उन्हें ख़तरा नहीं है भीड़ से वे जानते हैं भीड़ को हाँकना मनचाही दिशा में, वे जानते हैं भीड़ को कुचलना कीड़े-मकोड़ों की तरह।
उनके गलों में निवाले नहीं अटकते लाशों के ढेर देखकर।
वे पारंगत हैं भीड़ को भावनाओं के सैलाब में बहाकर अपने नाम के जयकारे लगवाने में।
लेकिन डरते हैं वे जब भीड़ इख़्तियार करने लगती है कोई चेहरा, वे भीड़ के आदिवासी-दलित में तब्दील होने से डरते हैं वे भीड़ के औरत में तब्दील होने से डरते हैं वे भीड़ के मज़दूर और किसान में तब्दील होने से डरते हैं।
तभी तो वे तब्दील कर देते हैं इन चेहरों को माओवादी में पाकिस्तानी में खालिस्तानी में देशद्रोही में।
अब पहले से भी अधिक ज़रूरी है कि हम पहचानते रहें चेहरे औरतों के, बच्चों के, आदिवासियों और दलितों के चेहरे किसानों और मज़दूरों के चेहरे सच के चेहरे इंसानियत के चेहरे ताकि चेहरों को तब्दील न किया जा सके भीड़ में।
2 – टोकरियाँ
वक़्त के सफ़हों को बस थोड़ा-सा पलटते ही दिखायी देते हैं अनुभव की लकीरों को समेटे हुए कुछ नर्म और ऊष्मा भरे, परिपक्व हाथ, मूँज और सवाई घास में उलझे हुए दादियों और नानियों के हाथ।
चार घड़ी, सखियों संग हँसते-बतियाते वक़्त इन्ही हाथों ने बुनी थीं हुनर, प्रेम और ज़रूरत के रंगों में रची-पगी छोटी-बड़ी टोकरियाँ और डलियाँ।
अपनी किसी पुरानी सूती साड़ी के एक टुकड़े को इसमें बिछाकर चूल्हे से उतरती नर्म-फूली रोटियाँ जब दादी धप्प से डालती टोकरी में तो रोटी से निकलती भाप समो जाती घास में जैसे समो जाता है दुःख मन में और फाँस तन में।
ये घास की टोकरियाँ ही थीं जो घण्टो बीतने के बाद भी अन्न को सहेजे रहीं उसके सबसे स्वादिष्ट और नर्म रूप में, यहाँ तक कि भाप या गर्मी से कभी नहीं पसीजी सबसे नीचे रखी गयी कुत्ते और गाय की रोटी भी, बेटियों की बिदाई में बहुओं की मुँह-दिखाई में ये गर्व से सँभाले रहीं लड्डू-खस्ता का मान, ये दादी-नानी का प्यार बनकर करती रहीं यात्रा देश-विदेश की।
वक़्त के साथ-साथ इन टोकरियों की चमक फीकी पड़ती गयी अब स्टील के कटोरदान या आकर्षक कैसेरोल की तरह इन्हें धोना-सुखाना तो संभव था नहीं, इन्हें दरकार थी ठीक से सहेजे जाने की वक़्त-बेवक़्त धूप लगाकर परंपरा के इन तागों को नमी और सीलन से बचाने की।
बहरहाल पहले ये रसोईघर से की गयीं बेदख़ल फिर घर के दूसरे कमरों से होते-होते बाग़-बग़ीचों की शोभा बढ़ाने लगीं और अंतत: बारिश के किसी नम दिन ये मिट्टी से सनी, सीलन भरी फेंक दी गयीं कचरे के ढेर में।
इन टोकरियों ने सिर्फ़ रोटियाँ नहीं सहेजी थीं इन्होंने सहेजी थी घर भर की भूख ये गवाह थीं न जाने कितनी ही खुशियों और ग़मकी, चूल्हे की आँच के साथ-साथ ये कुछ और पकी थीं रिश्तों की तपिश में, छलके बिना भी भरे रहने का हुनर था इनमें, मोतीचूर से भी अधिक मीठी कुछ पोपली मुस्कानें बंद थीं इनमें कचरे के ढेर पर भी वे कहाँ थीं अकेली? वे सहेज कर ले गयीं अपने साथ एक भरी-पूरी विरासत।
टोकरियों का बेदख़ल होना सिर्फ मूँज और सवाई घास का निष्कासन नहीं था ये निष्कासन था जीवन-संबंधो का, बेदख़ल हुआ दादी-नानी का हुनर बेदख़ल हुए ऊष्मा भरे प्रेमिल हाथ बेदख़ल हुआ जीवन का प्रकृति से नाता और घर की दहलीज़ पर दम तोड़ा संस्कारों ने।
सिर्फ प्रेम के मोल मिलती इन अनमोल टोकरियों को अब बाज़ार ने कुछ चमकाकर नया रंग-रूप चढ़ाकर काँच के शो-केस में सजाया है उनके नीचे बाकायदा हस्तनिर्मित “विरासत” का टैग लगाया है और हम नयी पीढ़ी के नये लोग अब खरीदते हैं मँहगे दामों में अपनी अनमोल विरासत ऑनलाइन।
3 – जीवन की कलाइयों पर तितली के रंग
कुछ खास काम नहीं था बगीचे में बस कुछ सूखे पत्ते और आधे मुरझाये फूल तोड़ कर फेंके कहीं से घास उखाड़ी कुछ गमलों में गुड़ाई की और चली आयी घर में।
कलाई के आस-पास एक हल्के से स्पर्श से चिहुँक उठी एक तितली चली आयी थी संग-संग कर रही थी चहलकदमी बेहद इत्मिनान से कभी कलाई, कभी हथेली तो कभी उँगलियों पर गरहोती कोई चिड़िया या बिल्ली होता कोई कबूतर, खरगोश या कुत्ता तो मैं साहस कर प्यार से छूती, सहलाती उसे पानी पिलाती मनपसंद भोजन भी खिलाती पर तितली को तो सिर्फ चकित हो देखा जा सकता था गर छूलेती उसे तो छूट जाते उसके रंग मेरी कलाई पर।
यूँ तो उसका उड़े बिना इस तरह हाथ पर चहलकदमी करना भी किसी जटिल कविता को समझने जैसा था वो पता नहीं किस भ्रम में आयी होगी पर मुझे तो उसके उड़ जाने में कोई भ्रम नहीं था।
बहरहाल मैं अपने हाथ को फिर ले गयी बगीचे में रखा उसे नाजुक हरी पत्तियों और फूलों के बीच और आँख बंद कर किया इन्तजार उसके वापिस किसी फूल पर चले जाने का।
उसके इस तरह आने और जानेके बीच झमके थे रंग प्रेम ने उघाड़े थे पट सूखे मन पर हुई थी एक नम दस्तक कहीं छलोछल भरे नीर में पट से उछल कर गिरा था जैसे कोई कंकड़ और छलक गया था नीर आँखों के किनारों तक। कुछ तितलियाँ ऐसे ही छोड़ जाती हैंरंग बिन छुए ही जीवन की कलाइयों पर।