बिना पैरों के
न जाने कितने मीलों का सफर तय कर चुका है
यह निष्ठुर समय,
सबको बदलता है,
किंतु अपने में रहते हुए
अपरिवर्तनशील।
एक नियत अंतराल पर सब वहीं होते हुए भी
कहीं और होते हुए।
वो कल चला तो था
पर आज पता नहीे
वो खुद चल रहा है या चला रहा है,
समय के पहिये को….
अब गांव महकने वाला है।
अब गांव चहकने वाला है।
बदलने वाली है
गांव की दशा और दिशा।
शहरों से लौटती हुई अर्थव्यवस्था
बताती है……
कि अब वे शहर हो चुकें है
खोखले…।
सुना था कि पटरियों पर रेल चलती है,
मगर मैंने देखा कि वहां जिंदगी भी चलती है।
और रोटी आज भी वहीें कहीे धूप में जलती है।
वास्तव में वह दो गाड़ियों की भिड़ंत थी,
एक माल ढो रहा था,
और एक जिंदगी ढो रहा था।
पर पता नहीे चला
किसने , किसको रौंद दिया,
और फौलाद को भी कमज़ोर सिद्ध कर दिया।

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