होम कहानी राम नगीना मौर्य की कहानी – यात्रीगण कृपया ध्यान दें कहानी राम नगीना मौर्य की कहानी – यात्रीगण कृपया ध्यान दें द्वारा राम नगीना मौर्य - June 21, 2020 384 0 फेसबुक पर शेयर करें ट्विटर पर ट्वीट करें tweet मथुरादास, बिटिया और पत्नी संग, मेमू–टेªन के इन्तजार में कानपुर रेलवे स्टेशन के प्लेटफाॅर्म पर खड़े थे। अगस्त का महीना था। यद्यपि रिमझिम बारिश हो रही थी, परन्तु मौसम में अभी भी उमस और गर्मी की तपिश बनी हुई थी। प्लेटफाॅर्म पर मुसाफिरों की जबरदस्त गहमागहमी थी। ‘यात्रीगण कृपया ध्यान दें। नई दिल्ली से चल कर…’ बीच–बीच में उद्घोषक द्वारा टेªनों के आवाजाही की सूचनाएं भी दी जा रही थीं। मेमू–टेªन अभी आयी नहीं थी, लेकिन प्लेटफाॅर्म पर यात्रियों की जबरदस्त भींड़–भाड़ देखकर, बोगी में ठेलम–ठेल रहने के दृष्टिगत, बैठने वास्ते सीट मिलने के बारे में उनके जेहन में बराबर आशंका बनी हुई थी। चूंकि अभी समय था, और मथुरादास को जोरों की भूख लगी थी, सो उन्होंने अपने साथ लाये टिफिन, जो अभी भी खाये बिना रखा रह गया था, से भोजन कर लेने का निर्णय लिया। उन्होंने प्लेटफाॅर्म पर ही एक तरफ किनारे लगी माल ढ़ोने वाली ट्राली पर थोड़ी जगह देखकर, सपरिवार वहीं बैठ, अपना टिफिन खोल लिया। अभी उन्होंने दो–चार कौर ही मुंह में डाला होगा कि फटे–पुराने कपड़ों में एक बूढ़ी महिला, जो शायद भिखारन थी, उनके सामने आकर अपनी दोनों हथेलियां पसारे खड़ी हो गयी। उसे देखते ही उन्होंने भोजन करना बन्द कर दिया। बिटिया ने ही राह निकाली। उसने एक रोटी में थोड़ी सब्जी रखकर उसके आगे बढ़ा दिया। भिखारन ने अपने दोनों हाथ आगे बढ़ाकर बिटिया के हाथ से रोटी–सब्जी ले लिया और आगे बढ़ गयी। ‘यात्रीगण कृपया ध्यान दें…’ उद्घोषक द्वारा मेमू-ट्रेन के आने की सूचना दी गयी। मथुरादास की तंद्रा टूटी। उन्होंने जल्दी–जल्दी अपना भोजन समाप्त किया। अगले ही पल टेªन, धड़धड़ाते हुए प्लेटफाॅर्म पर आकर खड़ी हुई। मथुरादास के सामने रूके डिब्बे में ज्यादा भींड़ नहीं थी। सो वो सपरिवार फुर्ती से सामने वाली बोगी में ही जा घुसे। वाबजूद तमाम आशंकाओं के, थोड़ी–बहुत मशक्कत के बाद उन्हें पत्नी, बेटी संग आराम से बैठने के लिए सीट मिल ही गयी। वो अभी इत्मिनान से बैठे ही थे कि एक नवविवाहित जोड़ा भी बोगी में चढ़ा। डिब्बे का वातावरण गुलाबी सेण्ट की खुशबू से सुवासित हो उठा। उस जोड़े के पीछे करीब दस–बारह और बूढ़े–बुजुर्ग लोग भी बोगी में चढ़ आये, जिन्हें देख कर लग रहा था कि इतने लोगों को तो यहांॅ बैठने के लिए जगह मिलना बहुत ही मुश्किल होगा। लेकिन अगले ही पल…वहांॅ बैठे यात्रियों को इत्मिनान हुआ। नवविवाहित जोड़े के साथ आये लोग एक–एक कर उतरने लगे। ओ–हो…! तो ये लोग इन्हें छोड़ने आये थे। हांॅ! पर, उतरने से पहले सभी ने उन्हें कुछ–न–कुछ हिदायतें जरूर दी…जैसे, ‘‘टेªन में होशियार रहना चाहिए। किसी का दिया हुआ खाद्य पदार्थ नहीं लेना चाहिए। अपने सामान की सुरक्षा खुद करनी चाहिए।’’…वगैरह–वगैरह। एक सज्जन जिन्हें वो लोग ‘नेता जी’ कह कर पुकार रहे थे, ने तो चलते–चलते उन्हें ये हिदायत भी दी कि…‘‘बीच में कहीं मत उतरना। लखनऊ आने पर ही उतरना।’’ यद्यपि दुल्हन घूँघट में थी, लेकिन उस गौरांगी के आल्ता रचे पैर और मेंहदी रची खूबसूरत हथेलियां जरूर दिखाई दे रही थीं। दुल्हन के एक हाथ में मोबायल फोन, तो दूसरे हाथ में एक छोटा सा फूलदार रूमाल था, जिसे वो बीच–बीच में घूंघट के नीचे ले जाते, शायद आंसू या नाक, पोछ ले रही थी। किसी नवविवाहिता की विदाई के मौके को देखते, सहज ही ऐसा अंदाजा लगाया जा सकता था। नवविवाहित जोड़े के साथ टी–शर्ट और जीन्स पहने एक और पहलवान सरीखा युवक भी था, जो तीखी नाक वाले लम्बे से दूल्हे को बार–बार, ‘जीजा–जीजा’ कह कर सम्बोधित कर रहा था। ‘भइय्या मोरा गबरू है, सैंय्या मोरा बांका…’ उन्हें देख कर सामने की सीट पर बैठे मथुरादास को बरबस ही ये दिलफरेब गाना याद आ गया। एक–दो यात्रियों से खिसकने, जगह देने का निवेदन करते वो तीनों, मथुरादास के सामने वाली सीट पर ही बैठ गये। उनके साथ ज्यादा समान नहीं था। एक छोटा तो दूसरा बड़ा बैग ही था। छोटा वाला बैग दूल्हे ने अपने पैरों के नीचे दबा रखा था, तो बड़ा वाला बैग दुल्हन के पैरों के पास रखा था। बड़े वाले बैग में ज्यादा सामान होने के कारण उसकी चेन पूरी तरह बन्द नहीं हो पायी थी। ध्यान देने पर उसमें से झांकते ‘पेरिस–ब्यूटी’ को साफ–साफ देखा जा सकता था। अब बारिश बन्द हो जाने से आसमान साफ हो गया था। खिड़की के पास बैठे होने से खिड़की से छन–छन कर आती धूप, कभी उस नवविवाहिता के माथे, तो कभी उसकी हथेलियों पर आड़े–तिरछे पड़ रही थी। उसके हाव–भाव से ऐसा लगता, जैसे कि वो मोहतरमा घंूॅूघट के अंदर से अपने आसपास बैठे यात्रियों को टुकुर–टुकुर ताकती भी जा रही थीं। सीट पर आमने–सामने बैठे होने से नवविवाहिता और मथुरादास के बीच ज्यादा फासला भी नहीं था। ‘लेडीज–फिंगर’ के मानिन्द पतले सिरों वाले उसकी उंॅगलियों के सभी नाखूनों पर चमकदार नेल–पाॅलिश, पूरी शिद्दत से खिल रहा था। हाथों–पैरों को देखने से, उसकी उम्र के बारे में अंदाजा लगाया जा सकता था। उसकी उम्र यही कोई बीस से पच्चीस बरस के आसपास की रही होगी।…‘‘आपके पांॅव देखे…’’ जी हांॅ…उसे देखते, मथुरादास के जेहन में यक–ब–यक यही संवाद उभरा।…‘‘रूख से जरा नकाब उठा दो मेरे हुजूर…’’ उन्हें ऐसा ही कुछ गुनगुनाने का मन भी हुआ। पर ये तो धृष्टता होती। कहीं आसपास बैठे यात्री, उन्हें ऐसा कहते, गुनगुनाते सुन लेंगे तो क्या कहेंगे? वो मथुरादास की इस ढ़िठाई पर उन्हें आड़े हाथों भी ले सकते थे। नवविवाहित जोड़े को देखते, जिज्ञासुमन मथुरादास के मन में किसी बहाने, एकबारगी उनसे बतियाने, उनका परिचय जानने की उत्सुकता हुई। उनका ये भी मन हुआ कि बहाने से ही पूछ लंूॅ,…‘आप लोग कौन हो? कहांॅ से आ रहे हो? लखनऊ में कहांॅ जाना है? मैं एक लेखक हंूॅ। अपने विभिन्न स्थलों की यात्रा के अनुभवों पर आधारित एक संस्मरण लिख रहा हंूॅ। आप लोगों से मुलाकात और बातचीत के आधार पर आपके बारे में भी कुछ लिखना चाहंूॅगा।’…परन्तु झिझक या कह लीजिए संकोचवश वे ऐसा कुछ भी कह नहीं पाये। उन्हें ये भी तो आशंका थी कि सार्वजनिक रूप से पूछी गयी ऐसी बातों पर वो दम्पति या साथी यात्रीगण, पता नहीं उनके बारे में क्या सोचें? फिर, साथ में उनकी पत्नी और बिटिया भी तो बैठे थे। पता नहीं वो उनके बारे में क्या धारणा बना लें? दो–तीन बार तो पत्नी, जो उनके रग–रग से वाकिफ होने का दावा करती हैं, ने उस दम्पति के हाव–भाव पर गौर करते, मथुरादास को उनकी ओर एकटक देखते, उन्हें घूरकर देखा भी था। देखा जाय तो…कभी–कभार, एक–दूसरे को देखते हुए लोगों को देखना, उनकी बाॅडी–र्लैंवेज के आधार पर ये अंदाजा लगाना कि वे क्या कुछ सोच रहे होंगे, खासा दिलचस्प अनुभव हो जाता है। हांॅ, पर गरज ये भी कि उतने समय आप अपनी तरफ किसी को घूरता हुआ देखना न चाहते हों। मथुरादास उस समय कुछ ऐसे ही मंजरेआम में खोए हुए थे। ‘‘ये देखिये भाई जी! बच्चे कितने क्यूट लग रहे हैं न?’’ ‘‘अरे वाह! और उनके पिता भी।’’ ‘‘कोई ऐतिहासिक जगह लग रही है? थोड़ा जूम कीजिए। पीछे शायद बिल्डिंग के निर्माण का वर्ष लिखा दिख रहा है।’’ ‘‘अट्ठारह सौ छियासी? अरे वाह! आपका अंदाजा बिलकुल सही था। काफी पुरानी बिल्डिंग है।’’ ‘‘मानते हैं न! मेरी नजर अभी भी तेज है?’’ ‘‘सो तो है। वैसे, बढ़िया जगह है। आप भी घूम आइये। बच्चों से मिलना–जुलना, साथ ही घूमना–फिरना भी हो जायेगा?’’ ‘‘अरे भई, अपनी किस्मत में कहांॅ ये सब? ऊपर से गठिया–हवा–बतास की दिक्कत अलग से है। अब तो सीढ़ियांॅ चढ़ने में घुटनों में भयंकर दर्द होने लगता है।’’ ‘‘चलिए, छोड़िये खैर…। अब आप इन तस्वीरों पर कुछ अच्छा सा कमेण्ट तो लिख ही दीजिए।’’ ‘‘कैसे कमेण्ट्स?’’ ‘‘जैसे…क्यूट, आॅसम, वेरी यंग, वेरी नाइस…वगैरह–वगैरह।’’ ‘‘अरे! नहीं भई, मुझे इस तरह के बेवजह के कमेण्ट्स लिखने की आदत नहीं।’’ ‘‘भई वाह! आजकल तो फैशन हो गया है। व्हाट्सएप, सोशल–मीडिया पर आये ऐसे संदेशों पर लाइक, कमेण्ट्स, आदि लिखना–भेजना?’’ ‘‘भई देखिये! ये सब बातें मुझे प्रभावित नहीं करतीं। फिर जब वो लोग मुझसे बात नहीं करते, तो मैं भला क्यों ऊल–जलूल कमेण्ट्स लिखता फिरूंॅ? अब तो हम सिर्फ सोशल–मीडिया पर फे्रण्डस भर हैं, इससे ज्यादा कुछ नहीं।’’ दो अधेड़ से सज्जन, जो शायद मित्र रहे होंगे, मोबाॅयल पर आये व्हाट्सएप संदेश को देखते–दिखाते आपस में बतिया रहे थे। उनके बीच हो रही आपसी बातचीत से मथुरादास ने ये भी अंदाजा लगा लिया कि वे दोनों अलग–अलग राजनीतिक पार्टियों के समर्थक हैं। मथुरादास मन–ही–मन सोच रहे थे…कितना अजीब है न! हम अजनबियों को थोड़ी ही देर में पूरी तरह समझने–बूझने का दावा करने लगते हैं, जबकि बगल बैठी पत्नी, अपने नाते–रिश्तेदारों, मित्रों आदि जान–पहचान के लोगों को तो वो कब से जानने–समझने की कोशिश करते रहे हैं, पर कितना जान पाये, उन्हें खुद नहीं पता। खैर…। अब उन दोनों सज्जन की तरफ से नजरें हटाते मथुरादास ने एक सरसरी निगाह डिब्बे में बैठे, खड़े, तो कुछ ऊंॅघते हुए अन्य यात्रियों पर फेंकी। ज्यादातर यात्री खिड़की के उस पार दिखते, पीछे भागते मकान–दुकान, खेत–खलिहान, पोखर, चरागाहों में चरते जानवरों से बेपरवाह, कानों में मोबाॅयल के ईयर–फोन ठंूॅसे, अपने आप में मगन…शायद अपना–अपना मन–पसन्द गाना सुनने में व्यस्त थे। खस–खस दाढ़ी मंूछों में, क्लीनशेव से संभ्रान्त दिखते, लम्बे, ठिगने, भीमकाय शरीर वाले, तो कुछ देहाती वेशभूषा में, विविधता में एकता का चित्र प्रस्तुत करते, हर तरह के यात्रियों को देखना, उनकी बातें सुनना एक विलक्षण अनुभव से गुजरने सरीखा तो है ही। मथुरादास ने गौर किया कि डिब्बे में उस वक्त नवविवाहित जोड़े के मोहाविष्ट कितने ही यात्री निहायत ही सभ्य तरीके बतिया रहे थे। कुछ लोग तो देश–दुनिया के ताजा हालात पर अपने दुनियावी ज्ञान का पिंटारा खोले हुए थे, तो कुछेक ने यह जानकारी भी दी कि उनके यहांॅ कितने बीघे पुदीने आदि की खेती होती है। बहरहाल…ट्रेन चलने को हुई। मानुष स्वभाव…आसपास मर्दुम–शनास नजरें, नवविवाहिता के मेहंदी रचे हाथ, आल्ता रचे पैरों को देखते, यात्रीगण शायद…उसके रंग–रूप की कल्पना में भी खोए हुए थे कि…‘‘हमें प्यास लगी है। पानी पीना है।’’ घंॅूघट के अन्दर से आवाज आयी। ‘‘अरे! साथ में पानी लेकर चलना तो हम भूल ही गये? अब तो टेªन भी चल दी है। डिब्बे में कोई पानी की बोतल बेचने वाला भी नहीं दिख रहा। थोड़ा इत्मिनान रखो। अगले स्टेशन पर टेªन रूकने पर ही अब पानी मिल सकेगा।’’ बगल बैठे दूल्हे ने नवविवाहिता को अपने तरीके ढ़ांॅढ़स बंॅधाया, और जेब से एक टोपी निकालकर अपने सिर पर लगा लिया। ‘‘आण्टी की आवाज कितनी स्वीट है ना?’’ मथुरादास की बेटी अपने पिता से मुखातिब हुई। ‘‘आंॅय…?’’ दाहिने बगल बैठी मथुरादास की बेटी के इस प्रश्न को वो सुन नहीं सके या शायद…उन्हें ठीक से सुनाई नहीं दिया। ‘‘बिटिया कह रही है कि दुल्हन की आवाज बहुत स्वीट है।’’ इस बार मथुरादास के बगल बैठी पत्नी ने सामने की सीट पर बैठे उस दम्पति के हाव–भाव, बोली–बानी सुनते उनके कानों में धीरे से ये मंत्र फंूॅका। ‘‘आंॅय?…क्या कहा?’’ ‘‘आपसे तो कुछ कहना ही बेकार है। धीमें कहिये तो सुनाई नहीं देगा, पर कुछ बातें यहांॅ जोर से सबके सामने कह भी तो नहीं सकती।’’ पत्नी ने नाक–भौं सिकोड़ते कहा। ‘‘अच्छा! थोड़ा और नजदीक आकर बायीं तरफ वाले कान में बताओ।’’ मानो, उन्होंने पत्नी का काम आसान किया हो। ‘‘बिटिया कह रही है कि दुल्हन की आवाज कितनी स्वीट है ना?’’ मथुरादास की पत्नी ने थोड़ा नजदीक आते, फुसफुसाते हुए उनकी बायीं कान में कहा। ‘‘हुंॅह…?’’ इस बार मथुरादास ने सजगतापूर्वक तर्जनी उंॅगली अपने होठों पर रखते, आंॅखें तरेरते, पत्नी को चुप रहने या धीमें बोलने का इशारा किया। ‘‘मुझे पता है, आप किन खयालों में खोए होंगे?’’ ये बात उनकी पत्नी ने तनिक शरारती अंदाज में कहा था। बगल बैठी बिटिया भी सिर्फ मुस्कुरा कर रह गयी। प्रतिक्रियास्वरूप झेंप मिटाने वास्ते मथुरादास को स्वभावतः अपनी नाक खुजाने का अभिनय करना पड़ा। ‘‘अरे यार, लिखने–पढ़ने वाला आदमी हंूॅ। आसपास के प्रति हरवक्त सतर्कढग रहना पड़ता है। चीजों, घटनाओं, देश–काल–स्थिति–परिस्थितियों पर बारीक नजर रखते, गहन पड़ताल करनी पड़ती है, तब कहीं जाकर कुछ लिखने लायक ‘क्लू’ मिल पाता है। फिर, यात्राएं तो विविध अनुभवों का भण्डार होती हैं। पता नहीं किस भेष में कैसे–कैसे लोगों से मिलने–बोलनेाने का अवसर मिल जाये?’’ मथुरादास ने अपने तरीके पत्नी को समझाने का असफल प्रयास किया। ‘‘आप मुझे बेवकूफ समझ रहे हैं? मुझे बता रहे हैं? जो आपकी नस–नस से वाकिफ है। मुझे अच्छी तरह पता है, आपकी सतर्कढग नजर के बारे में। बड़े आये बारीक नजर वाले।’’ पत्नी ने बनावटी गुस्सा दिखाया था। ‘‘अच्छा! तो तुम भी इन मोहतरमा के रंग–रूप में खोयी हुई हो?’’ मानो मथुरादास ने अपने कुतर्क को तर्कपूर्ण साबित करने की कोशिश की हो। ‘‘मैं ही क्यों, जरा अपने अगल–बगल बैठे इन यात्रियों को भी तो देखिये। ऐसा लग रहा है कि सभी की आड़ी–तिरछी नजरें उसी ओर लगी हैं। फिर…हाथ–पांॅव देखकर तो रंग–रूप के बारे में अंदाजा लग ही जाता है।’’ पत्नी ने तनिक मुस्कियाते, इशारों में ही धीमें से जवाब दिया। ‘‘शायद…तुम्हारा अंदाजा ठीक ही है।’’ मथुरादास ने भी सहमति में सिर हिलाया। ‘‘पर मैं देख रही हंूॅ…पचास से ज्यादा उमर हो गयी। बच्चे जवान हो गये हैं। लेकिन, आपकी भी ताक–झांॅक वाली आदत अभी गयी नहीं।’’ इस बार मथुरादास की पत्नी ने अपनी भृकुटियांॅ टेंढ़ी करते कहा था। ‘‘अरे यार! जरा धीमें बोलो? अपने आसपास के प्रति जागरूक रहने में कोई बुराई नहीं है। फिर ज्ञान के लिए, जिज्ञासु होना बहुत जरूरी है। वैसे भी…यात्राओं के समय तो खासतौर सतर्क रहना चाहिए।’’ मथुरादास ने पत्नी की ओर देखते, तनिक रोष जताते उन्हें अपने तरीके समझाने का प्रयास किया था। पुरूष क्या, वहांॅ बैठी महिला यात्रियों के भी हाव–भाव देखते, उनकी बातचीत सुनते, साफ लग रहा था कि सभी उन मोहतरमा के व्यामोह में खोए हुए थे। मथुरादास व उनकी पत्नी के बीच ये खुसर–फुसर चल ही रही थी कि टेªन अगले स्टेशन पर रूकी। ‘‘क्या यहांॅ पानी मिल जायेगा?’’ नवविवाहिता ने अपने पति को कुहनी मारी, पर उसने ध्यान नहीं दिया। फिर उसने अपनी उंॅगली से पति के पेट में कोंचते हुए कहा। ‘‘हांॅ–हांॅ…देखता हंूॅ…। शायद, पानी मिल जाये। मनीष! तनिक सामान देखे रहना, मैं पानी लेने जा रहा हंूॅ?’’ दूल्हा युवक, दुल्हन के भाई को बैग–बैगेज देखते रहने की हिदायत देते वहांॅ से जाने को उद्यत हुआ। युवक के प्लेटफाॅर्म पर उतरने के बाद, नवविवाहिता अपने हाथ में लिए मोबाॅयल फोन में कुछ देखने लगी। ‘‘ये लो…पियो। थोड़ी मेरे लिए भी बचा देना। पानी वाले के पास सिर्फ एक ही बोतल बची थी।’’ अगले ही पल वो युवक प्लेटफाॅर्म स्थित दुकान से मिनरल वाटर की एक बोतल बगल में दबाये हाजिर हुआ। ‘‘क्या यहांॅ खाने को भी कुछ मिलेगा? मुझे भूख लगी है।’’ नवविवाहिता ने अपने पति की तरफ सिर घुमाते कहा। ‘‘अरे! भई, यहांॅ स्टेशन पर क्या होगा, सिवाय तले–भुने हुए खाद्य–पदार्थों के?’’ दूल्हे ने अपनी दुल्हन की ओर प्यार से देखते हुए कहा। ‘‘लेकिन मुझे जोरों की भूख लग रही है। मुझे भुट्टा खाने का मन है।’’ नवविवाहिता ने प्लेटफाॅर्म पर भुट्टा सेंकते, खिड़की के बाहर एक फेरीवाले की ओर उंॅगली से इशारा करते हुए कहा। लेकिन तभी टेªन ने सीटी दे दी। ‘‘अब तो टेªन चल दी है। अगले स्टेशन पर देखता हंूॅ। शायद, कुछ और भी बढ़िया खाने लायक चीज दिख जाये?’’ ट्रेन चल दी थी। लगभग बीस मिनट बाद अगला स्टेशन आ गया। टेªन रूकते ही वो युवक नीचे उतरा। इस बार वो लगभग ढ़ाई सौ ग्राम मंूॅगफली लेकर हाजिर हुआ। ‘‘यहांॅ भुट्टा नहीं मिला। लेकिन ये मंूॅगफली मिली है। साथ ये चटनी भी। उस मंूॅगफली वाले के यहांॅ खासी भींड़ थी। पूछने पर वहांॅ खड़े लोगों ने बताया कि सारा कमाल उसकी चटनी का ही है। सो मैं भी लेता आया। अब तुम मंूगफली संग यही खाओ और बताओ इस चटनी का स्वाद कैसा है?’’ उस युवक ने विवाहिता की गोद में मंूॅगफली का ठोंगा रखते, मुस्कियाते हुए कहा। विवाहिता ने भी बिना किसी ना–नुकुर के मंूॅगफलियांॅ अपने बगल में रखते, उसमें से एक मुट्ठी बगल बैठे अपने भाई को देते, जब अगली मुट्ठी अपने पति को…‘‘थोड़ा सा आप भी लीजिये’’…कहते देना चाहा तो…‘‘मुझे अभी भूख नहीं लगी है। तुम्हीं खाओ।’’ कहते उसके पति ने मंूॅगफली लेने से मना कर दिया। बहरहाल, नवविवाहिता को जोरों की भूख लगी थी। उसने पति को मंूॅगफली खाने के लिए जोर न देते, चटनी संग मंूॅगफलियांॅ टंूॅगने में व्यस्त हो गयी। अब उसके पति ने सिर से टोपी उतारते, अजीबोगरीब तरीके अपना सिर खुजाया, फिर टोपी पहन ली। पता नहीं साथ बैठे अन्य यात्रियों को उनकी ये हरकतें, उनके बीच का निश्छल प्यार दिखा या नहीं? या दिखा तो उन्होंने कैसा महसूस किया? मथुरादास इन्हीं सब उधेड़–बुन में लगे हुए थे। ‘‘भइया को मना कर दीजिए, गिर जायेगा।’’ नवविवाहिता का भाई, जिसने एक–दो बार गेट पर लगे पाइप के सहारे, बोगी से बाहर झांॅकते, हवाखोरी करना चाहा था, तो उसने अपने पति से उसे ऐसी हरकतें करने से रोकने वास्ते कहा। साफ लग रहा था विवाहिता को एक तरफ अपने पति के भूख की चिन्ता थी, तो दूसरी ओर अपने भाई की सुरक्षा की भी चिन्ता थी। इतनी देर की यात्रा के दौरान मथुरादास को अपने अगल–बगल बैठे यात्रियों की देहभाषा से इतना तो अंदाजा हो गया था कि उनकी ही तरह वहांॅ बैठे अन्य यात्रियों की भी नजर उस नवदम्पति की बातचीत, उनके क्रिया–कलाप, हाव–भाव पर भी थी। शायद…इसका अहसास उस नवविवाहिता को भी था। तभी तो उस दौरान वहांॅ मौजूद मर्दुम–शनास नजरों को बखूबी पढ़ते, मंूॅगफली खाने की कवायद में नवविवाहिता का घंूॅघट एक इंच भी टस–से–मस नहीं हुआ। कमाल ये भी कि अगस्त महीने की उमस भरी गर्मी में भी पूरे समय बिना अपना घंूॅघट हटाये, वो बड़ी ही कुशलता से मंूॅगफलियांॅ खाती रही। अगले स्टेशन पर टेªन में चढ़ने वाले यात्रियों की भींड़ कुछ ज्यादा ही थी। भींड़ का एक रेला–सा डिब्बे के अन्दर आया। ‘हत्त् तेरे की, धत्त् तेरे की…अभी देखता हंूॅ तुझको?’ कहते–सुनते, गुत्थम–गुत्था हुए यात्रियों में बैठने वास्ते, सीट छेंकने की होड़ सी मच गयी। किसी को कुहनी लगी, तो किसी का पैर दब गया। किसी का चश्मा टूटने से बचा, तो किसी ने थोड़ी–बहुत फब्तियों, गाली–गलौज से ही काम चलाया। पर तभी डिब्बे में दो पुलिस वालों को करीब आता देख, हंगामा एकदम से शान्त हो गया, और देखते–देखते भींड़ के बीच ही उन दो पुलिस वालों को सीट पर बैठने की जगह भी मिल गयी। ‘‘ये लो ठण्डे पानी की बोतल।’’ एक बुजुर्ग यात्री ने प्लेटफाॅर्म पर खड़े–खड़े ही, खिड़की के समीप बैठी अधेड़ सी महिला को पानी की बोतल थमाते हुए कहा। ‘‘यात्रा में किसी अजनबी से खाने–पीने की चीजें नहीं लेते।’’ सामने बैठे एक बुजुर्गवार ने उस महिला को समझाना चाहा। ‘‘ई हमार हंसबण्ड (हसबैण्ड) हैं।’’ उस महिला के कहने के अंदाज से डिब्बे में बैठे बाकी यात्री खिलखिलाकर हंॅस पड़े। अब टेªन लखनऊ जंक्शन पर खड़ी थी। ‘‘ऐ जी!’’ मथुरादास सपरिवार टेªन से उतर कर धीरे–धीरे प्लेटफाॅर्म पर चलते, स्टेशन के बाहरी गेट की ओर बढ़ ही रहे थे कि उनकी पत्नी ने मथुरादास का ध्यान भंग किया। ‘‘हांॅ, जी।’’ उन्होंने पत्नी की तरफ उत्सुकता भरी निगाह डाली। ‘‘जरा उधर देखिये!’’ उनकी पत्नी ने एक तरफ इशारा किया। ‘‘किधर?’’ ‘‘उधर, उस गुमटी के पास खड़ी दुलहिन को देखिए?’’ टेªन वाली नवविवाहित जोड़ी उन्हें फिर से दिख गयी। पर, इस समय नवविवाहिता ने अपना घंूॅघट हटा रखा था। मथुरादास उसे एकटक देखते ही रह गये। एकबारगी तो उन्हें अपनी नजरों पर यकीन ही नहीं हुआ। ‘‘बिहैव योर सेल्फ पापा! आगे देखिये! नहीं तो प्लेटफाॅर्म पर अभी किसी से भिंड़ जायेंगे?’’ बिटिया ने उन्हें फौरन ही झिंझोड़ा था। मथुरादास अपने बहुचित्तेपन से फौरन ही वापस आये। एक पल के लिए उनका मन गहरे क्षोभ और ग्लानिभाव से भर उठा। खैर…इन्सान तो है ही गलतियों का पुलिन्दा। देश–काल–स्थिति–परिस्थितियोंवश, अच्छे–बुरे खयाल भी तो एक तरह से उसके मन की ही उपज हैं। …‘यात्रीगण कृपया ध्यान दें…’ इस उद्घोषणा पर मथुरादास की तन्द्रा भंग हुई। देखा जाय तो…जीवन रूपी इस सफर में हम सब यात्री ही तो हैं, जो मिलते– बिछुड़ते– रूकते– चलते, कुछ पल सोचते, ढ़ेरों खट्टे–मीठे अनुभवों से दो–चार होते, आगे बढ़ते ही रहते हैं। मथुरादास इसी उधेड़–बुन में और उस नवविवाहिता के बारे में सोचते प्लेटफाॅर्म पर चलते चले जा रहे थे। उन्होंने अभी–अभी एक ऐसा जोड़ा देखा था, जिनका प्यार अगर सागर से गहरा था, तो आसमान से ऊंॅचा भी था, जो सुन्दरता नहीं बल्कि भावना और आपसी विश्वास पर टिका था। रंग और रूप से परे सच्चा भावनात्मक प्रेम उन्हें उस जोड़े में दिखा था। यात्रा के दौरान नवविवाहित जोड़े द्वारा रास्ते–भर एक–दूसरे के भूख–प्यास का खयाल रखने, कानपुर स्टेशन पर चलते समय, उनके घर वालों, रिश्तेदारों की हिदायतों को याद करते, उस दम्पति के प्रति उनका मन–मस्तिष्क अनायास ही सम्मान से भर उठा। उनके जेहन में बहुत कुछ धुलने और घुलने भी लगा था। कानपुर से चलते समय, बिटिया के इन्जीनियरिंग–काॅलेज में एडमिशन सम्बन्धी कौंसलिंग आदि को लेकर जो कुछ भी दिन–भर का खट्टा–मीठा अनुभव रहा था, यात्रा के दौरान उस दम्पति की बातचीत, उनके क्रिया–कलाप, उनके हाव–भाव, और उस नवविवाहिता को अभी–अभी देख, वो सब कुछ भूल बैठे थे। गाहे–बगाहे सुनी–पढ़ी, एसिड अटैक सर्वाइवर्स से जुड़ी ढ़ेरों घटनाएं, मुद्दे, अमानवीय त्रासदी, उनका संघर्ष, उनके दर्द की भयावहता, मानो किसी चलचित्र की भांॅति मथुरादास की आंॅखों के सामने घूम गये। उस दम्पति का निर्णय, चुनौतीपूर्ण जीवन, उनका ये कदम जो निश्चय की सकारात्मक संदेश देने वाला था, एक मिसाल बन सके। उनके जीवन की गाड़ी अपनी पटरी पर निरन्तर चलती रहे। उनके जीवन में सुख–समृद्धि बनी रहे। उन्हें मन–ही–मन दुआ देते, वो पत्नी, बिटिया संग स्टेशन से बाहर आ गये। संबंधित लेखलेखक की और रचनाएं सुमन बाजपेयी की कहानी – चोर दरवाजे के भीतर प्रत्यक्षा की कहानी – तब तक कल्पना में हम्फ्री बोगार्ट चलेगा राजीव तनेजा की कहानी – डेढ़ सयानी मूँछ कोई जवाब दें जवाब कैंसिल करें कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें! कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें आपने एक गलत ईमेल पता दर्ज किया है! कृपया अपना ईमेल पता यहाँ दर्ज करें Save my name, email, and website in this browser for the next time I comment. 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