एक नशा बन समा गये हो जहन में 

यह कैसा नशा है कि भरता नहीं 

तुम छलकने की बात करते हो 

दिल की जकड़ इतनी ज्यादा बढ़ गयी है

कि कोई पल ऐसा होता ही नहीं  

जब तुम ख्यालों के दस्तक से 

एक पल भी दूर रह सको 

बहकने लगी हूँ 

सिमटने लगी हूँ 

स्वयं से दूर होकर तुम में मिलने लगी हूँ 

पंख को यह कैसी हवा दे दी है तुमने 

कि तुम तक उड़ जाता है मन 

बिन तुम्हारी इजाजत तुम्हारा संदेश 

ले आता है मन 

पढ़ लेती हूँ खिल जाती हूँ 

फिर ना जाने क्या सोच उदास हो जाती हूँ 

पिछली रात आँसुओं ने बिस्तर भिगो दिया था 

बिरह ने दर्द का प्याला पिला दिया था 

तुम आये सपनों में देर तक 

चले गये एक घूँट अपने प्रेम का जाम पीकर 

क्यों इतनी याद आ रही है 

अब और तुम्हारा नशा सहन नहीं हो रहा है 

छलक जाओ या छलका दो मुझे जी भर पीकर 

खाली कर दो खुद का भरा जाम छलका कर… 

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