जिस आदमी के पास कुछ भी नहीं था उसके पास था एक थैला थैले में थी एक कलम थे कुछ कागज और कागज पर लिखी जाने वाली अनंत संभावनाएं, आशाएं, कुछ मंसूबे और ठहरे हुए रक्त में पैदा करने को प्रवाही प्रेरणाएं।
मैं सोचता रह गया कि जिस आदमी के पास कुछ भी नहीं था उसके पास आखिर क्या नहीं था?
2 – स्मारक-एक यह भी
झाड़-झंखाड़-सी माँ और पिता उझाड़, विरक्त किले-से। कभी नहीं भी थी झाड़-झंखाड़-सी माँ एक बिरवा थी लिए हुए वसंत की पूरी संभावनाएँ।
सुरक्षित थी किले की मजबूत बाँहों में— मेरे पिता तब सचमुच एक किला थे-मजबूत। तब यहाँ न जाल-जंजाल थे न चील-कौवों का बसेरा। हर ओर से तब दिखता था तब उदय होना सूरज का।
कभी भरा-पूरा था किला- भरा-पूरा जैसे होता है किला शरणार्थियों से
कभी समाये नहींसमाते थे भंडार दुआओं से।
पिता बस एक याद भर हैं, अब इतिहास के मामूली पृष्ठों-से धुँधलाते हुए बस एक संकेत भर संपन्न हो चुके शरणार्थी-दिमागों में, तयक्त्।
झाड़-झंखाड़-सी माँ अब भी है किले के प्रागंण में रोपई हुई, आखिरी कंगूरा किले का ओटने की चाह में धरती-सी।
3 – एक मिठास भरी हरकत
चाहने लगता है मन आ समाए सागर।
आ समाएँ तमाम जल.जीव वनस्पतियाँ, रत्न सब।
एक मिठास भरी हरकत यह सागर की कितनी अपनी हो जाती है कितना अपना हो जाता है खारापन भी।
4 – बूढ़ा
टिक्कड़ ही तोड़े हैं घर भर की नजर में सदा उसने
वह जानता है उसकी बिवाइयों और झुर्रियों में फंसी रागिनी न रोटी देती है न खाट फिर भी वह उसे गाता है तम्बाकू या खैनी की तरह अपने हाडों में चढ़ाता है
वह जानता है समझता भी है पर सांटे खाकर भी बूढ़े बैल-सा टुकर-टुकर वहीं सूखी खोर में मुँह मार लेता है और सफेद बादलों का आँखों में अक्स लिए जाने कब गोडी डाल देता है
यहाँ दूर शहर की तमाम उलझी सुविधाओं के बीच एक खत आया है कोना कटा – ‘बूढ़ा नहीं रहा’ अगले दिन पाता हूँ बैठक में एक फोटो लगा है और नीचे लिखा है पिता पुस्तक का वह पृष्ठ अभी तक मुड़ा है जिस पर छपी है एक बहुत खूबसूरत अफ्रीकी कविता।
(‘माँ गाँव में है’ कविता संग्रह से)
5 – हमें बचाना है आदमी को
मैं पेड़ हूँ हमें बचाना है आदमी को।
मैं हवा हूँ बसी पेड़ों में हमें बचाना है आदमी को।
मैं मिट्टी हूँ हमें बचाना है आदमी को।
मैं आकाश हूँ बैठा मिट्टी से कड़ लगाए हमें बचाना है आदमी को।
मैं पहाड़ हूँ उभरे वक्ष-सा धरती का हमें बचाना है आदमी को।
मैं आग हूँ, मैं पानी हूँ हमें बचाना है आदमी को।
मैं जंगल हूँ आकाश को छूने की कोशिश सा हमें बचाना है आदमी को।
हमें बचाना है आदमी को खुद अपने माथे पर लोहा गाड़ने से, दबोचने से गला अपने सबसे मासूम हिस्से का।
आदमी चुकता नहीं है हमें बचाना है आदमी को चुकने से।
नहीं सोचना क्या करता है आदमी हमें बचाना है आदमी को।
बहुत सुन्दर रचनायें..!
मन छू गई आपकी रचनाएं.. बहुत सुंदर सृजन