अरविंद केजरीवाल आई.आई.टी. से पढ़ा लिखा ग्रेज्युएट है; इंकम टैक्स कमिशनर रह चुका है; अन्ना हज़ारे स्कूल से डिग्री ले रखी है; और अब तो मुख्यमन्त्री पद का अनुभव भी है। उसने यस मिनिस्टर और यस प्राइम मिनिस्टर जैसे टीवी कार्यक्रम भी देख रखे हैं। वह राजनीति को अच्छी तरह समझता है। उसने शाहीन बाग़ पर एक वाक्य नहीं बोला और ना ही वहां के प्रदर्शनकारियों से मिलने के लिये गया। उसने भारतीय जनता पार्टी को पूरी तरह से शाहीन बाग़ पॉलिटिक्स में फंसा दिया।

दिल्ली के चुनावों में आम आदमी पार्टी ने 70 में से 62 सीटें जीत कर साबित कर दिया है कि अरविन्द केजरीवाल अब एक मैच्योर राजनीतिज्ञ हो चुके हैं। उन्हें चुनाव लड़ना आ गया है और वे चुनावों की नयी परिभाषा लिख रहे हैं।

दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी ने अपना पुराना आज़माया हुआ तरीका ही इस्तेमाल किया जो इस चुनाव में बुरी तरह फ़ेल हो गया। अमित शाह का चुनावी प्रचार कुछ ऐसा ही था जैसे मनमोहन देसाई या प्रकाश मेहरा अपनी 1970 और 1980 के दशक की फ़िल्में 2020 में बनाने की कोशिश कर रहे हों। 

भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने दिल्ली के चुनावों में इतनी निचले स्तर की भाषा का प्रयोग किया कि हैरानी होने लगी कि क्या ये अनुभवी राजनीतिज्ञ हैं! अमित शाह ने तो घोषणा ही कर दी कि यह चुनाव मोदी के नेतृत्व और केजरीवाल की सरकार के बीच है। यानि कि भारत के गृह-मन्त्री ने एक यूनियन टेरेटरी के चुनाव को राष्ट्रीय स्तर प्रदान कर दिया। यही भारतीय जनता पार्टी के लिये घातक सिद्ध हुआ।

अरविन्द केजरीवाल को आतंकवादी कहने से पहले भारतीय जनता पार्टी के सांसद प्रवेश वर्मा ने नहीं सोचा कि वे दिल्ली के मुख्यमन्त्री के बारे में बात कर रहे हैं। पूर्व में राहुल गान्धी, सोनिया गान्धी, मणिशंकर अय्यर, दिग्विजय सिंह  और कॉंग्रेस के अन्य नेता नरेन्द्र मोदी को गालियां दे दे कर अपनी पार्टी की क़ब्र खोदते रहे हैं। वे जितनी मोदी की बुराई करते रहे, कॉंग्रस का वोट शेयर कम होता रहा। 

प्रधानमन्त्री एवं गृहमन्त्री को इस बात का अहसास होना चाहिये था कि यदि वे इतनी बड़ी संख्या में अपने मंत्री और सांसद इस चुनाव में झोंकते हैं तो पूरी तरह से स्थानीय नेताओं – मनीष सिसोदिया, संजय सिंह, आतिशी वगैरह वगैरह को फ़िज़ूल में राष्ट्रीय स्टेटस प्रदान कर रहे हैं। 

अरविंद केजरीवाल आई.आई.टी. से पढ़ा लिखा ग्रेज्युएट है; इंकम टैक्स कमिशनर रह चुका है; अन्ना हज़ारे स्कूल से डिग्री ले रखी है; और अब तो मुख्यमन्त्री पद का अनुभव भी है। उसने यस मिनिस्टर और यस प्राइम मिनिस्टर जैसे टीवी कार्यक्रम भी देख रखे हैं। वह राजनीति को अच्छी तरह समझता है। उसने शाहीन बाग़ पर एक वाक्य नहीं बोला और ना ही वहां के प्रदर्शनकारियों से मिलने के लिये गया। उसने भारतीय जनता पार्टी को पूरी तरह से शाहीन बाग़ पॉलिटिक्स में फंसा दिया। 

आम आदमी पार्टी छोड़ कर भाजपा में आए कपिल मिश्रा ने छोटे छोटे पाकिस्तान वाला वक्तव्य दे कर रही सही कसर भी पूरी कर दी। दिल्ली के वोटर को समझ आ गया कि भारतीय जनता पार्टी केवल और केवल जुमलेबाज़ी वाली पार्टी है। काम करेगा तो केवल अरविंद केजरीवाल। 

भारतीय जनता पार्टी को मालूम था कि वे दिल्ली के सबसे लोकप्रिय नेता को मुक़ाबला देने जा रहे हैं। मगर उन्होंने दिल्ली की जनता को अपने नेता का चेहरा तक नहीं बताया कि यदि तुक्के से पार्टी जीत भी गयी तो मुख्य मन्त्री कौन होगा। यही सवाल भाजपा बार बार काँग्रेस से से पूछती रही है कि यदि यू.पी.ए. जीत गया तो प्रधान मन्त्री कौन होगा। मगर जब अपनी बारी आयी तो दिखाने के लिये कोई चेहरा ही नहीं था।

सच तो यह है कि प्रधान मन्त्री नरेन्द्र मोदी के चुनाव जीतने के बाद भारत के चुनाव भी काफ़ी हद तक अमरीका की तर्ज़ पर व्यक्ति केन्द्रित बन गये हैं। भारतीय जनता पार्टी को इस बात का ख़्याल रखना होगा और दिल्ली के चुनावों से सबक भी सीखना होगा। 

जल्दी से जल्दी भारतीय जनता पार्टी की मंत्री-परिषद की एक बैठक बुलाई जाए और जनता के लिये किये गये कामों की सूचना जनता तक पहुंचाई जाए। केवल देश-प्रेम और पाकिस्तान बैशिंग चुनाव नहीं जिता सकती।

उधर काँग्रेस का हाल तो ग़ज़ब ही है। उनके 63 प्रत्याशियों की ज़मानत ही ज़ब्त हो गयी। यानि कि उन्होंने भारतीय जनता पार्टी को बता दिया कि ना तो हम जीतेंगे औऱ ना ही भाजपा को जीतने देंगे। अबकी बार क्योंकि भारतीय जन्ता पार्टी के अपने मंत्री और प्रत्याशी निचले स्तर की भाषा का उपयोग कर रहे थे, इसलिये राहुल गान्धी का डण्डा मार बयान भी उनका कोई भला नहीं कर पाया। दरअसल अबकी बार राहुल से मुकाबला था ही नहीं। मुक़ाबला था केजरीवाल के सिपहसालारों से। और यह बात ना तो अमित शाह स्वयं समझ पाए और न ही अपने साथियों को समझा पाए। 

अब भारतीय जनता पार्टी को काँग्रेस की तरह व्यवहार नहीं करना चाहिये। उन्हें एक सकारात्मक विपक्ष की भूमिका निभाते हुए केजरीवाल को दिल्ली की जनता के हित में काम करने देना चाहिये। कहीं ऐसा न हो कि जनता भाजपा को ही विलेन मानना शुरू कर दे।

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.

2 टिप्पणी

  1. इस सन्तुलित और निष्पक्ष विश्लेषण के लिए सम्पादक को साधुवाद। पार्टी किसी की भी हो, वोट उसे ही मिलेगा जो काम करेगा। धर्म और जाति के नाम का वोट बैंक अब दिवालिया हो चुका है।

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