मैंने किल्लत देखी
ऑफिस के लिए भागती
मां देखी।
ना उसने दिन देखा
ना उसने रात देखी।
कागज के चंद टुकड़ों के
लिए हमेशा परेशान दिखी
किसी को भी खुश ना
कर पाई।
रिश्तेदारों के चेहरे पर
हमेशा शिकायत देखी।
मैंने मां देखी
हजारों आंसुओं को आंखों
मे रोके बाथरूम में
गंगा-जमुना बहाती देखी।
हमारी खुशियों के लिए
अपने अरमानों का गला
घोंटती देखी।
उसने ना दिन देखा
ना रात देखी।
मैंने मां देखी।
मेरी किताबों को
समेटती खुद में
सिमटती हुई
मैंने मां देखी।
पापा की डांट
दादा-दादी
के लिए खुशियों
को बटोरती देखी।
कहने को तो आत्मनिर्भर
है मां
फिर भी मजबूत कंधे
के लिए भटकती मां देखी
मैंने मां देखी।

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