Saturday, July 27, 2024
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शैलेश शुक्ला की कविता – चले गए गाँव श्रमिक

गलियाँ हो गईं सूनी और घरों में पड़ गए ताले
चले गए अब गाँव श्रमिक सब इनमें रहने वाले।
बरसों-बरस जहाँ था अपना खून-पसीना बहाया
उस शहर ने इस संकट में कर दिया इन्हें पराया।
सेवा में वो जिनकी तत्पर रहते थे दिन-रात
पड़ी मुसीबत तो किसी ने सुनी न कोई बात।
एक तरफ तो थी भयंकर कोरोना महामारी
और उस पर भूख ने भी थी बढ़ाई लाचारी।
दाना नहीं रसोई में, न जेब बचा कोई पैसा
भूख से बच्चे रो रहे, दिन आया अब ऐसा।
निकल पड़े सड़कों पर, लेकर पेट वो खाली
लाचार गरीबी से बढ़कर होती न कोई गाली।
लेकर साइकल या पैदल ही, करने लगे सफर
चलते रहे दिन-रात, रख कर सामान सर पर।
धूप-छांव की फिक्र बिना, सफर रहा ये जारी
साथ किसी का मिला नहीं, संकट था ये भारी।
टीवी पर भी बस इनकी चर्चा ही हो पाती है
बहुतों को तो रस्ते रोटी भी न मिल पाती है।
भूख-थकान से लड़ते-लड़ते, हो गए थे बेहाल
सड़कों पर ही सो जाते जब रुक जाती थी चाल।
जैसे-तैसे, सब कुछ सहकर, पहुँच गए अब गाँव
मिल जाए रोजी-रोटी और अपनी छत की छाँव।
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