठो…” अघोरी ने हमदोनों को एक बड़े से वृत्त के अंदर बिठा कर निर्देश दिया….,”कुछ भी हो.. तुमदोनों इस वृत्त से बाहर नही निकलोगे.. जब तक मै न कहूँ…”

किसी की चिता की राख पर आसन जमा कर उन्होंने जो अबूझे से मंत्रोच्चार शुरू किये तो भयाक्रांत होकर हमदोनों की आंखें फट गईं….।

मंत्रोच्चार के साथ साथ कभी पीला सिंदूर कभी चिता की राख, कभी मदिरा अपने इष्ट को समर्पित कर रहे थे
धीमें धीमें हमें मधुमक्खियों का समवेत स्वर सुनाई पड़ने लगा…. जो क्रमशः तेज होता गया…।

अघोरी के मंत्र हमारे लिये अबूझ थे…बस अंत मे उनका मंत्र( फट्टः )पर समाप्त होता था…। उस अघोरी का स्वर उच्च से उच्चतम होता जा रहा था…। धीमें धीमें पानी के बुलबलों सी आकृतियाँ प्रकट होने लगीं…. ऐसा लग रहा था… वृत्त के अन्दर बैठे हुये हमदोनों उन आत्माओं के लिये अदृष्य थे…. उन आत्माओं ने नृत्य करना शुरु कर दिया… उनके साथ अघोरी भी नृत्य करने लगा…..।

नृत्य करते करते उसने मुर्गे की बलि चढ़ा दी…और उसके रक्त को कंकाल की खोपड़ी मे भर कर उन आकृतियों पर छिड़कने लगा… वह उन्मत्त होकर नाच रहा था… नाचते नाचते वह रक्त को अपने ऊपर छिड़कने लगा…..बाकी बचा हुआ रक्त खुद पीकर अचेत होकर गिर पड़ा…

चारों तरफ धुंध छा गई… सारा वातावरण विलुप्त हो गया…। अर्धचेतनावस्था मे भी हम वो सारा दृश्य देख व महसूस कर पा रहे थे..परन्तु शरीर जड़ बन चुका था…।

सूर्य की पहली किरण के साथ हमदोनों की आँखें खुली…हमदोनों अचेतन से नदी के किनारे भीगे हुये पड़े थे…
अघोरी का कहीं नामोनिशान नही था…लग ही नही रहा था कि पिछली रात्रि को वहाँ कुछ वीभत्स हुआ था…।
पता नही कैसे हमदोनों घर आये…।किसी तरह स्नान करके सीधे घर के मंदिर में प्रवेश कर गये…।

एक हफ्ते बाद  जब होश ठिकाने आये… तो कैमरा खोल कर देखा…तो कैमरे मेंं न अघोरी था, न उसके मंत्र , न पानी के बुलबुलों जैसी आकृतियाँ….अगर था तो सिर्फ मधुमक्खियों का भयानक गुंजार…।

उस दिन के बाद वो अघोरी मुझे फिर कभी नही दिखा…
कुछ दिन बाद हम वो कैमरा उसी नदी में प्रवाहित कर आये और मंजर को सदा के लिये पटाक्षेप  कर दिया……….।।

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