होम कविता त्रिलोक सिंह ठकुरेला की मुकरियाँ कविता त्रिलोक सिंह ठकुरेला की मुकरियाँ द्वारा त्रिलोक सिंह ठकुरेला - May 31, 2020 116 0 फेसबुक पर शेयर करें ट्विटर पर ट्वीट करें tweet जैसे चाहे वह तन छूता। उसको रोके, किसका बूता। करता रहता अपनी मर्जी। क्या सखि, साजन? ना सखि, दर्जी। मन बहलाता जब ढिंग होती। खूब लुटाता खुश हो मोती। फिर भी प्यासी मन की गागर। क्या सखि, साजन? ना सखि, सागर। बार बार वह पास बुलाता। मेरे मन को खूब रिझाता। खुद को उस पर करती अर्पण। क्या सखि, साजन? ना सखि, दर्पण। पाकर उसे फिरूँ इतराती। जो मन चाहे सो मैं पाती। सहज नशा होता अलबत्ता । क्या सखि, साजन? ना सखि, सत्ता। मैं झूमूँ तो वह भी झूमे। जब चाहे गालों को चूमे। खुश होकर नाचूँ दे ठुमका। क्या सखि, साजन? ना सखि, झुमका। आग ताप से कभी न डरता। सास बहू के मन की करता। दृढ़ शरीर पर रहता सिमटा। क्या सखि, साजन? ना सखि, चिमटा। सखि, वह रहता मस्त मलंगा। साथ निभाए जब हो दंगा। गाड़े सदा विजय का झंडा। क्या सखि, साजन? ना सखि, डंडा। संबंधित लेखलेखक की और रचनाएं वंदना यादव की कविता – आज मुझे दर्शक दीर्घा से कुछ लोग दिखे रेखा भाटिया की कविता – लैंप पोस्ट के पास सरोजिनी पाण्डेय की कविता – जीवन का पाथेय Leave a Reply Cancel reply This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.