जैसे चाहे वह तन छूता।
उसको रोके, किसका बूता।
करता रहता अपनी मर्जी।
क्या सखि, साजन? ना सखि, दर्जी।
मन बहलाता जब ढिंग होती।
खूब लुटाता खुश हो मोती।
फिर भी प्यासी मन की गागर।
क्या सखि, साजन? ना सखि, सागर।
बार बार वह पास बुलाता।
मेरे मन को खूब रिझाता।
खुद को उस पर करती अर्पण।
क्या सखि, साजन? ना सखि, दर्पण।
पाकर उसे फिरूँ इतराती।
जो मन चाहे सो मैं पाती।
सहज नशा होता अलबत्ता ।
क्या सखि, साजन? ना सखि, सत्ता।
मैं झूमूँ तो वह भी झूमे।
जब चाहे गालों को चूमे।
खुश होकर नाचूँ दे ठुमका।
क्या सखि, साजन? ना सखि, झुमका।
आग ताप से कभी न डरता।
सास बहू के मन की करता।
दृढ़ शरीर पर रहता सिमटा।
क्या सखि, साजन? ना सखि, चिमटा।
सखि, वह रहता मस्त मलंगा।
साथ निभाए जब हो दंगा।
गाड़े सदा विजय का झंडा।
क्या सखि, साजन? ना सखि, डंडा।
त्रिलोक सिंह ठकुरेला समकालीन छंद-आधारित कविता के चर्चित नाम हैं. चार पुस्तकें प्रकाशित. आधा दर्जन पुस्तकों का संपादन. अनेक सम्मानों से सम्मानित. संपर्क - trilokthakurela@gmail.com

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