सोशल मीडिया के आने और कंप्यूटर के सर्वांगीण विकास होने से पहले भारत और दुनिया के तमाम मुल्कों में ऑफलाइन (मुद्रित) पत्रिकाओं का बोलबाला था। अपने देश में भी सभी लोग हिंदी पत्रिकाओं पर निर्भर थे। सभी बड़े चाव से पत्रिका के आगामी अंक आने का बेसब्री से इंतज़ार करते रहते थे। दिल्ली और गिने-चुने बड़े शहरों में पत्रिकाओं के दफ़्तर होते थे और संपादक महोदय की तूती बोलती थी। 2008 ईस्वी में फेसबुक का पदार्पण हुआ। फेसबुक और सोशल मीडिया के आने के बाद दूसरे क्षेत्रों की तरह साहित्य भी इससे अछूता नहीं रहा। साहित्य पर भी सोशल मीडिया का गहरा असर पड़ा। मेरे कई बुज़ुर्ग लेखकों को कई सालों तक सोशल मीडिया और ऑनलाइन पत्रिका बकवास लगते थे। वे इससे दूरी बनाकर रहना पसंद करते थे।
एकला चलो रे एकला चलो। वे सोशल मीडिया की ख़ूब खिल्ली उड़ाते थे। उन्हें आधुनिक तकनीक भद्दी मज़ाक़ लगती थी। जब ज़्यादातर तादाद में नौजवान सोशल मीडिया से जुड़े और कुछ युवाओं ने सोशल मीडिया के सहारे अपनी किताबों का प्रचार करके कामयाबी हासिल की और नये युवा पाठक भी अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिंदी साहित्य से भी जुड़े, नये पाठक वर्ग भी बने तो बुज़ुर्ग लेखकों ने भी आख़िरकार निराश होकर सोशल मीडिया का सहारा लिया। अभी तक भी कई लोग सोशल मीडिया को साहित्य के लिए बाधा मानते हैं। उनका तर्क है कि सोशल मीडिया के माध्यम से अच्छी रचना सामने नहीं आती है। सोशल मीडिया क्षणिक है।
अच्छे साहित्यकार सोशल मीडिया पर नहीं भटकते। किंतु कुछ सालों में यह मिथक भी धराशायी हो गया। कई नये लेखक मित्रों को जब कहीं किसी अच्छे प्रकाशन और देश के नामी-गिरामी पत्रिकाओं में जगह नहीं मिली तो ख़ुद से फेसबुक और दूसरे सोशल साइट पर रचनाएँ डालकर युवा पाठकों का ध्यान अपनी तरफ़ आकृष्ट किया और बाद में उसकी लोकप्रियता को देखते हुए देश के अच्छे प्रकाशकों और पत्रिकाओं ने उन्हें छापा भी। पाठकों ने भी उन्हें ख़ूब सराहा। इससे तो यह स्पष्ट है कि सोशल मीडिया ने सारे मिथकों और पूर्वाग्रहों को धराशायी कर दिया है। 
अब मैं साहित्य के गढ़ दिल्ली की तरफ़ आता हूँ। देश की राजधानी होने के नाते दिल्ली हमेशा से प्रकाशकों और पत्रिकाओं का गढ़ रहा है। बड़े-बड़े लेखक और संपादक भी यहीं पनाह गज़ीन रहे हैं। 2006 ईस्वी से पहले देश के दूर-दराज़ इलाक़े के लेखक मित्रों और विदेश में रहकर भी हिंदी की सेवा करने वाले मित्रों की बहुत दुर्दशा होती थी। अपना देश सिफ़ारिशों और जुगाड़ का देश है। बगैर सिफ़ारिश और जुगाड़ के कोई काम नहीं होता। प्रतिभा के साथ-साथ सिफ़ारिश, जुगाड़ और अच्छी पारिवारिक पृष्ठभूमि भी लाज़िमी है, जो मेरे जैसे युवा लेखकों के पास नहीं है। आख़िर हम क्या करें? दिल्ली में साहित्य के बड़े-बड़े मठाधीश बैठे थे। हिंदी पत्रिकाओं की बागडोर भी उन्हीं के हाथों में थी। कई दफ़े कुछ नवोदित लेखकों की रचना संयोग से कंटेंट के दम पर ख़ुद से छप जाती थी, किंतु कई लेखकों की रचना को पत्रिकाओं में जगह नहीं मिलती थी।
कई मित्रों को सिफ़ारिश के लिए बड़े मठाधीशों और संपादक मित्रों की जी हज़ूरी करनी पड़ती थी। ऐसे नवोदित लेखकों का दिल्ली में ख़ूब शोषण भी होता था। वे उस ज़माने में बड़े दरख़्त के छाये से कभी उभर नहीं पाते थे। देश में पत्रिका और प्रकाशक भी कम थे। कई अच्छी रचनाओं को भी बड़ी पत्रिकाओं में जगह नहीं मिल पाती थी। पहले यह भी एक धारणा थी कि हंस और कथादेश जैसे पत्रिकाओं में आपकी रचना नहीं छपती है तो बड़े प्रकाशक आपको नहीं छापेंगे। इसी कारणवश हर कोई इस तरह की बड़ी पत्रिकाओं में अपनी रचना छपवाने के लिए एड़ी-चोटी के पसीने बहाते थे। तरह-तरह की जुगाड़ नीति के सहारे भी लेते थे।
फिर भी कई बार अच्छी रचनाओं को इन पत्रिकाओं में जगह नहीं मिल पाती थी। कई मित्र देश के दूर-दराज़ के इलाक़े से अपने मटमैले झोले में अपनी बहुमूल्य रचना, सत्तू-नमक, आटा लेकर ट्रेन में बैठकर दिल्ली तक आ जाते थे। कई मित्र जो विदेश में रहकर लिखते थे, वे डॉलर में महंगे कॉल करके संपादक महोदय को अपनी रचना पोस्ट से भेजने की जानकारी देते थे। लाख कोशिशें करने के बावजूद कई मित्रों को निराशा हाथ लगती थी। संपादक की भी अपनी ख़ास पसंद होती थी और कई प्यारे महान संपादक, प्रकाशक और महान लेखक मित्र मंडली पूर्वाग्रहों से भी ग्रसित होते थे, जिसकी वजह से भी कई अच्छी रचना अपने प्यारे चहेते पाठकों तक पहुँचने से पगले दम तोड़ देती थी। इस तरह अच्छी प्रतिभा और अच्छी रचना का सत्यानाश हो जाता था।
हिंदी साहित्य अंग्रेज़ी और दूसरे यूरोपी साहित्य के सामने उस तरह से टक्कर नहीं दे पाती थी, क्योंकि हिंदी में विविधता और नवीनता का घोर अभाव था। युवा पाठक नयी जानकारी के लिए अंग्रेज़ी का सहारा लेते थे। वे आज बड़ी तादाद में हिंदी में भी किताबें पढ़ रहे हैं। आज कम-से-कम हिंदी की चौखट पर विविधता भी दस्तक दे रही है और तकनीक के विकास से युवा लोग बड़ी संख्या में सोशल मीडिया पर देवनागरी और दूसरी भारतीय लिपियों में टाइप कर रहे हैं। तकनीक की कृपा से लिपि का फैलाव भी सुलभ हो गया है और इससे मर रही दूसरी भारतीय भाषाओं और हिंदी में खून का संचार होने लगा है। हिंदी में भी नये जोश और जान आ गये हैं। आज की अदबी फ़िज़ा में अहमतरीन तब्दीली आ गयी है। आज हम सकारात्मक हैं। 
 कंप्यूटर, लैपटॉप, टेबलेट, सोशल मीडिया, एंड्राइड फ़ोन, यूनिकोड वगैरह के विकास होने के बाद अब हम ऑफलाइन नामी-गिरामी पत्रिकाओं के मोहताज नहीं रहे। हम घर बैठे ही अपनी रचनाओं को देश-विदेश में पहुँचा सकते हैं। ऑनलाइन पत्रिकाओं के आने के बाद ऑफलाइन पत्रिकाओं का वह दबदबा नहीं रहा। तकनीक ने उसे पीछा छोड़ दिया। आज आप बहुत आसानी से मुफ़्त में डोमेन लेकर ऑनलाइन पत्रिका चला सकते हैं। कोई बाधा नहीं पहुँचा सकता है। सोशल मीडिया पर अपनी ऑनलाइन पत्रिका का भी आसानी से प्रचार कर सकते हैं। इससे साहित्य और भाषा के विकास में भी बड़ा आँदोलन आ गया है।
यह हिंदी और दूसरी भाषा के विकास के लिए भी शुभ संकेत है। आज हिंदी सोशल मीडिया पर पढ़ी जाने वाली बड़ी भाषाओं में अहम मुक़ाम रखती है। कुछ साल पहले जो हिंदी दुर्बल और मरती ही हुई प्रतीत हो रही थी, आज मज़बूती से वैश्विक पटल पर अपनी मौजूदगी जता रही है। आज के समय में कोई भी प्रतिभा मरती नहीं है। ऑनलाइन पत्रिकाओं में छपी रचना का भविष्य भी सदाबहार है। आप कभी भी व्हाट्सअप और मैसेंजर के माध्यम से अपनी रचना के लिंक और संदर्भ दुनिया के किसी भी कोने में बैठे मित्रों को एक सेकंड के अंदर भेज सकते हैं।
ऑफलाइन छपी हुई पत्रिकाओं की इतनी तीव्र सुलभ पहुँच मुमकिन नहीं है। कागज़ के लिए पेड़-पौधे और पर्यावरण का भी बहुत बड़ा नुकसान होता है। किंतु ऑनलाइन पत्रिका में कोई ख़ास ख़र्च नहीं है। बहुत ही सुलभ है। फिर भी ऑफलाइन पत्रिका भी रहेगी। कम ज़रूर हो गयी है। उसका पुराना जलवा अब क़ायम नहीं है। आज के समय में हर रचना को सोशल मीडिया और ऑनलाइन पत्रिकाओं में जगह मिल रही है। जिस रचना में दम है और कंटेंट नया है तो कहीं से छपकर आगे बढ़ जाती है, यहाँ ऑनलाइन और ऑफलाइन नामी पत्रिका कोई मानी नहीं रखती। गुदड़ी के लाल कहीं भी छुपे हो सकते हैं। जब सोशल मीडिया नहीं था और ऑनलाइन ब्लॉग और पत्रिकाओं का जन्म नहीं हुआ था, तब भी बड़े मशहूर पत्रिकाओं में कूड़े-कचरे छपते थे और आज भी छप रहे हैं।
मेरे जैसे युवा लेखक जो कभी भी बड़ी पत्रिकाओं में नहीं छपे, फिर भी इन रचनाओं के पास अच्छे-खासे युवा पाठक वर्ग हैं। आप कहीं भी दूर-दराज़ के इलाक़े और विदेश में रहकर भी सोशल मीडिया के माध्यम से अपनी रचना को लोकप्रिय बना सकते हैं। आज न ही कोई मठाधीश है और न ही कोई बड़ी पत्रिकाओं में छपने का पुराना क्रेज़ बचा है। समय बलवान है। समय परिवर्तनशील है। ब्रह्माँड भी इसी क़ायदे-क़ानून पर चलता है और यह पृथ्वी और दुनियादारी भी।
कहानी, उपन्यास, यात्रा-वृत्तान्त आदि विधाओं पर लेखन। अबतक तीन किताबें प्रकाशित। संपर्क - rsbharti.jnu@gmail.com

2 टिप्पणी

  1. बहुत सही चित्रण किया है आपने कभी सोचा ही नही था कि हमारी रचनाएं भी इतनी जल्दी पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगेगी

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.