1- वही जियेंगे कल

एक युग बाद नदी की
देह में उतरी है धूप
उसके भीतर चमक रहीं हैं
मछलियों की आंखें
उसकी‌ मुस्कान‌ फैल गयी है
बहती पारदर्शी सतह पर
वह नहा रही है अपने ही जल में
कपड़े बदल रही है

आसमान ने अपने चेहरे से
धुंध की गहरी परत हटा दी है
उसका नीला रंग निखर आया है
बादल और सफेद हो गये हैं
बच्चों की कल्पनाओं के रूप धर
उन्मुक्त उड़ान भरते हुए

क्षितिज पर बर्फ से बनायी पेंटिंग
की तरह हिमालय काफी दूर से दिखने लगा है
मानो वह सैकड़ों मील दक्षिण खिसक आया हो

परिंदों की आवाजें तेज हो गयी हैं
जिन्हें जंगल के भीतर खदेड़ दिया गया था
वे अपनी सरहदें लांघ निकल आये हैं
गांवों, कस्बों और शहरों की सीमाओं तक
जंगल आदमी के पास आना चाहता है‌

अचानक बहुत चौड़ी हो गयी हैं सड़कें
सारा बोझ सिर से उतार कर
अनकहे सुनसान में भागती हुईं

कई खूबसूरत जगहें लाशों से पटी पड़ीं हैं
मुर्दाघरों और कब्रिस्तानों के बाहर
अपनी बारी के इंतजार में हैं लाशें
लोग जिंदा लोगों से बचकर निकल रहे
लोग लाशों से और भी बचकर निकल रहे
हर किसी को गले लगाना चाहती हैं लाशें

बहसें हो रहीं चारों ओर
कितना फासला रखा जाय मृत्यु से?
मनुष्य से बचकर क्या मृत्यु से बचना संभव है?
अकेले रहकर क्या मृत्यु को टाला जा सकता है?
किन चीजों में छिपकर आ सकती है मृत्यु?
क्या वह हवा में उड़कर भी आ सकती है?

इस बहस से बिलकुल अलग
मृत्यु का पीछा करते कुछ साहसी लोग
जान हथेली पर लिये
खुद ही सामने आ गये हैं
पर जिनकी मुक्ति के लिए लड़ रहे
उन्हीं के हाथों पत्थर खा रहे
हाथ भी कटवा रहे

बड़े- बड़े तानाशाह हांफ रहे
एक मामूली वायरस का कुछ नहीं
बिगाड़ सकते ताकतवर परमाणु बम
असहाय हैं पादरी, पुजारी और धर्माधिकारी
ईश्वर बेमियादी क्वारेंटीन में चला गया है
स्तम्भन, उच्चाटन और मारण मंत्र काम नहीं आ रहे
सारी क्रूरताएं और बर्बरताएं निरुपाय
याचना की मुद्रा में खड़ी हैं
जान बख्श देने की प्रार्थना करती हुईं

जो जीतना चाहते हैं इसे युद्ध की तरह
उनसे पूछो, पांडव भी कहां
जीत सके थे महाभारत
जीतते तो हिमालय से अपनी ही
मृत्यु का वरदान क्यों मांगते
१८ दिन का हो, २१ का या इससे भी लम्बा
युद्ध जब भी होगा, लोग मारे जायेंगे
और मौतों पर कोई जीत का उत्सव
आखिर कैसे मना पायेगा

जीतेंगे वे जो लड़ेगे
युद्ध टालने के लिए
भूख, बीमारी और मौतों से
लोगों को बचाने के लिए
कल सिर्फ वही जियेंगे
जो आज मरेंगे दूसरों के लिए

2- सड़क पर

उन्होंने सोचा ही नहीं
उन लोगों के बारे में
जो अपने घरों से बहुत दूर रहकर
अपनी मेहनत से देश बनाते हैं
मुल्क पर जैसे ही ताला लगा
हजारों लोग सड़क पर आ गये
उन्हें अंदाजा नहीं रहा होगा
कि वे सब चल पड़ेंगे

उन्हें बार-बार रोका गया
बीमारी का डर दिखाया गया
सड़कें बंद कर दी गयीं
डंडे बरसाये गये
कीटनाशक की बौछार की गयी
जब उन्हें किसी भी तरह
रोक पाना मुश्किल हो गया
तो आइसोलेशन के नाम पर
कैद में डाल दिया गया
मिलने-जुलने पर पाबंदी लगा दी गयी
भूखा रहने को मजबूर किया गया

जितने रोके गये, उससे ज्यादा
निकल आये सड़कों पर
दुनिया भौचक रह गयी
अनगिन पांवों को दुख भरी लय में
एक ही दिशा में‌ चलते देखकर

कुछ साइकिल से, कुछ रिक्शे से
और बाकी साहस बटोरकर
पैदल ही चल पड़े गाँव की ओर
अपना सामान, अपने बच्चे
कंधे पर सम्भाले हुए
भूख, दूरी, थकान और
मृत्यु को चुनौती देते हुए

कुछ रास्ते में मारे गये
धूप‌ और थकान से
कुछ ट्रक से टकराकर
कुछ नींद में ट्रेन से कटकर
रोटियां टूटे हुए सपनों की
मानिंद बिखर गयीं पटरी पर
जो बच गये, चलते रहे
नये काफिले आते गये
जीने की जिद बढ़ती गयी
गांव पास आते गये

जो सड़क पर होंगे
वे एक न एक दिन समझ ही‌ जायेंगे
कि सड़क एक संभावना है
वे समझ जायेंगे कि जैसे
सड़कें तमाम मुश्किलें पार
करती चली जाती हैं गांव तक
बिलकुल वैसे ही जा
सकतीं हैं संसद तक

1 टिप्पणी

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.