मां के हाथों से उछली रोटी
तपती भट्टी के अर्द्ध भाग पर एकटक
आंखों से विलाप कर रही है
क्योंकि मां ने उसे ज्वलंत लपटों में
धीरे-धीरे
फुला कर जला दी है
छोटे भाई ने उसे हॉटपोट से निकालकर
काली नाली में फेंक दिया
सड़े अंडे और कटी सब्जियों की तरह
छोटा भाई नासमझ
उसे पता नहीं
जली रोटी का महत्व
दरअसल हर रोज
मां के हाथों दो-चार रोटियां
जल जाया करती और मेरी मां
बड़ी प्यार से संभाल कर हॉटपोट के
निचले भाग में रख देती
बिना बाबू जी से कुछ कहे
पन्द्रह साल तक तो मैं
इस रहस्य को समझ ही नहीं सका
ठीक वैसे ही
चार बरस के बाद लीप ईयर की तरह
रात्रि में मां हमें थाली में
सफेद चंद्रमा जैसी रोटी परोस दिया करती
जिसके बीच-बीच में
काले-काले धब्बे हमें मुस्कुराते हुए प्रतीत हुए
हमेशा ही…
मां के चेहरे को देख कल-कारखानों के धुएं
या यूं कहें चूल्हे के धधकते अंगारे भी
फीके पड़ चुके हैं
हमेशा अच्छी रोटी मेरे लिए और
अंतिम रोटी मां अपने आंचल में छुपा लेती अपने लिए
एक संपूर्ण देश की तरह—-
ऐसा लगता जैसे आइज़क न्यूटन और रदरफोर्ड ने भी
यही रोटी खाई होगी तभी तो
वह गगन और पृथ्वी को हमेशा
समझकर अविष्कार किए
एक सफेद चादर की तरह
मां ने ही प्रतिनिधित्व किया है
जली हुई रोटी का
उसमें चिन्हित काली परतों का और
अंत में अपने जले हुए हाथों का
आखिरकार…
ये सत्य मेरा छोटा भाई जानकर
सारी जली रोटियां फेंक आया
मन के मूल्यवान नाले में.
2. भिड़ंत हत्या
तुम्हारे चेहरे पर यह दाग कैसे…?
एक नया कार्टून मॉडल बना है
जिसमें उल्लिखित है आज की वास्तविकता
सोचने से ही थरथराती है आंखें
थक जाती है स्वसन क्रिया
विचलित होता है यकृत
और अंत में हृदय गति शांत…
सभी रक्त शिराएं नसों को चीरती हुई
मांस पेशियों में तितर-बितर होकर
शंखनाद करती है एक जीवंत हत्या की
सड़कों पर उपस्थित है असंख्य सूअर
जिसमें से एक लाश हमारे सामने प्रश्न खड़ा करता है ?
टोपी वाले लोग मुस्कुराते हैं
अपने नव विधान पर
आहिस्ता-आहिस्ता सर्कुलेट होता है
व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम और फेसबुक पर कई वीडियों…
आखिरकार
ग्रेफाइट, ग्रेनाईट और ईटों से निर्मित
विशालकाय पिलर्स लोगों के द्वारा
स्थापित करते हैं आंखों में
हार्दिक स्वागत करता हूँ तुम्हारा
लेकिन इस तरह से नहीं
बिल्कुल नहीं…!
नहीं…नहीं
तुम मारोगे
इसी प्रकार ईश्वर के हाथों
जिसका जिम्मेदार कोई नहीं होगा.
3. मार डालने वाले विचारों को सलाम
क्या…?
यह हालात मुझे झूका देेंगे
किन्हीं सोफ्ट नामों की तरह
या अपने ही मुझे मिटा देगे
जैसे
मिटा दिये जाते हैं
माथे के कलंकों को
धीरे से
समझना मुश्किल है
मैं समझना चाहता हूँ
तुम्हारी मौत का मतलब
आज भी अनजान हैं
मुंह के असंख्य निवाले
आज भी
जेम्स बॉन्ड हर घरों में दस्तक दे रहा है क्यों ?
समस्या के भीतर भी
समस्या बालतोड़ की तरह उपस्थित हैं
अपने साथ मवाद लिए
हम वाह्य प्रेसर तो डाल रहे है
मगर निर्रथक हैं यह प्रेसर
सोचो, विचारो और मार डालो
अपने तीन घंटे और बहत्तर बर्ष के आजादी को
मैं लिखूंगा
तुम्हारे भीतर एक कट्टर नाम
जो सिद्ध हुआ होगा
तुम्हारे अंदर के मानवीय विचारों से
सोचने पर भी
तुम सिर्फ तुम रहोगें
नहीं बन पाओगें
एक सार्थक वीर्य
जिसके कीटाणु हमेशा ही
यह कटटरपंथी विचारधारा को
हमारे समक्ष जटिल विषाक्त का रूप धारण कर
रचेगा एक नव निर्वाचित प्रतिनिधि
और अंत होगा एक देश का…?
4. सड़क और मजदूर
सड़क कहती मजदूर से
तुम मेरे साथी हो
जिस प्रकार साथ निभाया है
ये लाइट पोल और ठीक तुम्हारे बगल वाली नाली
चलो तुम भी परमामेन्ट हो जाओ
ठीक एक दाद और खुजली की तरह
मजदूर ने अपनी आँखों से
एक आँख निकालकर कहा—-
“आखिरकार कब-तक…?
एक सरकार की तरह
मैं भी अनियंत्रित रहूंगा…”
कभी
जी.टी रोड़ की सड़क
तो कभी स्ट्रीट साइट रोड़ के किनारे ही
मेरा घर बन जाता है.
लेकिन तुम जालिम हो
सभी वेश्याओं और नशे में धुत लोग
रात बारह बजे के बाद
आकर मुझसे टकराते हैं
एक चुनौती के चार चक्को की तरह
और सुबह -सुबह
म्युनिसिपलटी वाले मेरे गंदे शरीर
फेंक आते हैं कहीं दूर-दराज वाले इलाकों में
अब बताओं मैं असुरक्षित हूँ तुमसे
सड़क धीमी गति से
अब अपना आकार
संकुचित कर मजदूर के
इस जवाब पर
निःशब्द है.
5. आसनसोल टू कुमारधुबी
ट्रेन की खिड़कियों से झांकने पर
मिलते हैं असंख्य जटाधारी वृक्ष
कुछ बेबाक बातें करते विद्यार्थी
ट्रेन तो रूकी है
मगर एक ट्रेन के अन्दर जीवन पनप रहा है
एक सुन्दरी वृक्ष की तरह….
कुछ बच्चे विस्फोटक हरकतों को
अंजाम दे रहे हैं,
बच्चों की माँ
एक नव नियुक्त होती एक दिशा में
जहाँ सिर्फ एक कम्पार्टमेंट, बिना टायलेट्स, सिर्फ दरवाज़े
आपस में लड़ते हुए
जहाँ
हवाओं का भी साथ है,
सिर्फ मैं
खोया हुआ हूँ अपने आप में
तभी ट्रेन के होर्न
और एक के बाद एक कम्पार्टमेंट
आपस में संवाद करते हुए
मेरे हाथों में धीरे से थम गया.
फिर
मैं ट्रेन से उतरकर
बस स्टैंड की ओर भागा
और पायी उदासीन एक बस
जिसके अंदर घुसे बैठे हैं एक के ऊपर एक लोग
उन लोगों ने मुझे भी ठूस रखा एक
बेजोड़ पड़ी गठरी की तरह
मेरी गर्दन पर असंख्य खरोचें
एक महिला से बेमतलब की झड़प
कारण सिर्फ
“हल्की-सी ठोकर लग जाना मेरे पैर से “
इसी पर महिला ने बस को
बडे़ प्रेम से अपनी गोद में ले लिया
और यात्रिगण एक-एक करके
सड़क को चुम रहे थे.
अन्ततः मैंने भी
कुमारधुबी के मैथन डैम पर
उतरकर एक बिसलेरी की बोतल को खरीदा
और अपनी गर्दन की खरोचों पर पानी डाला
एक झोपड़ी जैसे दुकान पर
गर्म चाय की चुस्की और
कानों में एफ.एम में बजता
अस्सी के दशक का एक सोन्ग;
“लग जा गले की फिर… ये हसीन रात हो ना हो…! “