मकान कितना मज़बूत है? इस बात की पहचान बरसातों में हो जाती है, और कोरोना ने तो आलीशान से आलीशान बंगलों की भी पोल खोल दी है। दुनिया के बड़े-बड़े देश, जो आर्थिक समृद्धि और सर्वोत्तम सुख-सुविधाओं का दम भरते थे, एक वायरस के आगे निःशस्त्र हैं। पैदाइश के लिहाज से हमसे बाद में अस्तित्व में आए ये देश, कोरोना से लड़ने में भले ही पिछड़े हों, लेकिन गरीबी और भुखमरी जैसी सतही किन्तु गंभीर समस्याओं से बहुत पहले ही निजात पाने में कामयाब हैं।
गौरतलब है कि द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) की समाप्ति के बाद यूनाइटेड नेशंस की स्थापना के साथ ही पूरी दुनिया ने शांति और वैश्विक विकास की अवधारणा पर काम किया। उस समय ताक़तवर देशों ने भी आर्थिक रूप से पिछड़े और परतंत्र देशों की मदद के लिए हाथ बढ़ाया। इन परतंत्र देशों में से एक देश हमारा भारत भी था, जो उस समय ब्रिटिशर्स की ओर से लड़ा और पराई लड़ाई में अधिकतम नुकसान उठा बैठा।
हालांकि आज़ादी मिलते ही देश के नेतृत्व ने वर्ल्ड बैंक और यूनेस्को की मदद से देश की आर्थिक और सामाजिक स्थिति को , यूरोपियन सिद्धान्तों के आधार पर सुधारने की कोशिश के मद्देनज़र पंच- वर्षीय योजनाओं का सहारा लिया जो , बहुत हद तक कामयाब भी हुआ । पर आज जितना भी आर्थिक और सामाजिक विकास हम देखते हैं, उसके पीछे सरकारों द्वारा वैश्विक मदद की सहायता से लगातार चलाए जाने वाले कार्यक्रमों का लंबा इतिहास है।
इसलिए यह प्रश्न उठता है कि आजादी के तेहत्तर साल बाद भी अरबों रुपए खर्च करके, ग़रीबी उन्मूलन और सामाजिक समरसता के लिए अब तक सैकडों कार्यक्रम चलाकर भी हम गरीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी जैसी समस्याओं का समाधान कर पाने में असमर्थ क्यो हैं? कम से कम आज मीलों पैदल चलते, भूखे, बेबस मज़दूरों की स्थिति देखकर तो यही लगता है।
एक- एक मजदूर परिवार में कम से कम दो से चार या पांच बच्चे हैं। खुद का भी पेट भरने में असमर्थ यह मज़दूर आज भी परिवार नियोजन के उपायों को मानने और अपनाने में या तो असमर्थ है या अपनाना नही चाहते।
इस सम्बंध में सामाजिक विकास कार्यक्रम जो लगातार शिक्षा, महिला सशक्तिकरण और परिवार नियोजन की जानकारी, समाज के निचले स्तर तक पहुंचाने के लिए वर्षों से चलाए जा रहे हैं, उनके परिणामों की समीक्षा किया जाना जरूरी है, खासकर तब जब हम सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में वैश्विक बदलाव का बहुत बड़ा हिस्सा हों।
ये चिंतन का विषय है कि सैकडों गरीब मज़दूर जैसे-तैसे आज अपने घर पहुंचना चाहते हैं, किन्तु क्यो इतनी बड़ी संख्या में ये लोग अपने घरों को, अपनी मातृभूमि को छोड़कर, मीलों दूर काम ढूढने निकले थे? क्या विकास की नीतियों के तहत औद्योगीकरण, मनरेगा, स्किल इंडिया, मेक इन इंडिया के प्रयोजन असफल रहे हैं? जो स्थानीय स्तर पर रोजगार उपलब्ध कराने का विश्वास दिला रहे थे?
आश्चर्य है कि बड़े- बड़े कल – कारखानों से लेकर मध्यम स्तरीय उद्योगों, बड़े- बड़े ठेकों व घरों में काम करके गुज़ारा करने वाले इन मजदूरों को अनिश्चित रोज़गार देने वाले लोग, जो रोज़गार उपलब्ध कराने के नाम पर स्थानीय और केंद्रीय सरकार से कितनी ही तरह की सहायता और लाभ लेते हैं, दो महीने भी बिना काम के मज़दूरी नही दे सके? और इनके लिए कोई नियम भी नहीं केवल अपील है!
यहाँ यह उल्लेख आवश्यक है कि द आर्गेनाईजेशन ऑफ इकनोमिक को- ऑपरेशन एन्ड डेवलपमेंट (OECD) द्वारा निर्धारित मानदण्डों के अनुसार कोई भी व्यावसायिक संस्था अगर अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को नज़रन्दाज़ करती है, तो उसका लायसेंस सरकार द्वारा रद्द किया जा सकता है,किन्तु दुर्भाग्यवश हमारे देश में किसी भी नियम का पालन कड़ाई से या अनुशासित रूप से नहीं किया जाता, इसीलिए सफल योजनाएं भी असफल हो जाती हैं।
कोरोना से लड़ाई भले ही विश्वयुद्ध न हो पर विश्वस्तरीय तो है ही, जिसने वैश्विक स्तर पर विकास के मायने बदल दिए हैं। आज ज़रूरत है, की विकास की अवधारणाएं पूरे विश्व के लिए एक जैसी भी हों और साथ ही उसमे हर देश की राजनीतिक,सामाजिक और आर्थिक ज़रूरतों के अनुसार लचीलापन भी हो। कोई भी विकास सामाजिक चेतना के बिना सम्भव नहीं है। इसलिए जरूरी है कि मूलभूत समस्याओं से लड़ने के लिए जन चेतना जागृत करने वाले कार्यक्रम नए सिरे से बनाए और चलाए जाएं । मसलन जनसख्या वृद्धि रोकने के लिए परिवार नियोजन हेतु महिलाओं में चेतना और बल पैदा किया जाना, ग्रामीण स्तर पर रोज़गार के अवसर के साथ ही युवाओ को अपने स्थान पर रहकर काम करने के लिए प्रेरित किया जाना, सामाजिक विकास में बड़े और छोटे व्यवसायिक उपक्रमों की अनिवार्य भागीदारी सुनिश्चित करना इत्यादि ।
बहरहाल, गाँधी जी द्वारा सुझाये गए आत्मनिर्भरता के सिद्धांत आज फिर प्रासंगिक हो गए हैं, क्योंकि कोरोना की मार के बाद सम्भावित वैश्विक मंदी से ,आत्मनिर्भर भारत ही लड़ पायेगा। पर क्या ये आत्मनिर्भरता वास्तविक होगी ? क्योकि हरित क्रांति के बाद खाद्यान्न में आत्मनिर्भर भारत ” वर्ल्ड हंगर इंडेक्स ” में हर साल नई ऊंचाई छू रहा है।
Strong Content I highly agree with you and it’s the right time to think widely about these issues as it will define our future and we have to be strong then before.
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