1 – रेत की लकीर
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आज भी पीते हैं ,
विष का प्याला -सुकरात।
लटका दिए जाते हैं ,
सूली पर – यीशु।
अट्टहास करते हैं
आदेश देने वाले।
चुपचाप गुमसुम
कराहती मानवता -कोने में।
दंभ भर , कूटते छाती
मानवतावादी , समाजसेवी
पकाते रोटी अपनी
पिला कर विष , लटका कर सूली।
सुनसान रह जाती गलियाँ,
दफ़न हो जाते शोरगुल।
बीतते समय के साथ
आँसू टपकते रहते – परिजनों के
सूख जाते कातर नयन
ख़ामोश रहते – कँपकँपाते होंठ।
अनंत काल –
यह ज़मीं – रह जाती
दलदली की दलदली।
बदलाव जितना ढूँढती – सभ्यता
उतनी ही निर्विकार नज़र आती।
पत्थर की लकीर समझ
जो खींची – वह
रेत की लकीर होती।
2 – भंवर
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मोड़ इसके – काफी नहीं जो,
बसा रखे भंवर इतने,
गोद में अपने ।
बस, ठान रखी डुबोने मेरी नाव ।
झरनों सी, पहाड़ों से गिर
बहाव में बहा दिए – किनारे कितने,
निगलती जा रही बदहवास – मैदानों को ।
आदत सी पड़ गई इसे,
उन्माद में – सूझता नहीं कुछ।
जाने कितने नाले, समो लिए खुद में
अब हो गई चक्रवाती ।
कोई लहर नहीं इसमें
ना ही छिपे, कोई मणि रतन।
फिर क्यों बावली सी – बदहवास ।
पर नाव मेरी भी अति अद्भुत
हर मोड़ इसके पहचानती
हर भंवर से मचलती निकल जाती ।
होड़ मची हो दोनों में
इसको – निगलने की
तो उसको निकलने की ।
दोनों का सफर – सागर तक
शांत, अनंत, विशाल ।
मुस्कुरा रहा, नदी के अठखेलेपन पर
नदी का निराला अंदाज – विभोर कर रहा उसे ।
अद्भुत तालमेल में गूंथ रखा,
भंवर, मोड़ – बहाव में अपने ।
छिपा, महत् प्रयोजन अपने गर्भ में
तैयार कर रही – जूझती नांव,
सागर के मिलन से पहले ।
जो अंजाम – सागर से मिलन का,
अवगत नदी पर अनभिज्ञ नांव।
आदरणीय अनिल जी!
आपकी दोनों ही कविताएँ बहुत अच्छी हैं। सामयिक चिंताएँ इन कविताओं में नजर आ रही हैं।
मानवतावादी , समाजसेवी आज भी अपनी रोटी ही पका रहे हैं।
जो इस कविता का प्लस पॉइंट लगा-
*सभ्यता उतनी ही निर्विकार नज़र आती*
*पत्थर की लकीर समझ*
*जो खींची- वह*
*रेत की लकीर होती।*
2-भंवर
यह कविता एक जीवन दर्शन की तरह लगी। वैसे तो नदी प्रतीकात्मकता में नारी का रूपक लेकर चलती है। और उसकी हर गतिविधि में नारी जीवन का सा अस्तित्व उसके संघर्ष नजर आते हैं।
किंतु कविता का शीर्षक भंवर रखा गया है। भंवर का अर्थ जीवन के ऐसे संघर्ष का संकेत देता है जिसमें मृत्यु की संभावना अधिक दृढ़ हो सकती है। किंतु कविता का अंतिम छोर उसके अंतर्मन में स्थित प्रेम के मधुर भाव को दर्शाता है।
संभवत: कवि मन यह कहना चाहता है कि जीवन के सारे संघर्षों के केंद्र में भी प्रेम और मिलन की आशा उसे हर पल उल्लसित करती रही जिससे सागर से उसका मिलन संभव हुआ। और शायद इसीलिए स्त्री भी सारे संघर्षों को प्रेम की अपेक्षा में सह जाती है।
बेहतरीन कविता के लिए आपको बहुत- बहुत बधाई।