पहली मुलाकात में तुमने कहा था—
“मैं साक्षात् कविता हूँ।”
तब मेरी आँखें आप-ही-आप
झुक गई थीं।
तभी अपनी उंगलियों को,
खोलते-बंद करते हुए तुमने कहा—
“चाहता हूँ यह कविता
मेरे गीतों में
पिघल-पिघल कर उतर आए।
तुम देखना, मैं तुम्हारे इस रूप को,
शब्दों में बाँध लूँगा ।
तुम्हारा यह रूप,
मुझसे एक अमर रचना की,
उम्मीद करता है
और तुम अमरता पा जाओगी।”
सच कह रही हूँ—
मैंने पहली बार अपने को सार्थक समझा।
मुझे लगा मेरा एक साहित्यिक मूल्य है !
***
दूसरी मुलाकात में तुमने कहा था—
“मैं तुम्हारी शक्ति हूँ।”
तब मुझे अपने नारी होने का
एक गहरा अहसास हुआ।
मेरी आँखों में अपनी आँखों को डालते हुए,
तुमने आगे कहा—
“तुम मेरी प्रेरणा बन गई हो।”
इस बार मेरी आँखें झुकी नहीं,
आप-ही-आप मुँद गई थीं।
***
तीसरी मुलाकात में तुमने,
मेरा एक गहरा आलिंगन लिया था।
याद करो, इसके लिए मेरी ओर से,
किसी तरह का विरोध नहीं हुआ !
मैं सिहर-सिहर गई,
मेरे रोम-रोम ने एक अभूतपूर्व
स्पंदन महसूस किया
और तुमने माथा चूमते हुए कहा था—
“मीता ! मैं जब भी तुम्हें देखता हूँ,
मुझमें एक कविता जन्म लेने लगती है।
तुम पिघलकर मुझमें आ जाओ,
मैं एक हो जाना चाहता हूँ।”
***
चौथी मुलाकात में तुम चुप-चुप रहे।
पर चलते हुए बोले थे—
“संभव है मैं तुम्हें जीवन में
पा नहीं सकूँगा !
पर तुम मेरे जीवन का,
एक महत्वपूर्ण अध्याय हो।”
इतना कहकर तुमने मेरी एक अल्हड़ लट को,
जो अपनी साथिनों से छूटकर,
चेहरे पर भटक आई थी,
छुआ और करीने से,
उसकी सखियों से मिला दिया।
तब मुझे पहली बार अनुभव हुआ—
“आज जो जितना निकट है पगली !
कल वह उतना ही दूर भी हो सकता है !!”
***
आज हमारी आखिरी मुलाकात है,
और तुमने कहा है—
“मैं तुम्हारी कमजोरी बन गई हूँ।”
और मैं सोच में पड़ गई हूँ—
पहले मैं तुम्हें कविता-सी क्यों लगी ?
फिर शक्ति और प्रेरणा कैसे बन गई ?
और अंत में…
—-
—–
जवाब दूँ ; सुन सकोगे !!
तुमने ही ‘प्रियप्रवास’ या ‘कामायनी’
पढ़ाते हुए कहा था एक दिन—
“साहित्यिक मूल्य परिवर्तनशील
होते हैं मीता !!
डॉ.हरनेक सिंह गिल
एसोसिएट प्रोफेसर,
दिल्ली विश्वविद्यालय,
दिल्ली ।
आपकी एक ही कविता पर नहीं लिखा जा सकता। पूरी पाँचवी मुलाकात तक पहुँचने पर ही यह कविता पूर्ण होती है।
पहली कविता को ही हमने कई बार पढ़ा शायद 6-7 बार।
हम इस दुविधा में थे कि
“मैं साक्षात कविता हूँ”
यहाँ कविता स्त्रीलिंग है।
हम समझ रहे थे कि कहने वाला प्रेमिका है या प्रेमी! दो-तीन बार पढ़ने पर भी उलझन में रहे ,फिर जब आगे पूरे भागों को भी पढ़ लिया तब समझ पाए कि जैसा हम समझ रहे हैं उससे बिल्कुल उल्टा है। कभी-कभी बहुत छोटी सी बातें भी उलझा दिया करती हैं। देर से समझ में आती हैं।
पहली मुलाकात को पढ़ने के बाद ऐसा लगा जैसे पुरुष लड़की से नहीं बल्कि उसके सौंदर्य से आकर्षित है और वह भी इसलिए कि उसे उस सौंदर्य में अपनी कविता नजर आ रही है। उस सौंदर्य में कवि को प्रेम नहीं, श्रेष्ठ सृजन की चाह नजर आती है।
उसका कहना
“मैं साक्षात कविता हूँ”
और उसके बाद भी रूप की ही बात हुई कि” रूप को शब्दों में गढ़ लूँगा। वह अपनी एक अमर रचना लिखना चाहता था और अगर वह लड़की से यह कह रहा था कि “तुम अमरता पा जाओगी”
तो यह सब प्रलोभन ही था।इसमें प्रेम नहीं है स्वार्थ है।
स्त्रियों का कोमल मन थोड़ी सी प्रशंसा से लचीला हो जाता है।
वह इतनी सी बात से प्रसन्न हो गई और उसे अपना साहित्यिक महत्व समझ में आने लगा।
दूसरी मुलाकात में सौंदर्य की वह मूर्ति शक्ति रूप से परिचित हुई।
उसका हौसला बढ़ा।
“तुम मेरी प्रेरणा हो”
यह सुनकर उसे प्रेम का अहसास हुआ और उसकी आँखें मुँद गईं।
लेकिन पुरुष तब भी कविता के सौंदर्य के प्रभाव में था। वह तब भी केन्द्र में रही।
वह कहता है-
“मीता! मैं जब भी तुम्हें देखता हूँ मुझ में एक कविता जन्म लेने लगती है।”
“तुम पिघल कर मुझ में आ जाओ
मैं एक होना चाहता हूँ।”
मीता ने इसे प्रेम समझा वह सिहर गई!प्रेम के स्पर्श का स्पंदन उसने रोम-रोम में महसूस किया।
लेकिन चौथी मुलाकात में ही खामोशी व्याप्त हो गई। मानो नायक ने सूचना दे दी कि तुम्हें जीवन में पाना संभव नहीं, पर तुम जीवन का महत्वपूर्ण अध्याय हो।
यह संकेत सूचना की तरह था।इसीलिए मीता सचेत हो गई और समझ गई कि जो आज पास है वह दूर भी जा सकता है।
पाँचवी मुलाकात आखिरी मुलाकात थी।
जब उसने यह कहा कि “मैं तुम्हारी कमजोरी बन गई हूँ।”
मीता सजग और सचेत हुई। पहले कविता, फिर शक्ति, फिर प्रेरणा और फिर…..।
और उसे याद आया कि प्रिय प्रवास या कामायिनी पढ़ाते समय उसने एक बार कहा था कि “साहित्यिक मूल्य परिवर्तनशील होते हैं।”
यह अंतिम पंक्ति संकेत करती है कि उसका कविता का काम पूरा हुआ। इसलिए उसे अब उससे कोई मतलब नहीं था।
मीता इस बात को समझ चुकी थी।
कविताओं में प्रेम का अहसास सिर्फ मीता को ही हुआ और उस अहसास के टूटने की पीड़ा को भी मीता ने ही महसूस किया।
कविता अपने संपूर्ण अर्थ में इसी भाव को प्रकट करते हैं कि किसी साहित्यकार को अपनी रचना के लिए किसी प्रेरण तत्व और सौंदर्य की आवश्यकता थी और जब उसे वहां मिला तो उसने उसका लाभ उठाया और काम होने के बाद वापस चला गया यहाँ पर नायिका ठगी सी रह गई।
सच्चाई उसके सामने आ गई थी।
इस पूरी कविता की पञ्च पंक्ति इस कविता की आखिरी पंक्ति है
साहित्यिक मूल्य परिवर्तनशील होते हैं!”
परिवर्तनशील इसलिए कि आज किसी में प्रेरणा नजर आई तो हम उधर चले गए लेकिन साहित्य में प्रेरणायेँ बदलती भी रहती हैं।
आपकी कविता का शीर्षक तो हमारे लिए अभी भी सवाल ही बना हुआ है यह कैसी परिभाषा है प्रेम की? कविता के लिए बहुत-बहुत बधाइयां आपको।
मन को छू लेने वाली कविता है,आदरणीय।
सृजन और साहित्य को मानव मन और संवाद से कितना खूबसूरत बन पड़ी है ,यह रचना।
बधाई हो।
आदरणीय हरनेक जी!
आपकी एक ही कविता पर नहीं लिखा जा सकता। पूरी पाँचवी मुलाकात तक पहुँचने पर ही यह कविता पूर्ण होती है।
पहली कविता को ही हमने कई बार पढ़ा शायद 6-7 बार।
हम इस दुविधा में थे कि
“मैं साक्षात कविता हूँ”
यहाँ कविता स्त्रीलिंग है।
हम समझ रहे थे कि कहने वाला प्रेमिका है या प्रेमी! दो-तीन बार पढ़ने पर भी उलझन में रहे ,फिर जब आगे पूरे भागों को भी पढ़ लिया तब समझ पाए कि जैसा हम समझ रहे हैं उससे बिल्कुल उल्टा है। कभी-कभी बहुत छोटी सी बातें भी उलझा दिया करती हैं। देर से समझ में आती हैं।
पहली मुलाकात को पढ़ने के बाद ऐसा लगा जैसे पुरुष लड़की से नहीं बल्कि उसके सौंदर्य से आकर्षित है और वह भी इसलिए कि उसे उस सौंदर्य में अपनी कविता नजर आ रही है। उस सौंदर्य में कवि को प्रेम नहीं, श्रेष्ठ सृजन की चाह नजर आती है।
उसका कहना
“मैं साक्षात कविता हूँ”
और उसके बाद भी रूप की ही बात हुई कि” रूप को शब्दों में गढ़ लूँगा। वह अपनी एक अमर रचना लिखना चाहता था और अगर वह लड़की से यह कह रहा था कि “तुम अमरता पा जाओगी”
तो यह सब प्रलोभन ही था।इसमें प्रेम नहीं है स्वार्थ है।
स्त्रियों का कोमल मन थोड़ी सी प्रशंसा से लचीला हो जाता है।
वह इतनी सी बात से प्रसन्न हो गई और उसे अपना साहित्यिक महत्व समझ में आने लगा।
दूसरी मुलाकात में सौंदर्य की वह मूर्ति शक्ति रूप से परिचित हुई।
उसका हौसला बढ़ा।
“तुम मेरी प्रेरणा हो”
यह सुनकर उसे प्रेम का अहसास हुआ और उसकी आँखें मुँद गईं।
लेकिन पुरुष तब भी कविता के सौंदर्य के प्रभाव में था। वह तब भी केन्द्र में रही।
वह कहता है-
“मीता! मैं जब भी तुम्हें देखता हूँ मुझ में एक कविता जन्म लेने लगती है।”
“तुम पिघल कर मुझ में आ जाओ
मैं एक होना चाहता हूँ।”
मीता ने इसे प्रेम समझा वह सिहर गई!प्रेम के स्पर्श का स्पंदन उसने रोम-रोम में महसूस किया।
लेकिन चौथी मुलाकात में ही खामोशी व्याप्त हो गई। मानो नायक ने सूचना दे दी कि तुम्हें जीवन में पाना संभव नहीं, पर तुम जीवन का महत्वपूर्ण अध्याय हो।
यह संकेत सूचना की तरह था।इसीलिए मीता सचेत हो गई और समझ गई कि जो आज पास है वह दूर भी जा सकता है।
पाँचवी मुलाकात आखिरी मुलाकात थी।
जब उसने यह कहा कि “मैं तुम्हारी कमजोरी बन गई हूँ।”
मीता सजग और सचेत हुई। पहले कविता, फिर शक्ति, फिर प्रेरणा और फिर…..।
और उसे याद आया कि प्रिय प्रवास या कामायिनी पढ़ाते समय उसने एक बार कहा था कि “साहित्यिक मूल्य परिवर्तनशील होते हैं।”
यह अंतिम पंक्ति संकेत करती है कि उसका कविता का काम पूरा हुआ। इसलिए उसे अब उससे कोई मतलब नहीं था।
मीता इस बात को समझ चुकी थी।
कविताओं में प्रेम का अहसास सिर्फ मीता को ही हुआ और उस अहसास के टूटने की पीड़ा को भी मीता ने ही महसूस किया।
कविता अपने संपूर्ण अर्थ में इसी भाव को प्रकट करते हैं कि किसी साहित्यकार को अपनी रचना के लिए किसी प्रेरण तत्व और सौंदर्य की आवश्यकता थी और जब उसे वहां मिला तो उसने उसका लाभ उठाया और काम होने के बाद वापस चला गया यहाँ पर नायिका ठगी सी रह गई।
सच्चाई उसके सामने आ गई थी।
इस पूरी कविता की पञ्च पंक्ति इस कविता की आखिरी पंक्ति है
साहित्यिक मूल्य परिवर्तनशील होते हैं!”
परिवर्तनशील इसलिए कि आज किसी में प्रेरणा नजर आई तो हम उधर चले गए लेकिन साहित्य में प्रेरणायेँ बदलती भी रहती हैं।
आपकी कविता का शीर्षक तो हमारे लिए अभी भी सवाल ही बना हुआ है यह कैसी परिभाषा है प्रेम की? कविता के लिए बहुत-बहुत बधाइयां आपको।