हमें याद रखना होगा कि एक इंसान को जीवित रहने के लिए जितनी ज्यादा जरूरत रक्त की होती है, उतनी ही जरूरत पानी की भी होती है। ऐसे में, अगर हम इंसान इस ग़लतफहमी में जी रहे हैं कि धरती पर अथाह पानी है और इसकी कमी से इंसानों को जूझना नहीं पड़ेगा तो अब समय है इस भ्रमजाल से बाहर निकलने का।
भारत में इस साल इतनी भयंकर गर्मी पड़ी है कि इससे महंगाई बढ़ सकती है और आर्थिक वृद्धि पर असर पड़ सकता है। मूडीज़ इंवेस्टर्ज़ सर्विस के अनुसार लंबे अरसे तक उत्तर पश्चिमी क्षेत्रों में तापमान ऊंचा रहने के कारण गेहूं के उत्पादन में कमी हो सकती है और बिजली की कटौती वाली स्थिति भी आ सकती है। दीर्घावधि में जलवायु परिवर्तन के ख़तरों का मतलब है कि भारत की आर्थिक वृद्धि अस्थिर होगी। हाल के वर्षों में भारत को लगातार जलवायु संबंधी घटनाओं का सामना करना पड़ रहा है।
बीबीसी के अनुसार इंपीरियल कॉलेज लंदन के ग्रैंथम इंस्टीट्यूट के मरियम ज़कारायह और फ़्रेडरिक ओटो के नए शोध के मुताबिक़ जलवायु परिवर्तन की वजह से हर चार साल में एक बार ऐसी भयंकर हीट-वेव की उम्मीद की जा सकती है।
मरियम ज़कारायह ने एक बयान में कहा, “वैश्विक तापमान में होने वाली इज़ाफ़े में इंसानी गतिविधियों की भूमिका बढ़ने से पहले हम भारत में 50 वर्षों में कहीं एक बार ऐसी गर्मी महसूस करते थे, जैसे कि इस महीने के शुरू से पड़ रही है। लेकिन अब यह एक सामान्य सी बात हो गई है जो आगे भी होती रह सकती है।”
मगर भारत में समस्या यहीं पर रुकने वाली नहीं है। देश के कई शहरों में जल-संकट ने विकराल रूप धारण कर लिया है। भविष्य में हालात और बिगड़ने के आसार हैं। कुछ रिपोर्टों के अनुसार कुछ शहरों में तो 2030 तक ही पानी समाप्त होने की संभवना है जबकि भारत भर में 2040 के बाद लोग पानी को तरसा करेंगे। पानी की इस किल्लत का सबसे अधिक सामना करने वाले शहरों में शामिल हैं – दिल्ली, चेन्नई, हैदराबाद और बंगलरू।
भारत, अमेरिका, चीन और फ्रांस में हुए एक शोध का कहना है कि दुनिया के लगभग सभी देशों में बिजली का उत्पादन काफी हद तक पानी पर निर्भर है क्योंकि कई पावर प्लांट्स के कूलिंग सिस्टम के बनाए रखने के लिए काफी मात्रा में पानी की जरुरत पड़ती है। ऐसे में पानी को इस तरह लगातार इस्तेमाल पीने के पानी की कमी को बढ़ा देगा।
घरेलू स्तर पर भी पानी का दुरुपयोग हम सब करते हैं। सुबह सवेरे जब ब्रश करने जाते हैं तो नल का पानी बहता रहता है… यही हाल शेव करते समय भी होता है…। यदि घर में या सड़क पर किसी नल में से पानी रिसता रहता है तो उस नल की मरम्मत हम महीनों तक नहीं करवाते और पानी ज़ाया होता रहता है।
बचपन में भूगोल की किताबों में पढ़ा करते थे कि पृथ्वी पर 30 प्रतिशत ज़मीन है और 70 प्रतिशत पानी है। और इस पानी में से 97 प्रतिशत पानी समुद्र और नदियों में है। मात्र 3 प्रतिशत पानी ही पीने लायक है जो बर्फ और ग्लेशियर्स, जमीन के अंदर और नदियों और नहरों में हैं। ग्लोबल वार्मिग के चलते ग्लेशियर पिघल रहे हैं समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है। पीने का पानी हमारी पहुंच से बाहर होता जा रहा है।
भारत में दुनिया की 18 प्रतिशत आबादी रहती है लेकिन पीने लायक पानी के स्त्रोत सिर्फ 4 प्रतिशत ही हैं। ऐसे में बढ़ते हुए ख़तरे का अंदाज़ा लगाया जा सकता।
मुंबई जैसा महानगर तो केवल वर्षा के पानी पर साल भर चलता है। यदि किसी साल मॉनसून दग़ा दे जाए और वहां की सात झीलों (अपर वैतरणा, मोडक सागर, तानसा, मध्य वैतरणा, भातसा, विहार व तुलसी) में बारिश का पानी जमा न हो तो मुंबई खाली करवाने की नौबत आ सकती है। मुंबई में मॉनसून के दौरान सही इलाकों में बारिश का होना अति आवश्यक है। यदि बारिश कोलाबा और दादर में होती रहे और ‘कैचमेण्ट एरिया’ में बादल केवल आँख मिचौली खेलते रहें तो मुंबई निवासी तो प्यासे मर जाएंगे।
ध्यान देने लायक बात यह है कि जब मुंबई की आबादी 25 लाख थी तब भी यही सात झीलें पीने का पानी मुहैया करवाती थीं, अब जब कि आबादी 1.25 करोड़ है, तब भी पीने का पानी इन्हीं सात झीलों से मिलता है। केन्द्रीय जल-संसाधन मंत्रालय एवं राज्य स्तर के जल-संसाधन मंत्रियों ने कभी भी जल आपूर्ति के लिये कुछ नया न तो सोचा है न ही कभी किया ही है।
एक बात और, भारत में जब कभी घर बनाए जाते हैं तो अकसर गाँव के घरों में हैण्ड पंप या चापानल गड़वाते हैं। इसके लिये बोरिंग की जाती है। पानी निकलने की स्थितियां भौगोलिक स्थिति पर निर्भर होती हैं। कहीं-कहीं तो बीस फ़ुट पर ही पानी निकल आता है मगर अब स्थिति यह है कि हर जगह पानी कम से कम 80 से 100 फ़ुट तक खोदने के बाद ही मिलता है।
यदि भारत की बात करें तो 85 प्रतिशत पानी कृषि क्षेत्र में, 10 प्रतिशत उद्योग क्षेत्र में और केवल पाँच प्रतिशत ही घरेलू इस्तेमाल में लाया जाता है। इंडियन वाटर पोर्टल के अनुसार पिछले कुछ वर्षों में सार्वजनिक पेयजल आपूर्ति व्यवस्था की स्थिति खस्ता हो चुकी है। गाँवों और शहरों में धरती के नीचे उपलब्ध पानी का ख़ासा दोहन हो चुका है।
जल संकट में मुनाफ़ाखोरी का धंधा धरती को गहराई तक तो सुखा ही रहा है, लोगों की जेब पर भी दोहरी मार कर रहा है। तालाब किनारे ट्यूबवेल निजी टैंकरों के लिए कमाई का तगड़ा धंधा बन गए हैं। गर्मी में ठंडा पानी देने की सरकारी योजनाएं भी कमाई का जरिया बन गए हैं।
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक, आने वाले समय में ये संकट और बड़ा होगा क्योंकि 2032 तक धरती की आधी से अधिक आबादी पीने के पानी से वंचित हो सकती है। यू. एन. के अनुसार, हर साल एक महीने करीब 360 करोड़ लोगों को पानी की किल्लत से जूझना पड़ता है। इसके अलावा, 180 करोड़ लोग बंजर जमीन और सूखे की चपेट में रहने के लिए मजबूर हैं।
अफ़्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका में सबसे ज्यादा स्तर पर नदियों और जल स्रोतों में प्रदूषण बढ़ा है और भूमिगत पानी का स्तर बहुत तेजी से गिर रहा है। ऐसे में, यह जानना बहुत जरूरी हो जाता है कि आने वाले सालों में भारत समेत विश्व को किस तरह के भयानक हालात से जूझना पड़ सकता है।
यदि अभी भी हम अपने पानी के अंधाधुंध दोहन को रोकना नहीं बंद करते हैं तो संभवतः पानी के लिए विश्व युद्ध छिड़ने की भविष्यवाणी सच हो सकती है। धरती पर 30 प्रतिशत पानी भूमिगत यानी अंडरग्राउंड है, जो बहुत तेजी से खत्म होता जा रहा है।
एक अनुमान के मुताबिक, पिछले 20 से 30 सालों में हमने पानी की एक लेयर लगभग ख़त्म या प्रदूषित कर दी है।
पहला प्रश्न यह उठता है कि पानी की समस्या से निपटने के लिए हम क्या प्रयास कर सकते हैं? हमें जवाब भी मालूम है कि रेन वाटर हार्वेस्टिंग द्वारा जल का संचयन किया जाना चाहिए। वर्षा जल को सतह पर संग्रहित करने के लिए टैंकों, तालाबों और चेक डैम आदि की व्यवस्था की जानी चाहिए। झीलों, नदियों और समुद्र जैसे प्राकृतिक जल स्रोतों का संरक्षण करके जल संकट की समस्या का सामना किया जा सकता है।
और दूसरा प्रश्न यह कि क्या हम समस्या की गंभीरता से परिचित हैं? क्या हमारे राज-नेता एक दूसरे के विरुद्ध टीका-टिप्पणी करने से फुरसत पा सकेंगे कि आम नागरिक के समस्याओं के बारे में सोचने के लिये वक्त निकालें। उन्हें आने वाली पीढ़ियों को ध्यान में रखते हुए आज… बल्कि अभी से इस ओर ध्यान देना होगा।
हमें याद रखना होगा कि एक इंसान को जीवित रहने के लिए जितनी ज्यादा जरूरत रक्त की होती है, उतनी ही जरूरत पानी की भी होती है। ऐसे में, अगर हम इंसान इस ग़लतफहमी में जी रहे हैं कि धरती पर अथाह पानी है और इसकी कमी से इंसानों को जूझना नहीं पड़ेगा तो अब समय है इस भ्रमजाल से बाहर निकलने का।
जल है तो जीवन है यह ध्येय वाक्य कई राज्यों ने अपना रखा है।पर क्या हम जल संरक्षण का ध्यान रखते हैं, आज स्थिति यह है कि चेन्नई का समस्त भूमिगत जल समाप्त हो चुका है, यह अवस्था धीरे धीरे बाकी जगह भी होगी। मैंने प्रधान मंत्री मोदी जी को एक अर्थ शास्त्रिहोने के नाते सुझाव भेजे थे, जल संरक्षण में वाजपई जी की बहू चर्चित योजना सभी नदियों को जोड़ने के बहुत आवश्यक है , ड्रिप इरीगेशन उतना ही जरूरी है जितना संतुलित भोजन। हर व्यक्ति को जल का उपयोग सोच कडजर्न पड़ेगा कोई 30 40 वर्ष सोच सकता था कि पानी भी हम 145 रु बोतल में खरीदेंगे। अब सामान्य जल इसी भौमिलेगा अगर जल की महट्टनहीँ समझेंगे तो।
जलसंकट के प्रति अभी भी सम सावधान नहीं है।मैं देखती हूँ बहुत से लोग अपने वाहन धोने के लिए भी अंधाधुंध पानी बर्बाद करते रहते हैं।अब न संभले तो कब संभलेंगे?अच्छा संपादकीय है।ज्वलंत समस्या को उठाया है।
जल संकट पर एक बेहतरीन और आँखें खोलने वाला संपादकीय। आपकी अपने संपादकीय में कई बातें ऐसी है जिन्हें हर तीसरा व्यक्ति जानते समझते भी नहीं मानता है। यही नामसमझी की मानसिकता आने वाली पीढ़ियों के लिए एक सजा बन जाएगी।
मुम्बई जैसी स्थिति में भी वहां का इस विषय पर कुछ नहीं सोचना, एक मेरे लिए एक नई जानकारी के साथ विचारणीय भी है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में जमीन के पानी के दोहन का परिणाम यह है कि पानी का स्तर बहुत नीचे चला गया। दिल्ली के कुछ क्षेत्रों में तो इसका स्तर तीन सौ फुट तक पहुंच चुका है। बहरहाल आपके विश्व सन्दर्भ में पानी की अल्पता के आकंड़े और वर्णित लापरवाह रवैये सहज ही इस की भयावहता का आकलन करने के लिए काफी हैं।
एक चेतना जगाने वाले सम्पादकीय के लिए हार्दिक साधुवाद तेजेन्द्र सर।
प्रिय विरेन्द्र, आप हमेशा पुरवाई संपादकीय पढ़ते हैं और उस पर सृजनात्मक राय भी देते हैं। आप जैसे पाठकों के कारण ही पुरवाई हर सप्ताह किसी नये विषय का चुनाव कर पाती है।
जी !चेन्नई महानगर तो पहले ही इसी क़िल्लत का शिकार बना हुआ है । यहाँ पीने के लिए भी पानी ख़रीदना पड़ता है और नहाने के लिए भी । पानी तो मुफ़्त है ही नहीं । और जो टैंकर आते हैं पूरे रसायनों और अनावश्यक सॉल्टस से मिले हुए । घरेलू उपकरण एक साल में ही हाथ दे देते हैं । हर मशीन ख़राब हो जाती है । समस्या तो हम भुगत ही रहे हैं । पता नहीं और क्या देखना बाक़ी है । सार्थक संपादकीय!
यह आलेख बेहद महत्वपूर्ण है, आज के समय की मांग है, अब नहीं चेते तो भारी हानि उठानी पड़ सकती है मनुष्य को।आने वाला कल और भी अनेक समस्याओं से भरा है।आपको इस चेतावनी देने वाले उत्तम आलेख के लिए साधुवाद।
बेहद जरूरी विषय पर आपने लिखा है सर ‘बिन पानी सब सून’। कथाकार पंकज मित्र की एक कहानी है ‘बिन पानी डॉट कॉम’। बार-बार समझाने से लोग तो चेत नहीं रहे हो सकता है साहित्यकारों की पहल काम आ जाए।
बहुत बड़िया लिखा आपने
ये जो गगनचुंबी इमारतें बन रही हैं।उनसे भी पानी की
सतह नष्ट हो रही है
उन्हे बनाने में कितना पानी उपयोग होता है । बंगलूर मे कार की तरह हर परिवार के सद्स्य के फ्लैट है।
Your Editorial draws attention to a very important issue of impending water scarcity in India.
You have rightly pointed out how we depend so much on water and therefore must start working on saving it scientifically through various means.
Thanks n regards
Deepak Sharma
भारत की जनसंख्या रुके, भ्रष्टचार कम हो, लोगों की आँख खुले तो जल समस्या सुधरे। यहाँ रेन वाटर हार्वेस्टिंग का सर्टिफिकेट लेना होता है, तो भी लोग घूस खिला कर, काम निकाल लेते हैं, गाड़ी धोने के अतिरिक्त कपड़े धोने, घर धोने और दिन में 2 बार नहाने के लिए भी सोचने की जरूरत है। बाक़ी तो राम मालिक… हम ख़ुद को नियंत्रित रखें तो सम्भवतः कुछ सुधार हो सकता है। आंकड़े देकर सम्पादकीय के द्वारा हम लोगों की आँखे खोलने के लिए धन्यवाद।
जल संकट भारत सहित पूरे विश्व की प्रमुख समस्या है। पर उसके प्रति सबसे अधिक उदासीनता दिखाई जाती है। सब जानते हैं, सबको पता है, फिर भी ना तो लोग सचेत हैं ना सरकारें। यहां सब कुछ ऊपर वाले के हाथ पर छोड़ दिया जाता है।
बहुत अच्छा आलेख है, उम्मीद है इसका कुछ तो असर होगा।
सामायिक समस्या की ओर इंगित करता हुआ सराहनीय संपादकीय । पानी की कमी हो रही है यह बात क़रीब क़रीब सबलोग जानते हैं । मौसम बदलने का एक बड़ा कारण यह भी है । सरकार और जनता दोनों को ही जागरूक होना होगा। पानी के प्रति उदासीनता जीवन के लिए उदासीन होना ही माना जाए। जल संरक्षण के उपायों को अभी से खोजकर उन्हें लागू करना चाहिए । सामाजिक और राजनीतिक समन्वय स्थापित करने की आवश्यकता है । वैसे मेरा व्यक्तिगत तौर पर यह मानना है कि जनसामान्य जानती भी है और मानती भी है किन्तु मैं ही क्यूं शुरु करूं….. मुझे क्या की बीमारी से ग्रस्त हैं
“बिन पानी सब सून”–जिस तरह ‘पानी’ सम्मान और इज्ज़त का द्योतक है, उसी तरह यह जीवन के लिए अपरिहार्य है। पानी सृजन की निरंतरता के लिए आवश्यक तत्त्व है।
बहुत आवश्यक संपादकीय, जिसे सभी को पढ़ना और अमल करना जरूरी है।
बाहर जाने की जरूरत नहीं सबसे पहले अपने घर से कदम बढ़ाना होगा।हाथ धोने में जो लगातार पानीगिरता है।फ्लैश में ।बर्तन धोने में।या एक चम्मच भी धोना होता तो बहुत ज्यादा पानी की बाराबाड़ी होती है।अपने घर से हम सभी इस और कदम बढ़ाना होगा।
जल है तो जीवन है यह ध्येय वाक्य कई राज्यों ने अपना रखा है।पर क्या हम जल संरक्षण का ध्यान रखते हैं, आज स्थिति यह है कि चेन्नई का समस्त भूमिगत जल समाप्त हो चुका है, यह अवस्था धीरे धीरे बाकी जगह भी होगी। मैंने प्रधान मंत्री मोदी जी को एक अर्थ शास्त्रिहोने के नाते सुझाव भेजे थे, जल संरक्षण में वाजपई जी की बहू चर्चित योजना सभी नदियों को जोड़ने के बहुत आवश्यक है , ड्रिप इरीगेशन उतना ही जरूरी है जितना संतुलित भोजन। हर व्यक्ति को जल का उपयोग सोच कडजर्न पड़ेगा कोई 30 40 वर्ष सोच सकता था कि पानी भी हम 145 रु बोतल में खरीदेंगे। अब सामान्य जल इसी भौमिलेगा अगर जल की महट्टनहीँ समझेंगे तो।
आदरणीय भाई सुरेश जी आपने संपादकीय में कुछ नये तथ्य शामिल करते हुए महत्वपूर्ण सहयोग किया है। इस विशेष टिप्पणी के लिये धन्यवाद।
जलसंकट के प्रति अभी भी सम सावधान नहीं है।मैं देखती हूँ बहुत से लोग अपने वाहन धोने के लिए भी अंधाधुंध पानी बर्बाद करते रहते हैं।अब न संभले तो कब संभलेंगे?अच्छा संपादकीय है।ज्वलंत समस्या को उठाया है।
अनघा और दिव्या… दोनों को धन्यवाद। आपने सही इंगित किया है कि वाहन धोने में भी बहुत सा पानी बर्बाद हो जात है।
जल संकट पर एक बेहतरीन और आँखें खोलने वाला संपादकीय। आपकी अपने संपादकीय में कई बातें ऐसी है जिन्हें हर तीसरा व्यक्ति जानते समझते भी नहीं मानता है। यही नामसमझी की मानसिकता आने वाली पीढ़ियों के लिए एक सजा बन जाएगी।
मुम्बई जैसी स्थिति में भी वहां का इस विषय पर कुछ नहीं सोचना, एक मेरे लिए एक नई जानकारी के साथ विचारणीय भी है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में जमीन के पानी के दोहन का परिणाम यह है कि पानी का स्तर बहुत नीचे चला गया। दिल्ली के कुछ क्षेत्रों में तो इसका स्तर तीन सौ फुट तक पहुंच चुका है। बहरहाल आपके विश्व सन्दर्भ में पानी की अल्पता के आकंड़े और वर्णित लापरवाह रवैये सहज ही इस की भयावहता का आकलन करने के लिए काफी हैं।
एक चेतना जगाने वाले सम्पादकीय के लिए हार्दिक साधुवाद तेजेन्द्र सर।
प्रिय विरेन्द्र, आप हमेशा पुरवाई संपादकीय पढ़ते हैं और उस पर सृजनात्मक राय भी देते हैं। आप जैसे पाठकों के कारण ही पुरवाई हर सप्ताह किसी नये विषय का चुनाव कर पाती है।
एक अनुमान के मुताबिक, पिछले 20 से 30 सालों में हमने पानी की एक लेयर लगभग ख़त्म या प्रदूषित कर दी है।
धन्यवाद रमेश भाई
बहुत बढ़िया लेख।
धन्यवाद रंजना जी
जी !चेन्नई महानगर तो पहले ही इसी क़िल्लत का शिकार बना हुआ है । यहाँ पीने के लिए भी पानी ख़रीदना पड़ता है और नहाने के लिए भी । पानी तो मुफ़्त है ही नहीं । और जो टैंकर आते हैं पूरे रसायनों और अनावश्यक सॉल्टस से मिले हुए । घरेलू उपकरण एक साल में ही हाथ दे देते हैं । हर मशीन ख़राब हो जाती है । समस्या तो हम भुगत ही रहे हैं । पता नहीं और क्या देखना बाक़ी है । सार्थक संपादकीय!
धन्यवाद पद्मा जी।
यह आलेख बेहद महत्वपूर्ण है, आज के समय की मांग है, अब नहीं चेते तो भारी हानि उठानी पड़ सकती है मनुष्य को।आने वाला कल और भी अनेक समस्याओं से भरा है।आपको इस चेतावनी देने वाले उत्तम आलेख के लिए साधुवाद।
धन्यवाद निधि। आपकी टिप्पणी महत्वपूर्ण है
बेहद जरूरी विषय पर आपने लिखा है सर ‘बिन पानी सब सून’। कथाकार पंकज मित्र की एक कहानी है ‘बिन पानी डॉट कॉम’। बार-बार समझाने से लोग तो चेत नहीं रहे हो सकता है साहित्यकारों की पहल काम आ जाए।
जो लोग नहीं समझ रहे उर्वशी उन्हें शर्म से पानी पानी हो जाना चाहिये।
पानी की कमी नहीं है
पीने वालों की बहुतायत है!
बहुत बड़िया लिखा आपने
ये जो गगनचुंबी इमारतें बन रही हैं।उनसे भी पानी की
सतह नष्ट हो रही है
उन्हे बनाने में कितना पानी उपयोग होता है । बंगलूर मे कार की तरह हर परिवार के सद्स्य के फ्लैट है।
धन्यवाद पुष्पा जी
Your Editorial draws attention to a very important issue of impending water scarcity in India.
You have rightly pointed out how we depend so much on water and therefore must start working on saving it scientifically through various means.
Thanks n regards
Deepak Sharma
Thanks so much Deepak ji. You are so right some steps in the right direction need to be taken.
भारत की जनसंख्या रुके, भ्रष्टचार कम हो, लोगों की आँख खुले तो जल समस्या सुधरे। यहाँ रेन वाटर हार्वेस्टिंग का सर्टिफिकेट लेना होता है, तो भी लोग घूस खिला कर, काम निकाल लेते हैं, गाड़ी धोने के अतिरिक्त कपड़े धोने, घर धोने और दिन में 2 बार नहाने के लिए भी सोचने की जरूरत है। बाक़ी तो राम मालिक… हम ख़ुद को नियंत्रित रखें तो सम्भवतः कुछ सुधार हो सकता है। आंकड़े देकर सम्पादकीय के द्वारा हम लोगों की आँखे खोलने के लिए धन्यवाद।
शैली जी, आपने सही बातों की तरफ़ इशारा किया है। धन्यवाद।
जल संकट भारत सहित पूरे विश्व की प्रमुख समस्या है। पर उसके प्रति सबसे अधिक उदासीनता दिखाई जाती है। सब जानते हैं, सबको पता है, फिर भी ना तो लोग सचेत हैं ना सरकारें। यहां सब कुछ ऊपर वाले के हाथ पर छोड़ दिया जाता है।
बहुत अच्छा आलेख है, उम्मीद है इसका कुछ तो असर होगा।
धन्यवाद मधु जी। हमारा प्रयास है सत्ता में बैठे नेताओं और आम जनता को नींद से जगाना।
अत्यंत प्रासंगिक और उद्धरणीय सम्पादकीय!
धन्यवाद मनोज भाई
सामायिक समस्या की ओर इंगित करता हुआ सराहनीय संपादकीय । पानी की कमी हो रही है यह बात क़रीब क़रीब सबलोग जानते हैं । मौसम बदलने का एक बड़ा कारण यह भी है । सरकार और जनता दोनों को ही जागरूक होना होगा। पानी के प्रति उदासीनता जीवन के लिए उदासीन होना ही माना जाए। जल संरक्षण के उपायों को अभी से खोजकर उन्हें लागू करना चाहिए । सामाजिक और राजनीतिक समन्वय स्थापित करने की आवश्यकता है । वैसे मेरा व्यक्तिगत तौर पर यह मानना है कि जनसामान्य जानती भी है और मानती भी है किन्तु मैं ही क्यूं शुरु करूं….. मुझे क्या की बीमारी से ग्रस्त हैं
विजय लक्ष्मी जी इस सार्थक टिप्पणी के लिये हार्दिक धन्यवाद।
“बिन पानी सब सून”–जिस तरह ‘पानी’ सम्मान और इज्ज़त का द्योतक है, उसी तरह यह जीवन के लिए अपरिहार्य है। पानी सृजन की निरंतरता के लिए आवश्यक तत्त्व है।
बहुत आवश्यक संपादकीय, जिसे सभी को पढ़ना और अमल करना जरूरी है।
आपने दूसरी टिप्पणी छोड़ी है… ज़ाहिर है कि आपको संपादकीय बहुत पसंद आया है। धन्यवाद मनोज भाई।
चिंतनीय मुद्दा है। सुन्दर विवेचन है।
बेहतरीन अभिव्यक्ति।
बाहर जाने की जरूरत नहीं सबसे पहले अपने घर से कदम बढ़ाना होगा।हाथ धोने में जो लगातार पानीगिरता है।फ्लैश में ।बर्तन धोने में।या एक चम्मच भी धोना होता तो बहुत ज्यादा पानी की बाराबाड़ी होती है।अपने घर से हम सभी इस और कदम बढ़ाना होगा।