Saturday, July 27, 2024
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पद्मेश गुप्त की पांच कविताएँ

1- घटना…
जो मुझ पर घटी
वह कविता
जो तुम पर घटी
वह लेख
जो हम पर घटा
कहानी
जो सब पर घटा
इतिहास,
घटना ही शायद साहित्य है
और
बढ़ना

2- तुम्हारी कमी!

घर है
छत है
दीवारें हैं
इनमें रहता हूँ मैं
और मेरे साथ
रहती है
एक कमी!
कमी
साथ चाय पीने की कमी
सुबह अख़बार के पन्नों को
बाँट कर
पढ़ने की कमी,
अक्सर किसी समाचार पर
चर्चा या बहस
करने की कमी;
मेरी को तुम्हारी
तुम्हारी को मेरी
पसंद को
हमारी बना कर
साथ टी वी
देखने की कमी!
रोशनदान से
धूप की नरम छुअन
कभी
बारिश की छलकती बूँदें
रात चाँद की
हल्की सी झलक
कभी
तेज हवाओं के स्वर,
दिन के बदलते पहर
रितुओं के
बदलते मूड
इन सब में
तुम्हारे स्पर्श की कमी! 
घर है
छत है
दीवारें हैं
इनमें  रहता हूँ मैं
और मेरे साथ
रहती ही नहीं
खलती है
तुम्हारी कमी!
3 – काश!
काश मैं
पीने योग्य रहता
नदी ही रहता
खारे सागर में
ना समाता,
अपने गाँव में रहता
शहर
ना जाता!

4- गंगा 

गंगा
मेरे मन में बहती है
वरना
मुमकिन नहीं था
यूँ ही
सुबह शाम
तुम्हारा हाथ धोना!
5- क्या सही क्या ग़लत?
कल कुल्हाड़ी ने
गिराई थी
एक इमारत,
फिर हो गई
हमारे क़िले की रक्षक
अपनी जगह सही
किसी के लिए ग़लत!
आज उठा हल
और फहरा दिया उसने
अपना झंडा!
अपनी जगह सही
किसी के लिए ग़लत!
अहिंसा अहिंसा के
नारों के बीच
यह कुल्हाड़ी
यह हल
ऐसे ही
प्रजातंत्र के  बल
लिखते रहेंगे नए अध्याय।
कल फिर कोई उठाएगा
हथौड़ा
गाड़े का अपनी नई कील
अपनी जगह सही
किसी के लिए ग़लत!
पिसते रहेंगे यूँही
चक्की में घुन
उठता गिरता रहेगा विश्वास
साक्षी बन देखता रहेगा
इतिहास!
सब
अपनी जगह सही
किसी के लिए
यूँही
ग़लत!
पद्मेश गुप्त
पद्मेश गुप्त
संपर्क - 00-44-7956562805
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