खंडहर हुए इन मकानों को देखती हूं
अपनी बेबसी बताते इन आशियानों को देखती हूं।
कभी लगते थे इन घरों में मेले
आज उजड़े हुए इन वीरानों को देखती हूं।
खाली पड़े सुनसान आंगन को देखती हूं।
फलों से लदे थे जो कभी
आज मुरझाए इन पेड़ों को देखती हूं।
कभी चहचाहते थे यहां पक्षी
उस आसमान को देखती हूं।
उड़ान के लिए तड़पते हैं
उस इंसान को देखती हूं।
कभी लगते थे जो सब अपने
उस भाईचारे को देखती हूं।
जिस पर पड़े खून के छींटे
उस लहूलुहान धरती को देखती हूं।
खंडहर हुए इन मकानों को देखती हूं।
झर-झर बहते शांत झरनों को देखती हूं।
अपनी खामोश कहानी बताते
नदी नालों को देखती हूं।
वापसी के लिए तड़पते
अपने बुजुर्गों के आंसुओं को देखती हूं।
चुप्पी साधे बिन कुछ कहे उन अधरों को देखती हूं।
खंडहर हुए इन मकानों को देखती हूं।
जो कहलाता था धरती पर स्वर्ग
उस कश्मीर को देखती हूं।
अपनी मिट्टी के लिए तरसते
उन नौजवानों को देखती हूं।
खंडहर हुए उन
मकानों को देखती हूं।
अपनी बेबसी बताते हुए
इन आशियानों को देखती हूं।