होम कविता शैलेश शुक्ला की कविता – चले गए गाँव श्रमिक कविता शैलेश शुक्ला की कविता – चले गए गाँव श्रमिक द्वारा शैलेश शुक्ला - June 7, 2020 53 0 फेसबुक पर शेयर करें ट्विटर पर ट्वीट करें tweet गलियाँ हो गईं सूनी और घरों में पड़ गए ताले चले गए अब गाँव श्रमिक सब इनमें रहने वाले। बरसों-बरस जहाँ था अपना खून-पसीना बहाया उस शहर ने इस संकट में कर दिया इन्हें पराया। सेवा में वो जिनकी तत्पर रहते थे दिन-रात पड़ी मुसीबत तो किसी ने सुनी न कोई बात। एक तरफ तो थी भयंकर कोरोना महामारी और उस पर भूख ने भी थी बढ़ाई लाचारी। दाना नहीं रसोई में, न जेब बचा कोई पैसा भूख से बच्चे रो रहे, दिन आया अब ऐसा। निकल पड़े सड़कों पर, लेकर पेट वो खाली लाचार गरीबी से बढ़कर होती न कोई गाली। लेकर साइकल या पैदल ही, करने लगे सफर चलते रहे दिन-रात, रख कर सामान सर पर। धूप-छांव की फिक्र बिना, सफर रहा ये जारी साथ किसी का मिला नहीं, संकट था ये भारी। टीवी पर भी बस इनकी चर्चा ही हो पाती है बहुतों को तो रस्ते रोटी भी न मिल पाती है। भूख-थकान से लड़ते-लड़ते, हो गए थे बेहाल सड़कों पर ही सो जाते जब रुक जाती थी चाल। जैसे-तैसे, सब कुछ सहकर, पहुँच गए अब गाँव मिल जाए रोजी-रोटी और अपनी छत की छाँव। संबंधित लेखलेखक की और रचनाएं डॉ. हर्षा त्रिवेदी की तीन कविताएँ प्रेमा झा की कविता – माँ रश्मि विभा त्रिपाठी की कविता – सपने कोई जवाब दें जवाब कैंसिल करें कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें! कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें आपने एक गलत ईमेल पता दर्ज किया है! कृपया अपना ईमेल पता यहाँ दर्ज करें Save my name, email, and website in this browser for the next time I comment. Δ This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.