समुद्र का मंथन
समुद्र के किनारे रेत पर
टहलते टहलते ……
गुनगुनाये जा सकते है
गीत
उकेरे जा सकते है
प्रेम संदेश या प्रिय का नाम
पर कौन ले पाता है
थाह समुद्र की गहराई का
लहरे ……..
केवल सतह ही नही होती
वे मथती रहती है
खुद समुद्र को भी गहराई तक
दिन -ओ- रात
निकल चुका है मंथन का विष
निकल चुका है मंथन का अमृत
पर मंथन अब भी जारी है
नही चाहता समुद्र भी
अब ऐसे वरदान
फिर भी करता रहता है
मंथन स्वंय का दिन रात
समुद्र अकेले अकेले अकेले……..

माँ तुम क्यों नही बोली

निर्ममता से जीवन
खत्म करने के कंस भाव
मेरी गर्दन के आसपास डोले
चीखी-डरी-सहमी
नाल के इर्द गिर्द लिपट गई
सिसक सिसक कर टूट गया
नन्हा मासुम प्राणो का स्पंदन
ना दरकी माॅ तुम्हारी छाती
आॅखो से नही अश्रुदल बोले
रंगा खुन से हाथ देख
नही किया तुमने कोई क्र्रंदन
मै तुम्हारी ही छाया थी
खुद ने ही खुद को छला
अपनी ही अंश कृति को
फंासी पर चढा
तुम्हारा मन
बचाने को क्यो नही डोला
माॅ !
तुम क्यो नही बोली
क्या तुमने भी ओढ लिया
एक अदद बेटे की चाह का चोला

आज का युवा संदर्भ
लांघ रही है
देहरिया
जवा उम्र
टूट रही है वर्जनांए
नशे मे डूब रही
नई -नई
सर्जनांए
नन्हा सृजन
संसार मे आने को
आतुर
जांच के शिंकजे पर
वह चुन-मुन
बेटियो के नाम पर
काट डाली है
नाल से
कोपल सी रचनांए
विवाह सप्तपदी
पीढियो से रचे बसे संस्कार
रिश्तो की दरक रही जमीन
किंवा अभिशप्त हुई पंरपराए
दहेज तलाक
मैत्री संबध
जन्म लेती
युवाओ मे नई नई विधाए
क्रिंच क्रिच बिखर रही
पारिवारिक सदांए
पीढियो से संजोये
मूल्यो की हो रही वंचनाए

वह
प्रेम की आग के कानन में
धधकती चूल पर चलकर
कुंदन बने हैे वह……..।

जीवन के
नंदन वन में
विष वेलियो को
पी पी कर
अमृतन बने हैे वह…….।

मेरे अणु अणु के
स्पंदन में
अनहद नाद से
बस कर
अभिनंदन बने हैे वह……….।

झांझ की ताल पर
उन्होने जब भी
स्नेह संदेशे गुनगुनाए है
आलोक की पंक्तिया
हीरकनियो सी दमक उठी
जगमग वंदन बने है वह……..।

एक नन्हा दीप शुभकामनाओ का अर्पित उन्हे
क्योकि….., वह
वक्त को स्नेह पर्व में
पिरोने का साहस कर पाए ……..।

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