Sunday, October 6, 2024
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डॉ. संजीव कुमार की एक कविता

कहो ना किसलिए उत्पात
तुम इतना मचाये हो।
कि सारी धरती पर
भारी क़हर तुम सब पे ढाये हो।।
बदल कर रूप रंग.
हर बार तुम बीमार करते हो।
औ’ छुप कर चोरी से तुम,
सहसा सबकी साँसें हरते हो।।
तड़पते है निरीह प्राणी,
भला अपराध उनका क्या ?
नहीं है कारगर कोई दवा,
तब साध उनका क्या ?
हुआ मजबूर हर कोई
मदद कोई करे किसकी ।
न आक्सीजन, न इंजेक्शन
न बेड, बस पास हैं सिसकी ।।
नहीं है अस्पतालों में
जगह कोई मरीज़ों की ।
न शमशानों में अंत्येष्टि
ही कर पाते अज़ीज़ों की ।।
यहाँ लाखों, करोड़ों लाशों
का अम्बार दिखता है ।
भला तू किस तरह से
मौत का व्यापार करता है ।।
चले जाते हैं नंगे पाँव
पैदल सूनी राहों में ।
फ़क़त एक बोरी भर सामान
सर पर, बेटी बाँहों में।।
कि चाहे ट्रेन हो या बस
वहाँ मज़दूर ही मज़दूर ।
जो रोजी से हुये बाहर,
हुये सब भूख से मजबूर ।।
हुये सब बंद आफ़िस, फ़ैक्टरी,
जायें कहाँ जायें ।
भले हैं घोषणायें, राहतें
पायें कहाँ पायें ।।
न जनता को ख़बर कोई,
न सरकारों को कोई ज्ञान ।
कहाँ, कब. क्या करें,
कैसे करें, कोई नहीं अनुमान ।।
कहीं परिवार पूरा हो गया
कवलित, न कोई शेष।
केवल यादें बाक़ी हैं,
नहीं बाक़ी कोई लवलेश ।।
जनम जिसने दिया तुमको,
उसे फल भोगना होगा ।
करोड़ों आहों का शामिल
असर तो भोगना होगा ।।
अभी कर लो सितम,
एक दिन तुम्हें हमने भगाना है ।
जी हमने खोज ली वैक्सीन
बस सबको लगाना है ॥
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