बेमतलब अर्थात सायास मैं कविता की दो पंक्तियों से दूर नहीं जा पाता ना ही अपने भावों को विस्तार दे पाता हूंँ या तो मेरे प्रयास मेरी भावों को भक्ष लेती हैं या भाव ही इतने प्रबल हो उठते हैं कि कविता चुप होना अच्छा समझती है इस जिक्र में सबसे अहम बात मुझे याद आ रही है कि मैंने हमेशा कविता के निर्माण में आलंबन ही ग्रहण किया है अर्थात कविता मेरी अधिकतर समर्पित है किसी अजीज…और बस अजीज ही के लिए यानी अजीज का जब मैं मरीज होता हूंँ- तब — उससे पहले या उसके बाद नहीं किसी प्रेरणा, फरमाइश, दबाव ने मेरी कविता की सोच में जरा-सी भी चिंगारी नहीं डाली है आज तक तो जरूर जो मैं अनुभव किया अपनी कविता में — तो कविता एक घाव है मेरे अंदर ।
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कविता एक घाव है साथ ही किसी समझदार का दाव है पर मेरे लिए तो घाव है जैसे पिचकारी में रंग भरकर उसे निकालते हैं दबाकर ठीक वही चीज मुझमें भी घटित होती है जब मैं दबाया जाता हूंँ अंदर से शब्दों के नाते कब अर्थ से जुड़ जाते हैं मुझे पता भी नहीं चलता कब दर्द बाहर तैरता है कब खौलता है पता भी नहीं चलता कि, पंक्तियों के बरामदे में शब्दों की सही नाप-जोख, सही तौल, कौन करता है पर मुझे याद है जब मैं या मेरी कविता पेन की स्याही से निकलते हैं तो मेरे भीतर एक दर्द ही होता है कभी हंसते हुए मैंने कविता नहीं किया इसलिए जब कोई मुझे पूछता है-कविता क्या है ? तब मैं अपने दर्द की व्याख्या से उसे समझाता हूंँ तो अनायास कविता परिभाषित हो उठती है कि – कविता एक घाव है..