कैलाश बुधवार (साभार : बीबीसी)
एक समय था जब बीबीसी हिंदी, बुश हाउस और कैलाश बुधवार एक दूसरे के पर्याय थे। 
केंद्रीय लंदन स्थित बुश हाउस, उसका सैंटर ब्लॉक, पाँचवीं मंज़िल और वे कमरे जिनमें बीबीसी पूर्वी सेवा की दक्षिण एशियाई भाषाओं- हिंदी, उर्दू, बांग्ला, तमिल, सिंहला और नेपाली के प्रसारक बैठते थे। उन सबमें कैलाश जी का रुतबा अलग नज़र आता क्योंकि कैलाश बुधवार उस हिंदी सेवा के अध्यक्ष थे जिसके श्रोताओं की संख्या इन तमाम भाषाओं के मुक़ाबले में सबसे अधिक थी। लगभग चार करोड़। 
जितना बड़ा रुतबा उतनी बड़ी ज़िम्मेदारी। और जितनी बड़ी ज़िम्मेदारी, उतनी ही मेहनत का तक़ाज़ा था। 
कैलाश जी को मैंने हमेशा व्यस्त देखा- कभी फ़ाइलें पढ़ते, कभी अख़बार, कभी लिखते, कभी मीटिंग की तैयारी करते, कार्यक्रम सुनते और कभी उनपर अपनी राय देते। सर उठाने की फ़ुरसत भले न हो मगर फिर भी हर शख़्स के लिए समय निकाल लेते। अपनी टीम पर उन्हें इतना गर्व रहता कि हमारी छोटी से छोटी उपलब्धि को भी बढ़ा चढ़ाकर बाहर वालों के सामने पेश करते।
उनकी विनम्रता, उनकी सहनशीलता और ख़ुशमिज़ाजी एक मिसाल थी। उनका आत्मसंयम हम सबके लिए एक उदाहरण था। मैं समझती हूँ कि कैलाश जी की यह बहुत बड़ी ख़ूबी थी कि वह कुछ कहने से पहले शब्दों को भीतर ही भीतर नापतोल कर एक तरतीब देते ताकि कोई बात किसी को बुरी न लगे। 
उनके आत्मसंयम का एक नमूना मुझे आज तक याद है। अस्सी के दशक के अंतिम वर्षों में बीबीसी हिंदी में कई नए युवा सदस्य आए। अलग-अलग पृष्ठभूमि से आए नए पत्रकार अपने साथ नया अनुभव लाए। कैलाश जी ने युवा पीढ़ी के उत्साह और विचारों का सदा स्वागत किया। लेकिन यह भी सच है कि कैलाश जी कितने ही उदारमना क्यों न रहे हों, उनकी परवरिश एक परंपराबद्ध और संस्कारी व्यक्ति के रूप में हुई थी। और यही संस्कार उनकी भाषा में भी झलकता था। 
हुआ यूँ कि बीबीसी हिंदी की कुछ अर्से से बंद पड़ी ‘प्लेबैक सेशन’ की परंपरा फिर से शुरू करने का फ़ैसला किया गया। यानि पूरी टीम एक साथ बैठकर कोई एक कार्यक्रम सुने और उस पर विचार विमर्श करे। जब यह सवाल उठा कि पहला कार्यक्रम कौन सा हो तो कैलाश जी ने अपने साप्ताहिक स्तंभ ‘लंदन से पत्र’ का नवीनतम अंक पेश किया और कहा कि “दोस्त, सबसे पहले मैं क़ुर्बानी का बकरा बनने के लिए तैयार हूँ।” 
इस तरह की बैठकों में अपनी राय खुलकर देने की आज़ादी बीबीसी की परंपरा रही है। बहरहाल, कार्यक्रम सुना गया। कुछ ने तारीफ़ की। आलोचना के भी दो तीन स्वर उठे लेकिन भाषा संस्कार और कैलाश जी की वरिष्ठता का ध्यान रखते हुए। अचानक एक अपेक्षाकृत नए प्रोड्यूसर ने कहा:
“माफ़ कीजिएगा, पहली बात तो यह है कि मैं इसकी प्रासंगिकता नहीं समझ सका। आज के ज़माने में कौन सुनता है ऐसा कार्यक्रम? और दूसरी बात यह कि इस तरह की भाषा आजकल कौन बोलता है। ऐसा लगता है जैसे गर्म कपड़ों के संदूक़ से निकाली गई भाषा हो।”
कमरे में सन्नाटा सा छा गया। किसी दूसरे साथी ने उस बोझिल लम्हे को तोड़ने की कोशिश करते हुए कहा, “आप नए नए आए हैं, इसलिए आपको इस बात का अंदाज़ा नहीं है कि यह कार्यक्रम श्रोताओं में कितना लोकप्रिय है।”
ईमानदार आलोचना का बीबीसी में हमेशा स्वागत किया जाता था। लेकिन अंग्रेज़ सहयोगियों की देखादेखी अपनी बात घुमा फिराकर और आलोचना को मख़मल में लपेटकर कहने-सुनने के आदी थे हम सब। इतनी स्पष्टवादिता, और वह भी एक नए युवा साथी के मुँह से, हम पुराने साथियों के लिए चौंकाने वाली थी। हमेशा शांत और संयमित दिखाई देने वाले कैलाश जी का चेहरा भी मुझे तमतमाया हुआ सा लगा। 
कैलाश जी सिर झुकाए ख़ामोशी से सबकी प्रतिक्रियाएँ सुन रहे थे। कुछ पल के मौन के बाद बोले,
“भई, इस तरह के प्लेबैक सेशन का मक़सद यही है कि लोग अपनी-अपनी प्रतिक्रिया दे सकें। मैंने आप सबकी बातें बहुत ध्यान से सुनी हैं और सारे सुझावों पर ग़ौर करूँगा। अब कैंटीन में चलकर चाय हो जाए दोस्त?”
मैंने एक बार कैलाश जी से पूछा था, “कैलाश भाई, आपको कभी ग़ुस्सा नहीं आता? 
मुस्कुराकर बोले, “दोस्त, मैं नीलकंठ विषपायी की तरह सबका ग़ुस्सा सोखने की कोशिश करता हूँ।”
कुछ वर्षों के बाद जब मैंने स्वयं बीबीसी हिंदी की अध्यक्षता का दायित्व सँभाला तो हर मुश्किल घड़ी में कैलाश जी अक्सर याद आते। 

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.