होम कविता डॉ. संजीव कुमार की पांच कविताएँ कविता डॉ. संजीव कुमार की पांच कविताएँ द्वारा डॉ. संजीव कुमार - July 12, 2020 109 1 फेसबुक पर शेयर करें ट्विटर पर ट्वीट करें tweet 1 अलसायी दोपहरी, सोई सी धूप। धीरे धीरे हिलते, पेड़ों के रूप।। कचनारी रोशनी में- बाँका सा मन। बगिया की छाँव में, ज्यों बहका सा तन।। दो पल का रेशमी सा, मदमाता संग। जाग उठा चुपके से, सोया अनंग। लहरायी बाहों में, अलकों की छाँव। लहक उठा सांसों में छोटा सा गाँव।। 2 मौन मन का प्रेम, आकुल मन, घुला जीवन। ज्वार में घिरता न जाऊँ तोड़ दो बंधन।। चाँदनी का देखकर संसार बहका मैं। पर कठिन लहरों में नौका सहज ठिठका मैं।। एक मैं इस पार हो उस पार तुम साजन! हाथ मेरा थाम लो पतवार जैसा बन।। बस तुम्हारा प्रेम है मेरा अलौकिक ध्न। चाँद की मैं चन्द्रिका तुम ही मेरे साजन।। बस यही कह दो मुझे हाँ भावना का वश। सिमट जाऊँ बाँह में लो मुझे जीभर कस।। भूल जाऊँ जगत की मैं वेदना सारी। एक तुम हो जाओ मेरे एक मैं तुम्हारी।। 3 मिल जाये कहीं अगर एक टुकड़ा धूप का। खिल जाये मन, हो जाये दर्शन तेरे रूप का।। खिलते हैं फूल हजारों महके बन बाग हैं। बिखरे सारे कोनों में कोयल के राग हैं।। अँधियारा झाँक रहा है मतवाली शाम सी। बादल न आँचल फैला किरणें ज्यों थाम लीं।। रिमझिम का राग सजे तो खिल जाये मन। तेरा भी साथ मिले तो बहके स्पन्दन। 4 बाँसों के झुरमुअ में चिड़ियों की रागिनी। अलसायी ध्ूप बिछी मतवाली, फागुनी।। सर सर सर हवा चली फर फर फर लहरायी आमों के बौरों पर- मादक सी महकायी।। कोयल की बोली सुन मतवाला मन हुआ। दुपहरिया फूल खिले दहका आँगन हुआ। थोड़ी सी नींद-खुमारी थोड़ा सा अल्हराना। बाहों में छुपकर चुपके बगिया में सा जाना।। बतियाते फूल और पत्ते कानों में कहते हैं। दिन दुपहर सुन्दर है- जब साजन रहते हैं।। मन महका रहता है मन बहका रहता है। तुम मेरे पास रहो हर पल मन कहता है।। 5 भूली भटकी यादें भर देती है तनहाइयों को। खिला देती है- सूने मन में मतवाली परछाइयों को।। सपनों के सजीले चित्रा मन के कोनों से झाँकते हैं, बादलों से खिलती किरणों की तरह और भी दुलराते है। मंद समीरण में कभी कभी फुहार बनकर बरसा जाते है नयनों की कोरों से चाहत की धरती पर।। उनींदा सा मन भर उठता है किसी खुमार से। तनहाइयाँ भी हँस उठती हैं प्यार से।। 6 झर झर झर झरती मन में चादों की ओस रे। तेरे बिन साजन कर लूँ कैसे संतोष रे।। कब तक बहलाऊँ मन को कब तक सहला ऊँ मन को। कितना विश्वास सजाऊँ कैसे समझाऊँ मन को।। सूनापन गहराता है। सन्नाटा खा जाता है। आँखों में आँसू भर कर जीवन कटता जाता हैं।। तुम आओ मैं भी हँस कर कर लूँ जय घोष रे। तेरे बिन साजन कर लूँ कैसे संतोष रे।। संबंधित लेखलेखक की और रचनाएं कृष्ण कांत पण्ड्या की कविता रश्मि पाण्डेय की कविता – अधूरे सपने तोषी अमृता के निश्छल, शर्मीले, भोले मुक्तक 1 टिप्पणी भाव प्रवण रचनाएं जवाब दें Leave a Reply Cancel reply This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.
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