विपदाओं को पीठ दिखाना कर्म नहीं है मानव का
बिना लड़े ही प्राण गंवाना धर्म नहीं है मानव का
मौत भले आयी हो सर पर दूर भागने लगती है
मानव प्रण के सम्मुख विपदा स्वयं कांपने लगती है
अगर बढ़ाकर हिम्मत थोड़ा मन की बात कही होती
मन हल्का कुछ हो जाता फिर निश्चित मौत नहीं होती
सबके जीवन में संकट कोई न कोई रहता है
साहस नहीं तोड़ता जिससे हर संकट को सहता है
सुख दुख है जीवन का संगम इससे कोई बचा नहीं
जिसने हार मान ली दुख से उसने कुछ भी रचा नहीं
मातु पिता को नहीं पता था क्या देना क्या लेना है
जिसको पाला पोस अब तक उसको कंधा देना है
मंजिल पाने के हित में शोलों पर पैर धरे होते
पाते सह अनुभूति मेरी यदि अपनी मौत मरे होते
मेरी कलम चला करती है स्वाभिमान के आदर में
मेरी कविता लिप्त नहीं रण छोड़ भाग के जाने में
यह कविता है बूढी आँखों के बेबस लाचारी की
बीच सफर में छोड़ गये जो केवल उस नाराजी की
यह कविता है मातु पिता के पावन उन संबंधों पर
जिनपर उनको जाना था वह लाश रखी जिन कंधों पर
हरदीप जी मर्मस्पर्शी कविताएँ है आपकी ।
लाजवाब बधाई हो