कुछ दिनों पहले फेसबुक पर मैंने अपने एक साथी मित्र गौरव पाण्डेय जी की पोस्ट पढ़ी कि ”तुलसी कृत ‘रामचरितमानस’ का पाठ किन मित्रों के घर-परिवार में कम-से-कम एक बार हो चुका है? नीचे टिप्पणी करें। ईमानदारी से कहें।” मैंने देखा कि उनकी इस पोस्ट पर बहुत सारे लोगों ने बहुत तरह की बातें कही-लिखी हैं। आदरणीया डॉ. सुधा त्रिवेदी जी का भी मैंने मत पढ़ा-जाना। फिर मेरे मन में आया कि मेरी भी तो आस्था श्रीरामचरितमानस को लेकर बचपन से ही बहुत प्रबल रही है! बात कहाँ से शुरू करूँ और क्या लिखूँ समझ में नहीं आ रहा था। बीते समय का लेखा-जोखा रखना और उसे शब्द देना इतना आसान है क्या! फिर भी लिखना तो था ही। स्मृति के अतल सागर में गोते लगाना शुरू किया। पाया कि बालपन में जब गाँव में बच्चे अभी गुल्ली-डण्डा, ओल्हा-पाती, चीका-बरगत्ता, ऊढ़ा-कबड्डी, चोर-सिपाही, लुका-छिपी आदि खेल खेलते रहते हैं; उस उम्र में ही मुझ पर ईश्वर की ऐसी कृपा रही कि मेरे कानों में जब कहीं श्रीरामचरितमानस के पाठ की आवाज पड़ती थी, तो मैं बरबस ही वहाँ खिंचा चला जाता था और घण्टे-दो घण्टे नहीं, बल्कि कभी-कभार तो पूरी रात और पूरा दिन वहीं बैठे रह जाता था। मौका मिला तो मानस का पाठ भी करता था। आज उस उम्र की बात याद आती है तो लगता है कि पाठ तो मैं क्या करता रहा होऊँगा, हाँ, जितना सहूर था, जितना ढंग था, उतना गायन करने का प्रयास किया करता था।
एक समय की बात याद आती है, तब मैं सम्भवत: छठवीं कक्षा का विद्यार्थी रहा होऊँगा। कहीं से एक बड़े साधु बाबा पूरे देश में यज्ञ कराते हुए मेरे क्षेत्र में पहुँचे थे। उनके साथ उनके अनेक शिष्य और भक्तों की मण्डली थी। बाबा का आभामण्डल बहुत तेज था। क्षेत्र में उनके बारे में चर्चा थी कि बाबा किसी संकल्प या अनुष्ठान के क्रम में अब तक एक सौ सात यज्ञ कर चुके हैं और यह उनके जीवन का एक सौ आठवाँ यज्ञ है, जो सम्भवत: उनका अन्तिम यज्ञ है। इस तरह की बातों को सुनकर लोगों के मन में उनके प्रति आस्था बढ़ी।
           बाबा जहाँ यज्ञ का आयोजन कराना चाह रहे थे, वहाँ लोगों की भीड़ बढ़ने लगी। इसी क्रम में पता चला कि बाबा श्रीरामचरितमानस का सम्भवतः चालीस दिन का अखण्ड पाठ कराने जा रहे हैं। जहाँ यज्ञ और श्रीरामचरितमानस का पाठ होना था, वहाँ से लगभग एक किलोमीटर बगल से होकर मेरे विद्यालय का रास्ता जाता था और जहाँ मेरा विद्यालय था वह स्थान यज्ञ-स्थल से यदि हवाई मार्ग की बात की जाये तो मात्र लगभग पाँच सौ मीटर की दूरी पर था। यानी कि वहाँ लगे माइक की आवाज मेरे कानों तक सहज ही पहुँचा करती थी और मैं मौका पाते ही दोपहर में, या छुट्टी के बाद, या कभी-कभार बिना स्कूल गये ही मानस की मधुर पंक्तियों के आकर्षण में खिंचा सीधे वहाँ पहुँच जाया करता था। उस समय वहाँ रामचरितमानस का जो पाठ चल रहा था उसमें सम्पुट के रूप में जो पंक्ति थी, वह थी- 
              “अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँती। सब तजि भजनु करौं दिन राती।।’
इस पंक्ति का न जाने क्या असर पड़ा, क्या जादू हुआ कि चालीस दिन के यज्ञ-काल के दौरान पूरे तीस-बत्तीस दिनों तक विद्यालय के समय में वहाँ बैठकर मैं ‘रामचरितमानस’ का पाठ किया करता था और जब छुट्टी का समय होता था, डर के मारे घर आ जाया करता था ताकि लोग जान न पायें। लगे हाथ यह भी बता देना चाहता हूँ कि रामचरितमानस-पाठ के प्रति मन में जो आकर्षण-भाव था, सो तो था ही, साथ ही पेट की आग भी वहाँ जबरदस्ती खींचे लिये जाती थी। वह आग जिसके बारे में कहा गया है कि ‘क्षुधा पीर सहि सकैं न जोगी।’ तो फिर, जिस आग को योगी-साधक भी नहीं साध-सह पाये, उस आग को भला मैं कहाँ सह पाता! वैसे भी ‘बुभुक्षित: किं न करोति पापम्’ (अर्थात् भूखा व्यक्ति कौन सा पाप नहीं करता!) वाली स्थिति नहीं थी। वहाँ तो-              
          “कवि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ। मति अनुरूप राम गुन गावउँ।।
           कहँ रघुपति के चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरत संसारा।।
               ****************************
            सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहे बिनु रहा न कोई।।
            तहाँ बेद अस कारन राखा। भजन प्रभाउ भाँति बहु भाखा।।”
वाली स्थिति थी।  
          उन दिनों मानस-पाठ में शामिल होने का बालमन पर प्रभाव यह पड़ा कि विचारों में धीरे-धीरे वैराग्य की स्थिति बनने लगी। एक दिन अचानक ऐसा हुआ कि बाबा के श्रीचरणों में जा पड़ा। मन में यह विश्वास था कि-      
              “जे गुरु चरन रेनु सिर धरहिं। ते जनु सकल बिभव बस करहीं।।”
साष्टांग प्रणाम करते हुए कहा कि बाबा सम्पुट की पंक्ति ने मेरे मन में जो स्थान बनाया है, जो सन्देश दिया है, उसे छोड़कर अब मैं आगे नहीं बढ़ सकता।
             “मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजें। सबु पायउँ रज पावनि पूजें।।
              अब अभिलाषु एकु मन मोरें। पूजिहि नाथ अनुग्रह तोरें।।”
         इसलिए आप मेरे ऊपर ऐसी कृपा करें कि मैं भी ‘सब तजि भजनु करौं दिन राती।’ वैसे भी मेरे पास ऐसा कुछ था नहीं कि महाराज दशरथ की तरह कह सकूँ-
               “नाथ सकल संपदा तुम्हारी। मैं सेवक समेत सुत नारी।।”
           यानी कि तजने के लिए मेरे पास कुछ था ही नहीं। मेरे जीवन की हतभागी कथा की पृष्ठभूमि तो माँ के गर्भ में मेरे आने के पहले से ही तैयार होने लगी थी। पिता की उँगली पकड़कर खड़े होने और चलना सीखने का भी अवसर नहीं मिल पाया था। बचपन से ही घर-परिवार और समाज की उपेक्षा मिली थी। इसलिए ‘एक भरोसो एक बल एक आस बिस्वास। एक राम घन स्याम हित चातक तुलसीदास।।’ जैसी पंक्ति में ही जीवन का सुख दीख रहा था। आशय स्पष्ट है कि मेरी जीवन-यात्रा में उस समय तक कुछ छोड़ने के लिए था ही नहीं। परिवार को छोड़ने-भूलने की बाबा द्वारा बात करने पर मैंने कहा कि बाबा वैसे तो मेरे पास छोड़ने (तजने) के लिए कुछ है ही नहीं और जो है भी, वह मेरा होकर भी मेरा नहीं है। मेरे मन में मानस की पंक्ति ने जो स्थान बनाया है, उसके परिणामस्वरूप अब मैं आपको छोड़कर यहाँ से जाने वाला नहीं हूँ। मुझे भी अपनी शरण में ले लीजिए। अब आपके साथ मैं भी रात-दिन भगवान का भजन ही करूँगा। लेकिन विधाता ने तो मेरे भाग्य में कुछ और कहानी लिख रखी थी। नतीजा, बैरागी बाबा मुझे अनुरागी बनाने के लिए समझा-बुझा कर घर वापस कर दिये।
      अलग बात है कि आगे चलकर बाबा क्षेत्र में खुद ही कुछ ऐसे रमे, कुछ ऐसा प्रेम पाये कि वह भी वैरागी से अनुरागी हो गये और प्रत्यक्ष रूप से न सही, अप्रत्यक्ष रूप से अपनी गृहस्थी वहीं बसा लिये। अब मैं उन्हें जब भी देखता हूँ तो मुझे लगता है कि अच्छा ही हुआ कि मैं बाबा का अनुरागी नहीं बना। कहावत है कि ‘आये थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास।’ यानी कि यदि बाबा उस समय मुझे अपनी शरण में ले लिये होते तो आज मैं भी उनके साथ शायद अपने ही क्षेत्र में कपास ओटता रहता। इसलिए ईश्वर जो करते हैं, वह अच्छा ही करते हैं।
बात चली थी ‘रामचरितमानस’ के पाठ की, तो मैं बताना चाहूँगा कि जिस बाबा की मैं ऊपर चर्चा कर चुका हूँ, उनके आने के भी बहुत पहले से जहाँ भी मानस का पाठ होता था, कानों में आवाज आती थी, मैं वहाँ पहुँच जाया करता था। अलग बात है कि मेरी सोच को लोग मेरी भूख से जोड़कर भी देखते थे। उन्हें लगता था कि मैं वहाँ शायद अपनी क्षुधा को शान्त करने के लिए पहुँचा हुआ होऊँ। लोगों का ऐसा सोचना निराधार भी नहीं था। किन्तु उन्हें शायद यह नहीं पता कि उनकी सोच आंशिक रूप से सच होते हुए भी सच से कोसों दूर थी। लोगों को यह नहीं पता कि मेरी जो भूख थी, वह भौतिक भूख कम और आध्यात्मिक भूख अधिक थी। उस भूख में भोजन की भूख होते हुए भी प्रभु श्रीराम के चरणों की भूख अधिक थी। प्रभु श्रीराम में भक्ति और अनुरक्ति की मेरी भूख का विस्तार कुछ इस कदर हुआ कि छोटेपन से ही जहाँ भी मैं गया, चाहे वह किसी रिश्ते-नाते में गया, या अपने संघर्ष के जीवन में कहीं भाग-दौड़ किया, या फिर कहीं कमाने-खाने गया, जहाँ भी रामचरितमानस का पाठ होता सुनायी दिया, मैं सारे काम-धाम छोड़कर वहाँ पहुँच जाया करता था। राम के प्रति भक्ति और मानस के प्रति आकर्षण बरबस ही मुझे उधर खींच ले जाया करती थी।
     ऐसा ही एक प्रसंग याद आता है, जब मैं राजकिशोर सिंह महाविद्यालय, बरुइन, जमानिया, गाजीपुर में पढ़ा रहा था और मेरा बड़ा बेटा अस्वस्थ चल रहा था। जनपद के एक ख्यातिलब्ध बालरोग विशेषज्ञ के यहाँ इलाज के लिए लेकर गया। दुर्भाग्य से उनकी किसी दवा या इंजेक्शन का रिएक्शन हुआ। नतीजा, बेटे को स्मृतिभ्रंश हो गया। हम पति-पत्नी विक्षिप्त मन रो-गा रहे थे। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है, या क्या होने वाला है। मन को शान्त करने के क्रम में पत्नी ने रोते हुए ही श्रीरामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड का पाठ करना शुरू किया। पंक्ति आयी-
           “मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी।।
            नाम लंकिनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निंदरी।।
            जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा। मोर अहार जहाँ लगि चोरा।।
             मुठिका एक महा कपि हनी। रुधिर बमत धरनीं ढनमनी।।”
यानी कि बात आयी कि हनुमान जी मच्छर का रूप धारण कर लंका में प्रवेश करना चाहते हैं और लंकिनी उन्हें रोकने का प्रयास करती है। ऐसे में हनुमान जी मुष्टिका-प्रहार से उसे धराशायी कर देते हैं। लंकिनी गिर पड़ती है। उसके मुँह से खून आने लगता है। इसी प्रसंग के दौरान बेटे की चेतना वापस आयी। मेरी तरफ मुखातिब होते हुए उसने बालसुलभ जिज्ञासा व्यक्त करते हुए कहा कि ‘पापा मच्छर का मुक्का कितना बड़ा होता है, मच्छर कितना ताकतवर होता है कि उसने राक्षसिन को मुक्का मारा और वह खून की उलटी करते हुए ढिलमिला कर पृथ्वी पर गिर पड़ी!’ इस प्रसंग के दौरान बेटे के होश में आते ही हम पति-पत्नी के मन में यह विश्वास उत्पन्न हुआ कि इस पंक्ति के कहने और सुनने से ही बेटे की चेतना वापस आयी है। वह होश में आया है, तो हम लोग अब से जीवन भर ‘रामचरितमानस’ का पाठ करेंगे। मन में एक संकल्प हुआ कि हम लोग प्रत्येक वर्ष श्रीरामचरितमानस का पाठ किया करेंगे। इस संकल्प के साथ ही मन में एक दुश्चिन्ता भी आयी कि यदि चौबीस घण्टे में अखण्ड रामचरितमानस का पाठ करायेंगे तो गाँव और आसपास वालों को भोजभात और भण्डारा देना होगा, जो कि हम लोगों के वश की बात नहीं है। एक तो, हम लोगों की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि हम लोग भण्डारा करा सकते। दूसरे, चौबीस घण्टे में स्वयं पाठ करने में व्यवहारिक समस्या नौकरी आदि में आ सकती थी। इसी के साथ आगे के सन्दर्भ में मन में यह विचार आया कि अपना काम, यानी कि अपनी नौकरी पहले जरूरी है, जिससे अपना और परिवार का पेट भरना है। इसलिए हम लोगों ने आपस में यह निर्णय किया कि जब तक कि हम लोग कहीं ठीक से व्यवस्थित न हो जायें, तब तक स्वयं ही हर साल नवरात्रि में ‘रामचरितमानस’ का पाठ किया करेंगे। व्यवस्थित होने के बाद चौबीस घण्टे का पाठ कराया जायेगा और सम्भव होगा तो भाई-दयाद, पट्टीदारी-बिरादरी के लोगों सहित गाँव-घर, समाज को खिलाने-पिलाने का काम होगा। फिर क्या! तब से, यानी कि वर्ष- 2006 से लेकर आज तक यह क्रम चल रहा है। हम लोग अभी तक अपने संकल्प को नियमित रूप से पूरा करते चले आ रहे हैं। इस प्रकार हर नवरात्रि में ‘रामचरितमानस’ पाठ करते हुए यदि मैं कहूँ तो चौदह साल तो ऐसे ही हो गये। यानी कि चौदह बार ऐसे सम्पूर्ण पारायण हुआ। इसके पहले एम.ए. की पढ़ाई करते समय मैं अपने शिक्षक डॉ. विनय कुमार दुबे के घर (कुचौरा, करण्डा) रहकर, उनके घर और पशुओं आदि का काम करके, वहाँ से आ-जा कर पढ़ाई कर रहा था। दुबे जी के घर में न जाने कितने वर्षों पहले से नवरात्रि में ‘रामचरितमानस’ का पाठ होता चला आ रहा था। इस तरह से वहाँ रहते हुए भी कई बार मानस-पाठ करने का अवसर मिला। इसके पहले चालीस दिन के यज्ञ के दौरान मानस के अखण्ड पाठ की बात बता ही चुका हूँ। जहाँ मेरी उपस्थिति लगातार होती रही और मैं पाठ करता रहा।
     इसी बीच यह भी बताना चाहूँगा कि ईश्वर की न जाने वह कौन सी कृपा मेरे ऊपर है कि आपको जानकर यह आश्चर्य हो तथा मेरी शायद अतिशयोक्ति लगे कि मैं यदि एक बार मानस का पाठ करने बैठ जाऊँ और मुझे वहाँ से कोई बहुत आग्रह या हठ करके न हटाये, या कोई बहुत आवश्यक कार्य न आये, तो पूरा पाठ खतम किये बिना मैं वहाँ से उठता ही नहीं। एक बैठे चौबीस घण्टे तक भी एक-दो बार पाठ किया हूँ। शायद आपको यह अत्यन्त मुश्किल और मेरा बड़बोलापन लगे, लेकिन मैं उसी ‘रामचरितमानस’ को साक्षी मानकर कहता हूँ कि एक बैठकी में मानस-पाठ सम्पन्न करने के क्रम में न बीच में कोई चाय-कॉफी, न पानी, न सौंफ, न लौंग-इलाइची, न मेवा-मिश्री। बस, पाठ तो पाठ। पढ़ने पर यह भले ही आश्चर्यजनक लगे लेकिन मेरे ऊपर ईश्वर की ऐसी कृपा है, तो है। एक बैठकी में चार-चार, छह-छह, आठ-आठ, दस-दस घण्टे तो जीवन में कई बार ऐसा अवसर है, जबकि मैंने मानस का पाठ किया है। जैसे, गाँव से बाहर किसी मन्दिर या सार्वजनिक स्थल आदि पर यदि मानस-पाठ हो रहा हो, रात का समय हो, पाठ करने वाला उँघने लगे, या वह थक गया हो और वहाँ से उठना-आराम करना चाह रहा हो, ऐसी स्थिति में वहाँ पहले से सो रहे या आराम कर रहे किसी व्यक्ति को उठाना चाहें और वह न उठ रहा हो तो मैं पाठ करने बैठ जाया करता था। धीरे-धीरे समय ऐसा आया कि इस बात को ध्यान में रखकर जहाँ भी मानस-पाठ होना होता था, वहाँ लोग विशेष रूप से मुझे बुलाने लगे। अन्धा क्या माँगे, दो नैन। मुझे भी खुशी होने लगी। भोर के समय में नित्य क्रिया आदि से निवृत्त होने अथवा पशुओं आदि को चारा-पानी डालने के लिए लोग अक्सर निकल जाते थे। जो पहले से हटे रहते थे, वे भोर की अपनी सुन्दर-सलोनी नींद को तोड़कर जगना-उठना नहीं चाहते थे। ऐसे में मुझे अपनी रुचि के अनुरूप पाठ करने का भरपूर मौका मिलता था। कभी-कभी ऐसा भी होता था कि पहले से पाठ कर रहे लोगों को छुड़ाने के लिए जब कोई आता था तो ऐसा लगता था कि कुछ लोग जबरदस्ती अपने को खींच रहे हों और ज्यों ही किसी छुड़ाने वाले को देखे, तुरन्त खिसक लिये। यानी कि सामने की गोल से बार-बार लोग बदलते रहते थे और जिस तरफ मैं रहता था, उस तरफ अकेले पाठ करता रहता था। इस तरह से जहाँ भी ऐसा अवसर मिले, मैं वहाँ सहर्ष पहुँचने लगा।
ऐसी स्थिति में कौन सी गिनती गिनाऊँ-बताऊँ कि मैं अब तक कितनी बार रामचरितमानस का पाठ किया हूँ, या मेरे घर में कितनी बार पाठ हुआ है! यह मेरा सहज और भोला विश्वास है कि मेरा ईश्वर सदैव मेरे साथ है। मेरे इर्द-गिर्द उसका एक मजबूत घेरा है, जो मुझे हर समय सुरक्षित रखता है। स्वस्थ रखता है। शायद यही कारण है कि मानस-पाठ के दौरान मुझे भूख-प्यास या किसी क्रिया की कोई इच्छा नहीं होती। रहा सवाल ईश्वर के प्रति आस्था या विश्वास का, तो एक नहीं हजारों उदाहरण मेरे सामने हैं, जिन पर मैं लिखूँ, अपने अनुभव साझा करूँ या पुस्तक का रूप दूँ तो मुझे लगता है कि दर्जन भर से अधिक पुस्तकें लिख जाने पर भी अनुभव खतम नहीं होगा।
एक छोटा सा प्रसंग बता देना चाहता हूँ कि वर्ष-2003 में गदाधर श्लोक महाविद्यालय, रेवतीपुर, गाजीपुर में पढ़ाते हुए बी.ए. (थर्ड ईयर) के भूगोल के विद्यार्थियों का शैक्षणिक भ्रमण हेतु मैहर, विंध्याचल और चित्रकूट टूर गया हुआ था। महाविद्यालय की तरफ से उस टूर में मेरा भी जाना हुआ। साथ में बड़े बेटे को भी ले गया था। बेटे की उम्र चार साल से थोड़ी अधिक रही होगी। जब हम लोग मैहर पहुँचे तो निर्णय हुआ कि शारदा मैया के दर्शन के पहले सब लोग स्नान कर लें। छात्राओं का दल राजनीतिशास्त्र की मैडम डॉ. पुष्पा राय के साथ पुरुषों की भीड़ से हटकर थोड़ी दूसरी तरफ गया और छात्रों का झुण्ड हम पुरुष अध्यापकों के साथ दूसरी तरफ। देश के अन्य हिस्सों से भी बहुत सारे दर्शनार्थी, भक्त और अन्य महाविद्यालयों के विद्यार्थी शैक्षणिक भ्रमण हेतु आये हुए थे। बेटे को दुलार-प्यार में छात्राएँ अपने साथ लेकर स्नान करने चली गयीं लेकिन नदी से स्नान करके वापसी के समय दुर्भाग्य से बेटा खो गया। वह शायद किन्हीं और छात्राओं के झुण्ड के साथ भ्रमवश चला गया था। स्नान करके जब सभी लोग पहले से तय स्थान पर एकत्र हुए तो बेटे को अपने बीच न पाकर मन बेचैन हो उठा। ईश्वर के प्रति एक प्रतिकार का भाव उठा। आस्था थोड़ी डिगी। मैंने मन ही मन भगवान से सवाल किया कि हे भगवान! मैंने आज तक यही सुना है कि जो किसी का अहित नहीं करता, उसका भी कभी अहित नहीं होता। फिर आखिर आज मैंने ऐसा क्या कर दिया, जिसकी इतनी कठोर सजा मुझे मिल रही है! अन्दर ही अन्दर मैंने एक संकल्प लिया कि हे माँ भगवती! यदि मेरा बेटा नहीं मिला तो आज से मैं आपकी भी पूजा नहीं होने दूँगा। चाहे इसकी सजा मुझे कुछ भी मिले। मैं आज आपकी मूर्ति अपने हाथों से तोड़ दूँगा, भले ही ऐसा करने में लोग मुझे मार डालें। ऐसा सोचते ही न जाने क्या हुआ कि मेरे मन को एक दिशा मिली और मैं भीड़ से हटकर उस ओर पागलों के समान भागना शुरू किया, जिधर मेरे महाविद्यालय की बस खड़ी थी। भीड़ को चीरते, कन्हैया-कन्हैया करते, पागलों की तरह रोते-बिलखते, बदहवास-सा किसी महिला, बच्ची, पुरुष, बच्चे, बूढ़े से लड़ते-टकराते, गिरते-पड़ते भागा जा रहा था। दिमाग चकरा रहा था। इस बात का मुझे उस समय थोड़ा भी भान नहीं था कि लोग मेरी मनोदशा को देखकर क्या सोच-समझ रहे होंगे! मेरी इस स्थिति का किसी ने कुछ बुरा नहीं माना। जहाँ भी लड़ा-टकराया, वहाँ सब लोग अगल-बगल हट जा रहे थे। सबने जगह दिया। कुछ दूर जाने पर मुझे अपना बच्चा दिखायी दिया। जहाँ भीड़ पूरी तरह से खतम होती थी, वहाँ से कुछ दूरी पर महाविद्यालय की बस खड़ी थी लेकिन दुर्भाग्य से एक ही रंग-डिजाइन की वहाँ और भी बहुत सारी बसें लाइन से खड़ी थीं। इसलिए बच्चे को शायद समझ में न आया रहा हो और साथ छूटने के बाद चाहे जैसे-तैसे वह वहाँ पहुँच गया रहा हो, लेकिन वहाँ जाने पर भी एक तरह की कई बसों को देखकर वह वहीं हताश मन रोते-सिसकते खड़ा रह गया हो। मेरी आवाज उसके कानों तक पहुँची और वह पापा-पापा कहते, दौड़ते और रोते हुए आकर मेरे सीने से चिपक गया।
    एक मेरा वह अनुभव, जब मैंने माँ से संघर्ष किया, झगड़ा किया कि हे माँ! अगर मेरा बेटा मुझे नहीं मिला तो मैं आपकी भी पूजा नहीं होने दूँगा। क्योंकि मैं जानता था कि- “तुलसी चातक ही फबै मान राखिबो प्रेम। बक्र बूँद लखि स्वातिहू निदरि निबाहत नेम।” मातारानी ने मुझसे मेरे बेटे को मिलाया। बच्चे को पाने के बाद दर्शन करने और सीढियाँ चढ़ने की बात आयी। मैंने माँ से विनती की कि हे माँ! मैंने सुन रखा है कि जो अहंकार लेकर आता है, वह आपका दर्शन नहीं कर पाता। सीढ़ियों से ऊपर चढ़ना उसके लिए कठिन हो जाता है। मुझे ऐसी शक्ति दीजिए कि मैं आपका दर्शन कर पाऊँ, क्योंकि मुझे तो बेटे को भी गोद में लेकर चढ़ना है। इतना कहना था कि बेटा ‘जय माता जी’, ‘जय माता जी’, ‘प्रेम से बोलो जय माता जी’ का जयकारा लगाते हर समय मुझसे एक सीढ़ी आगे रहते हुए मन्दिर पर पहुँच गया। दर्शन करने के बाद सीढ़ियाँ उतरते समय स्वयं ही मोहवश बेटे को गोद में लेकर नीचे उतरा। अन्यथा मातारानी की कृपा से वह तो उतरते समय भी उतनी ही खुशी से उतर रहा था।
इस तरह से मेरे जीवन की ऐसी कई घटनाएँ हैं, जब मैंने अपने ईश्वर को अपने साथ महसूस किया है। कभी प्रयाराज में लगे सदी के सबसे बड़े महाकुम्भ में पर्व-विशेष पर अखाड़े की भीड़ में शामिल होकर संगम-स्नान करने के प्रयास में साधुओं द्वारा धक्का देकर बाहर कर दिये जाने की स्थिति में अचानक बगल में घुड़सवार पुलिस का दीखना और घोड़े पर बैठाकर उसके द्वारा मुझे संगम तक नहाने के लिए ले जाना, नहवाकर वापस पहुँचाना और फिर मेरे द्वारा पीछे मुड़कर देखने की स्थिति में अचानक अदृश्य हो जाना; छोटे बेटे के अन्नप्राशन-संस्कार के अवसर पर कॉलेज-स्टाफ को भोजन कराते समय बहुत कम मात्रा में बन पायी खीर को पचासों लोगों द्वारा माँग-माँग और सराह-सराह कर खाने के बावजूद सबसे अन्त में हम लोगों के भोजन करते समय पात्र में जितनी खीर आरम्भ में बनी थी, उतनी ही खीर का बचा रहना; झिंगुरदह स्थित हनुमान जी का दर्शन करके पहाड़ी से उतरते समय तेज ढलान पर तेल बचाने के चक्कर में बाइक को चालू किये बिना नीचे उतरते समय बाइक का पलटना और बच्चे का उसमें पैर फँसने-दबने के बावजूद सुरक्षित बचना; इसी तरह 25 अक्टूबर, 2013 को हुए ट्रक और बाइक के एक्सीडेण्ट को देखकर लोगों का यह कहना कि आपको आपके हेलमेट ने बचा लिया। ऐसे में मेरा आस्थावादी मन कहता है कि चलो ठीक है, मुझे मेरे हेलमेट ने बचा लिया लेकिन मेरा छोटा बेटा जो उस समय मेरे साथ बाइक पर बैठा था और जिसकी उम्र मुश्किल से अभी चार-साढ़े चार साल की रही होगी, वह तो हेलमेट नहीं पहना था। दूसरे, वह बाइक पर आगे बैठा था। इस तरह से उसकी और ट्रक की दूरी मेरी तुलना में और भी कम थी। वह अपने सामने आती ट्रक को देख रहा था। कैसे उसके मस्तिष्क ने उस घटना को, उस दृश्य को बर्दाश्त किया होगा! कैसे उसके ब्रेन ने सँभाला होगा! और दुर्घटना हुई भी तो स्थिति ऐसी, जैसे बारिश में कोई व्यक्ति रास्ता चलते  फिसल जाये और कहीं थोड़ा सा कट-छिल जाये। हम लोगों को मामूली चोट आने के साथ जगह-जगह से रेनकोट थोड़ा-बहुत कट-फट गया था। बच्चे को तो देखकर ऐसा लग रहा था, जैसे उसे किसी ने गोद में उठाकर दूसरी तरफ रख दिया हो। मेरा मानना है कि यह श्रीरामचरितमानस के पाठ, प्रभु राम, शिव जी तथा हमारी मैया दुर्गा जी के आशीर्वाद और चमत्कार का ही परिणाम रहा कि हम लोग इस तरह से सकुशल बच गये। सचमुच मैं इसे उन लोगों का आशीर्वाद ही मानता हूँ। इस अनुभूति को वही जान सकता है, जिसे वह जनाना चाहता हो।
                ”सो जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई।।”
यह मेरी आस्था है और मुझे उस पर परम विश्वास है।
तकदीर की एक ऐसी ही घटना और याद आती है, जब होली के अवसर पर अचानक बड़ा बेटा बीमार पड़ा। लगभग डेढ़ वर्ष का था। आनन-फानन में डॉक्टर के पास लेकर भागना हुआ। पड़ोस के डॉक्टर ने बेटे को देखकर कहा कि बच्चा नहीं रहा। काम खतम हो चुका है। घर के बगल में शिव जी का एक छोटा सा मन्दिर था। जहाँ मैं रोज जल चढ़ाया और पूजा किया करता था। मन ने वहाँ भी शिव जी से झगड़ा किया, क्योंकि मैं तो ‘नहि जाचत नहि संग्रही सीस नाइ नहि लेइ, ऐसे मानी मागनेहि को बारिद बिनु देइ।’ का समर्थक था। उलाहना दिया कि हे प्रभु! यह आपने क्या किया! बच्चे को लेकर पत्नी उस समय अपने मायके में रह रही थीं। ऊपर जिस दुबे जी की चर्चा मैं कर चुका हूँ, उन्हीं का स्कूटर लेकर होली पर मैं कुछ कपड़ा-सामान, रंग-पिचकारी आदि लेकर पहुँचा हुआ था। होली मेरी नहीं सहती थी लेकिन मेरा मन इस तरह की बातों को नहीं मानता था और बच्चे के मोह में पहुँच गया था। अचानक बच्चे की स्थिति गम्भीर हो जाने से सब लोग घबड़ा उठे। बदहवास उसे लेकर मैं डॉक्टर के यहाँ भागा। अस्पताल जाते समय विचलित मन से रास्ते में यह जानने के लिए कि बच्चा वास्तव में जिन्दा है कि नहीं, मैंने स्कूटर रोक दिया। भगवान शिव को याद करते हुए मन ही मन मैंने कहा कि यदि मेरा बेटा ठीक नहीं हुआ तो कल से न मैं आपकी पूजा करूँगा, न किसी को करने दूँगा और आपका मन्दिर वगैरह सब तोड़ दूँगा। फिर, बच्चे के मुँह से मुँह सटाकर उसकी आहट लेना और उसकी ओर निहारना शुरू किया। अँधेरा हो चला था। बहुत साफ कुछ दीख भी नहीं रहा था। किसी अनहोनी की आशंका से मन डूबने लगा। मन ही मन प्रार्थना करने और देवी-देवताओं को गोहराने लगा कि हे भगवान! इस बार बचा लीजिए, बच्चे को अच्छा कर दीजिए। जीवन में दुबारा मैं ऐसी गलती नहीं करूँगा। यानी कि होली मनाने की कोशिश नहीं करूँगा। कुछ देर बाद बच्चे के मुँह से फुसफुसाने के रूप में बहुत धीरे से आवाज आयी- ‘पा…..पा!’ बच्चे के मुँह से पापा शब्द का सम्बोधन सुना तो जी में जी आया कि अभी बेटा जीवित है। उस समय मुझे लगा कि-
“मान राखिबो माँगिबो पिय सों नित नव नेहु। तुलसी तीनिउ तब फबैं जौ चातक मत लेहु।।”
उसके बाद की कथा-कहानी लम्बी है। इसलिए मैंने आस्था के केवल कुछेक बिन्दुओं की चर्चा की है और इस पर मेरा आज भी विश्वास कायम है कि मेरे प्रभु मेरे साथ हैं। साथ ही यह भी विश्वास है कि जब तक वे मेरे साथ हैं, मेरा कोई अहित नहीं होगा। मेरी जीवन-नैया के खेवैया मेरे प्रभु हैं। इसलिए मेरा यह पूरा जीवन मेरे प्रभु को समर्पित है। उनके जीवन-चरित को आधार बनाकर लिखे गये ग्रन्थ श्रीरामचरितमानस का पाठ मेरे जीवन को असीम सुख देता है। जब तक मैं रहूँगा, जब तक मेरी शक्ति और मेरी आँख काम करेगी, तब तक मैं मानस का पाठ करता रहूँगा।

8 टिप्पणी

  1. अत्युत्तम स्मृति लेख भगवान शिव, राम तथा माँ दुर्गा आप सबकी रक्षा करें।

  2. अद्भुत। अविस्मरणीय।आप पर अवश्य ही परमात्मा की कृपा है।मैं तो निरा निपट अज्ञानी हूं। इतना अध्ययन नहीं, उच्च कोटि के विचार नहीं पर तुलसीदास जी के शब्दों में इतना अवश्य कहूंगा —

    मो सम दीन न दीन हित।तुम समान रघुवीर।।
    अस विचार रघुवंश मणि।हरहुं विषम भव भीर।।

    कामिहि नारि पियारि जिमि।लोभहिं प्रिय जिमि दाम।
    तिमि रघुनाथ निरंतर। प्रिय लागहुं मोहिं राम।।

  3. अद्भुत। अविस्मरणीय।आप पर अवश्य ही परमात्मा की कृपा है।मैं तो निरा निपट अज्ञानी हूं। इतना अध्ययन नहीं, उच्च कोटि के विचार नहीं पर तुलसीदास जी के शब्दों में इतना अवश्य कहूंगा —

    मो सम दीन न दीन हित।तुम समान रघुवीर।।
    अस विचार रघुवंश मणि।हरहुं विषम भव भीर।।

    कामिहि नारि पियारि जिमि।लोभहिं प्रिय जिमि दाम।
    तिमि रघुनाथ निरंतर। प्रिय लागहुं मोहिं राम।

    • आपने पूरे लेख को पढ़कर जो स्नेहिल और उत्साहवर्धक टिप्पणी की, उसके लिए हृदय से मैं आपका आभारी हूँ सर।

  4. आप सभी का धन्यवाद। डॉ. चन्द्रशेखर तिवारी के बेहतरीन लेख पर आपकी टिप्पणियों के लिये धन्यवाद।

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.