निशा सिमटी धीरे-धीरे, प्रखर हुए दिनमान के क्षण,

सर्द हवाओं में घुल गई, महुए की मादक सुगंध,

सरसों सज्जित खेत पीतांबर, पल्लवित सर्वत्र पुष्प अनुपम,

सेमल फूले ,फूले पलाश, मानो वनों में दहके अगन,

धनुर-बाण ले सजग अनंग, हुलसे प्रकृति दिग दिगंत,

देखो द्वारे ठिठका ऋतुराज  बसंत…!

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पुरवाई बहे मदगंधा, रस-पीगें झुलाएं रति-मदन,

उल्लासित-ऊर्जस्व हो उठे, नैराश्य संतप्त-बोझिल मन,

कुहासा शीतल चीरकर, दिनकर रश्मियाँ हुईं सघन,

आम्र वृक्षों पर लद गये बौर, कोकिला कुँजन चहुँ ओर,

कर वीणापाणि वंदन, ज्ञान का आशीष लें सब संत,

देखो द्वारे ठिठका ऋतुराज बसंत…!

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कुहासे का दुशाला छोड़़, वसुधा ने ली अँगड़ाई है,

बसंती पहरावे में, नवौढ़ा सी लजाई है,

जाड़े में ठिठुरती किरणें, सूर्य ने फिर तपाई हैं,

श्रृंगारित मनभावन धरा, सुरभित-मधुरित होआई है,

प्रकृति के हर रव-कण में, उल्लासित उमंग-तरंग अनंत,

देखो द्वारे ठिठका ऋतुराज बसंत..!!

अधिकारी, सूचना प्रौद्योगिकी, देना बैंक, भोपाल. संपर्क - arpanasharma.db@gmail.com

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