Saturday, July 27, 2024
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अंजू खरबंदा की लघुकथा – बुलावा

ठक-ठक….!
“कौन ? दरवाजा खुला है आ जाओ ।”
“राम राम चन्दा!”
“राम राम बाबूजी! आप यहाँ!”
“क्यूं मैं यहाँ नहीं आ सकता?”
“आ क्यूं नही सकते ! पर यहाँ आता ही कौन है!”
“आया न आज ! ये कार्ड देने मेरे बेटे की शादी का !
“कार्ड ! बेटे की शादी का !”
“हाँ अगले महीने मेरे बेटे की शादी है तुम सब आना ।”
“……!”
“…और ये मिठाई सबका मुँह मीठा करने के लिये !”
कांपते हाथों से मिठाई का डिब्बा पकड़ते हुए चंदा बोली
“हम तो जबरदस्ती पहुँच जाते है शादी ब्याह या बच्चा पैदा होने पर तो लोग मुँह बना लेते हैं और आप हमें बुलावा देकर…!”
आगे के शब्द चंदा के गले में ही अटक कर रह गए ।
“चन्दा, बरसों से तुम्हें देख रहा हूँ सबको दुआएं बांटते !”
“…..!”
“याद है जब मेरा बेटा हुआ था तो पूरा मोहल्ला सिर पर उठा लिया था तुमने खुशी के मारे ।”
“हाँ! और आपने खुशी खुशी हमारा मनपसंद नेग भी दिया था !”
“तुम लोगों की नेक दुआओं से मेरा बेटा पढ़ लिख कर डॉक्टर बन गया है… और तुम सबको उसकी शादी में जरुर आना है !”
“क्यूं नही आएंगे बाबूजी! जरुर आएंगे ! आपने इतनी इज्ज़त मान से बुलाया है तो क्यूं न आएंगे!”
कहते हुए चंदा की आँखे गंगा जमुना सी बह उठी और उसका सिर बाबूजी के आगे सजदे में झुक गया ।
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