दिवाली के समय गाँव का
बाज़ार याद आता है
दुकानों पर सजे दीप-माला व
हार याद आता है।
पापा के साथ जाता था
कुम्हार की दुकान पर
बड़ी आशा में बैठा होता था
वो अपने स्थान पर।
बड़ी आशा से वो हमारी प्रतीक्षा करता था
बड़ी आशा से वो हमारी ओर देखता था।
आशा भरी होती थी उसके हर दीप में,
घड़े में, घड़े के ढक्कन में,
लुटिया में, खिलौने के हाथी में,
हम ख़रीदेंगे ये हौंसला भरा होता था
उसकी छाती में।
पापा ख़रीदते थे उससे चार मुँह वाला दीप
कलश के लिए घड़ा, एक छोटा एक बड़ा
बहुत सारे दीपक, छोटे लेकिन व्यापक
कुम्हार बग़ैर कहे घड़ा उठाता
और थोक के बजाता
कहता बाबूजी वो रहने दो ये नीक है
पापा कहते दे दो जो ठीक है।
सच कहूँ तो सामान के पैसे लेने पर
एक दुकानदार का धन्यवाद भाव
दूसरा आजतक ना देखा।
शायद, उस मिट्टी के दीप
बेचने वाले ने आज एक ठेला लगाया है
फिर से बिकती मिट्टी में आशाएँ तराशी हैं
एक आकार दिया है
दीप का नाम दिया है
लेकिन अब बाज़ार में बहुत भीड़ है
शायद उसका ठेला किसी गली में
बिज़ली के खम्भे के कोने में खड़ा होगा
पता नहीं वो ख़ाली होगा या ग्राहकों से भरा होगा 
लेकिन उसकी आशा में
कोई कमी नहीं होगी
आज भी हमारी प्रतीक्षा में
उसकी आशा वहीं खड़ी होगी।
क्या मैं कोशिश भी नहीं
कर सकता उसे ढूँढने का
या अब मैं आदि हो चुका हूँ
बचपन को भूलने का।

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