Sunday, October 6, 2024
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हितेश सिंह की कविता – और भी हैं राहें

लकीर का फ़कीर अब बनना नहीं, और भी हैं राहें।
उस मंज़िल को गले लगाना, खड़ी है जो फैलाए बाहें।
उसको खोने का डर कैसा, पाकर जिसको ख़ुशी न आए।
बंधन सारे तोड़ है देना, जिसमें मन बंधना न चाहे।
होंठों पर वो धुन लानी है, जिससे गीत नया बन जाए।
हमको ऐसी ख़ुशबू बनना, जो पूरे जग को महकाए।
एक इबारत ऐसी लिखनी, सदियों तक जो मिट न पाए।
कश्ती ऐसी एक बनानी है जो सागर के पार लगाए।
हितेश सिंह
हितेश सिंह
वरिष्ठ उप संपादक, अमर उजाला, आगरा.
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