Saturday, July 27, 2024
होमकविताआशीष मिश्रा की कविता - शून्य है

आशीष मिश्रा की कविता – शून्य है

हवाई जहाज़ की खिड़की से
देखा तो कुछ दिखाई नहीं दिया
शायद आकाश में ही था
इसलिए आकाश नहीं दिखा
ना नीला, ना ख़ाली, ना भरा
ना चाँद, ना सूरज
एक तारा भी नहीं।
क्यूँ, ऐसा क्यूँ ?
क्या इसलिए कि मैं स्वयं आकाश था
या बाहर अँधेरा था
हो सकता है खिड़की ही बंद थी
शायद द्वन्द में थी।
या तो आँखें कुछ और देखना नहीं चाहती थी
वही जो मैंने हर बार देखा है
हर रोज़ संजोया है उस नज़ारे को
आज उनके और नज़दीक हूँ
लेकिन वे दूर हो गए, बिलकुल लुप्त।
क्यूँ ये सब शून्य है
लेकिन मुझे नहीं पता कि
शून्य कैसा है
काग़ज़ पर शून्य छोटा भी देखा है
शून्य को मोटा भी, पतला
लम्बा, चौड़ा भी!
तो कैसे मानूँ कि 
कुछ नहीं होना शून्य है
और अगर है तो
कौन सा वाला शून्य?
तभी नज़र नीचे पड़ी
मुझे दो बादल की टुकड़ियाँ दिखीं
दोनों अलग आकार की थीं
और अलग रंग की।
एक पर मानों
एक पंछी बैठा था
शायद वहीं रहता था
दूसरे पर एक सपना
पराया था या अपना
पता नहीं।
पता नहीं आगे कौन ले गया
थोड़ी देर में मैं मौन हो गया 
RELATED ARTICLES

1 टिप्पणी

  1. अच्छी कविता है आशीष जी! जब कुछ नहीं दिखाई देता तो बाहर भी अंधेरा रहता है और अंतरमन में खामोशी हो तो मन में भी अंधेरा ही रहता है ।
    वास्तव में यह अंधेरा ही शुन्य है, चाहे वह बड़ा हो या छोटा, चाहे अंदर हो या बाहर ।जब धीरे-धीरे परत हटती है तो अंधेरा साफ होने लगता है। शून्य खोने लगता है और वास्तविकता नजर आती है।

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Most Popular

Latest