नहीं है कोई संवेदना मेरे पास फिर भी अभीष्ट हूं, क्योंकि मैं वरिष्ठ हूँ। स्वभाव से थोड़ा गरिष्ठ हूँ, फिर भी वरिष्ठ हूँ।
अभी कल ही की बात है… घटना घटी एक कनिष्ठ के साथ, नहीं था उस वक्त कोई उसके पास। वह कोई मामूली सड़क नहीं थी,था बाईपास।
किसी सिरफिरे चालक ने दिया था धक्का पीछे से, छटपटाता हुआ उठा वह बेचारा नीचे से।
किया फोन उसने कर्मस्थल पर… था पसरा सन्नाटा घटनास्थल पर। लगी पहुंचने लगातार संवेदनाएं, मैंने सोचा कि कहीं मेरे पास न कोई आए, और कहीं मुझे अपनी गाड़ी न भेजनी पड़ जाए। सभी साथी सुन हाल, थे स्तब्ध… और मैं? इसी सोच में था कि- मुझे ही न जाना पड़ जाए। क्योंकि मैं ही वरिष्ठ हूं।
उलझन-ओ-संवेदन के साथ चल पड़े दो-तीन साथी। और मैं?…………..करता रहा फालतू बात ही।
होने लगा समुचित वहां इलाज, और इधर? शुरू हो गई मेरे मुंह की खाज। आखिर मैं ही तो वरिष्ठ हूं।
इतने लोग गए क्यों वहां ? पढ़ाएगा फिर कौन यहां? क्योंकि मैं तो पढ़ाता नहीं साहब, केवल बुदबुदाता हूँ। और ‘स्वयंभू ऑलराउंडर’ कहलाता हूँ।
बजाय हाल पूछने के मैं इसमें मशगूल था कि- “इतने लोग गए क्यों वहाँ? खैर! ईशकृपा से स्वस्थ हुआ वह कनिष्ठ, और इधर……..बनता रहा मैं वरिष्ठ।
आखिर मैं सचमुच स्वभाव से थोड़ा गरिष्ठ हूं। नहीं है कोई संवेदना मेरे पास, फिर भी वरिष्ठ हूँ। क्योंकि…….. क्योंकि मैं वरिष्ठ हूं।