यह मन के दीप जलने का समय है तुम कहां हो
प्राण में पुलकित नदी की धार मेरी तुम कहां हो
रंगोली के रंगों में बैठी हो तुम, दिये करते हैं इनकार जलने से
लौट आओ वर्जना के द्वार सारे तोड़ कर परवाज़ मेरी तुम कहां हो
लौट आओ कि दीप सारे पुकारते हैं तुम्हें साथ मेरे
रौशनी की इस प्रीति सभा में प्राण मेरी तुम कहां हो
देहरी के दीप नवाते हैं बारंबार शीश तुम को
सांझ की इस मनुहार में आवाज़ मेरी तुम कहां हो
न आज चांद दिखेगा, न तारे, तुम तो दिख जाओ
सांझ की सिहरन सुलगती है, जान मेरी तुम कहां हो
हर कहीं तेरी महक है, तेल में, दिये में और बाती में
माटी की खुशबू में तुम चहकती, शान मेरी तुम कहां हो
घर का हर हिस्सा धड़कता है तुम्हारी निरुपम मुस्कान में
दिल की बाती जल गई दिये के तेल में, आग मेरी तुम कहां हो
सांस क्षण-क्षण दहकती है तुम्हारी याद में , विरह की आग में तेरी
अंधेरे भी उजाला मांगते हैं तुम से, अरमान मेरी तुम कहां हो
यह घर के दीप हैं, दीवार और खिड़की, रंगोली है, मन के पुष्प भी
तुम्हारे इस्तकबाल ख़ातिर सब खड़े हैं, सौभाग्य मेरी तुम कहां हो
बहुत सुन्दर
बहुत ही अच्छी कविताएँ विमलेश जी कीं। सीढ़ियों का प्रयोग बढ़िया