1. मैं अच्छा हूं या बुरा?
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दोस्तों ..आप ही बताओ
मैं अच्छा हूं या बुरा …
कौन तय करेगा यह
किसका है अधिकार?
क्या कोई  इंसान होता है
पूरी तरह  से सच्चरित्र
या फ़िर ब्रांडेड दुश्चरित्र!
क्या महसूसी है आपने भी
बुरे इंसान की अच्छाई और
बुराई,अच्छे इंसान की?
तभी मुझे याद आती है
बचपन में पढ़ी कहानी
कालजयी-खड़कसिंह और
बाबा भारती की!
मतलब क्या होता है जब
बुरा कहते हैं मुझे कुछ लोग
बहुत से मानते हैं अच्छा!
आखिर कौन तय करेगा यह
मैं अच्छा हूं या बुरा!
किसने, किसको कब कैसे
दे दिया है अधिकार?
भीड़ बना यह समाज?
उनके ही   तयशुदा नियम?
दूसरों के थोपे ,दूसरों के लिए
जबरिया चिपकाए प्रलाप?
अपने निजी सच के मुखौटों में
कुंठाओं के अट्टहास..ठहाके !
क्यूं मेरे लिए  हैं जजमेंटल ख़ुद
अपने,अजनबी और समाज?
सोचता हूं- कब मिलेगा अधिकार मैं अच्छा हूं या बुरा..आख़िर
करने का यह अंतिम फ़ैसला
मेरे अपने ज़मीर को?
मेरे अपने ज़मीर को?

2. बारिश पर एक लम्बी कविता                        
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चुम्बन लेने दो बारिश की बूंदों को
जगाते  हैं जो मेरे प्रेम के अनुराग को  !
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 बारिश की  बूँदें ही तो खोलती हैं
यादघरों के किवाड़ और झरोखे
आप और हमने किये हैं महसूस
किस्सागोई के रंग अनोखे !
ले चलता हूँ मैं ” बारिश के यादघर !
आपके कंधे पर हाथ रखकर
 खोल दीजिये अपनी  यादों के दरीचे
दस्तक देते हैं , पहली पायदान पर !

यादघर  -1
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 चुम्बन लेने दो बारिश की बूंदों को
जगाते हैं जो मेरे प्रेम के अनुराग को  !
सर पर  करने दो अठखेलियां
पिघली चांदी की उन बूंदों  को  
जो बनाती हैं  सड़क के दोनों पार
न जाने कितने नन्हे पोखर
बहता है तेज़ धार  गटर
खुले मेन  होल में यकायक
एक डॉक्टर को देता है मौत
न जाने कितने होते हैं ज़ख्मी !
फिर भी बारिश की बूंदों को
गाने दो मीठी – मधुर लोरियां
रात में वही  बूँदें छतों पर अनथक
गाती  हैं कोई निद्रा- गीत
 सुनो!  ध्यान दो उन बूँदों पर। …
 चुम्बन लेने दो बारिश की बूंदों को
जगाते हैं जो मेरे प्रेम के अनुराग को  !
यादघर  -2
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चुम्बन लेने दो बारिश की बूंदों को
तब   ! मैं बन जाऊं बूँदें बारिश की
जंगली फूल पर गिरती बूंदों सी
अविरल बरसूँ  मैं भी  तुम पर!
उड़ा दूँ यादों के सुप्त भ्रमर
हम-तुम में हो मुक्त  परागण
फूलों के गमकते बिस्तर बनकर  
देखो ! बूंदों ने झुका दिए हैं
भीगी  घांस के उत्तेजित सर
 जंगल का सारा सब कुछ
 हो चुका है पारदर्शी ,दावानल  सा!
और मैं……
बारिश की बूंदों से रति दग्ध
मैदान पर पसरे उन फूलों की
पंखुरियों  को कर ओष्ठबद्ध
जो झर -झर  बरसती हैं तुमपर
सच! बारिश की बूँदें बनकर!
और मैं। .. बनकर शरारती बूँदें
तुम्हारी पंखुरियों के  होठ मधुकेसर
छिपाकर अपने होठों में
लेता हूँ सोख  ,सारा अमृत  
समाया है जो  रोम- रोम में
धौंकनी की मानिंद मेरी साँसों में
दहकती हैं तुम्हारी सासें !  
और। .आतुर  बूँदें बनकर मैं
कराता हूँ तुम्हें आस्वादन
अपने आसमानी चरम सुख का
मैं जानता हूँ ….
तुम भी बनकर रतिरूपा बूँदें
 होकर  स्खलित और एकाकार
बूंदों से झरते शब्दों का  अर्थ
रख दोगी  मेरे तप्त अधरों पर!
और…. घुटनों पर झुका देगा मुझे
पावस कणों  का आल्हाद  ..
ओ मेरे ! वर्षा सिंचित पुष्प !
 चुम्बन लेने दो बारिश की बूंदों को
जगाते हैं जो मेरे प्रेम के अनुराग को  !

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यादघर -3
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 चुम्बन लेने दो बारिश की बूंदों  को
थपथपाती हैं जो प्यार से मुझे !
वह देखो! दूर पहाड़ी का शिखर
खामोश भीगता है बरखा में
जब बरसती है धार मूसल !
तब खुल जाते हैं कई यादघर !
मृत भावनाओं से  बहते रक्त  खेतों में  
अब भी सिसकती है नन्ही आकांक्षा
बायस से लथपथ मानव मस्तिष्क
उगलते हैं हवस के तीखे शर  !
वह देखो! अब भी हो रही है बारिश
सलीब पर लटके इंसानी सर पर
जो होने लगा है भावहीन  , बेअसर!
स्याह मेघों में छिपे हैं किसलय
धवल मानवता की चाह के!
 चुम्बन लेने दो बारिश की बूंदों को
जगाते हैं जो मेरे प्रेम के अनुराग को  !
यादघर  -4
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बूंदों के स्नेहिल स्पर्श की मानिंद
कैसे बरसीं थी तुम यकायक
मेरे जिस्म , केशों और आँखों पर!
और हुआ था हम दोनों को आभास
चार्ली चैप्लिन के गूँजित शब्दों का  ….
” I always like walking in the rains
So that no one can see me
crying … crying… crying !
सच! बारिश अगर हो आंसुओं की
बरसते है शायरों के नर्म दिल
नज़्र आते हैं भीगे-  अशआर बतर्ज़ –
” खुदा के वास्ते पोंछ लो अपनी इन आँखों के  आँसू
रहेगा कौन इन टपकते हुए मकानों में !
प्रकृति की छटाओं पर सदैव बरसे हैं
निराला , पंत  , महादेवी और , सुमन
फ्रॉस्ट , वर्ड्सवर्थ  , टेनिनसन, शैली
बहुभाषी  नक्षत्रों के शब्द सुमन  
सिखाया है जिन्होंने मानवता  को
मौसम के  रंग-संसार  का मन
वर्षा की जलधारा सी है काव्य धारा
 प्रकट करती है गूढ़ यथार्थ सारा
सो, धरती , नभ और  मेघ कहते हैं
चुम्बन लेने दो बारिश की बूंदों को
जगाते हैं जो मेरे प्रेम के अनुराग को  !

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यादघर  -5
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अरे ! यह कैसा आश्चर्य!
  शब्दों की प्रणयाराधना  की घडी  
बनकर  गुम्फित शब्दों की झड़ी
रचयिताओं की रूहों से भी
 बरखा की बूँदें अब रिसकर
समाने लगी हैं रोम- रोम में!
वह देखो!….उधर  देखो!तो ज़रा। ….
बहते पानी की उन  गलियों में
 तैर रही हैं कागज़ की नावें
ढलते  सूरज बन चुके इंसान
बदल गए  ,सब बच्चों में !
नौजवानों का बिंदास  रेन डांस
पकौड़ों , भुट्टों का  जमकर खुला चांस !
छू लिया है अंगूर की बेटी ने अब
प्यासे प्यासे होठों को …
 चुम्बन लेने दो बारिश की बूंदों को
जगाते हैं जो मेरे प्रेम के अनुराग को  !
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यादघर -6
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तुमने  भी कभी किया है महसूस
बरखा की अनवरत बूंदों में
नृत्य  , कोंपलों और  नवांकुरों  का  ?
नृत्य ,मेधा सृजित भावनाओं का ?
नृत्य ,ह्रदय और मस्तिष्क की  
धुन और लयबद्ध ताल का?
नृत्य ,मिटटी और पावस बूंदों के
समागम से प्रसूत सोंधेपन का?
 नृत्य ,किसलयों का  सहारा बनते
निर्जीव और कैक्टस  के  शूलों का?
नृत्य , किसानों की उम्मीदों का ?
 चुम्बन लेने दो बारिश की बूंदों को
जगाते हैं जो मेरे प्रेम के अनुराग को  !
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यादघर -7

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ठहरो। .. ठहरो। .. ठहरो !
बारिश बन जाए जब विभीषिका
बाढ़ मचाये प्रलय  तांडव
हो रूद्र प्रयाग सा मृत्यु – नर्तन
अवसाद भरा हो जनजीवन
बढ़ते रोगों का सुरसा मुख
आक्रान्त करे प्रतिपल – प्रति क्षण
पनिया अकाल की आशंका
बदहवास हो सारा तन- मन
अलख जगा ,आपदा – प्रबंधन
समाज और सारे प्रतिनिधि – जन !
ग़रीबों का दुःख- त्रासद  हरकर
सफल करें मानव जीवन

3.खुशहाल परिंदा ,सपनों को जीता
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खुशहाल परिंदा, सपनों को जीता
खुद से करता बातें अनथक
पिंजरे में कैद परिंदा प्रतिपल
प्रश्न- प्रश्न भूतों के भय से
खुद से बातें करने लगता
बंद दरवाज़े पर लगा टकटकी
पिंजरे में क़ैद परिंदा प्रतिपल
खुशहाल परिंदा , सपनों को जीता
*****
      खुशहाल परिंदा सपनों को जीता
क्या सच क्रान्ति नहीं कर सकता
पिंजरे में क़ैद असहाय परिंदा
अंतर्द्वंद्व से होकर निढाल भी
पर जिसपर है उसे भरोसा
सीने में धधकी ज्वाला ने
हर पल-हर क्षण ,उसको कोसा

खुशहाल परिंदा, सपनों को जीता
******
खुशहाल परिंदा सपनों को जीता
झुलसाते झोंके उसे भेदते
मन मसोसकर वह रह जाता
शीशों के बाहर देखा करता
उड़ -उड़ फहराती पञ्च पताका
पिंजरे में क़ैद परिंदा प्रतिपल
ख़ाक उड़ा आतिश धधकाता
खुशहाल परिंदा सपनों को जीता

******
खुशहाल परिंदा सपनों को जीता
भरकर उसने अग्निपुंज तब
सीने में ,दहकाई ज्वाला
लक्ष्य ठानकर फिर जुनून से
चोंच मार, तोड़ा दरवाज़ा
छोड़ हताशा ,अपने पंखों में
पिंजरे में वह क़ैद परिंदा
असमंजस और उहापोह से
आज़ाद हुआ ,वह मतवाला
खुशहाल परिंदा सपनों को जीता
*****
खुशहाल परिंदा सपनों को जीता
आकांक्षा के नभ मंडल में
प्रखर सूर्य से होकर ऊर्जित
उड़ चला लक्ष्य का पीछा करता
नैराश्य भाव की तोड़ बेड़ियां
नई सुबह की आज़ादी से
प्राणवान तब हुआ परिंदा
खुशहाल परिंदा सपनों को जीता
*****
खुशहाल परिंदा सपनों को जीता
अब पिंजरे से मुक्ति मिली तब
नव स्वप्नों के मुक्त मार्ग पर
भर उड़ान के सर्पिल वर्तुल
क्रान्ति गीत की गाता हर धुन
अब नहीं सींखचे,नहीं है पिंजरा
खुशहाल परिंदा, सपनों को जीता
खुशहाल परिंदा सपनों को जीता

4- अरे ओ!…. इंसान की औलाद !
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अरे ओ सूअर की औलाद
अबे ….गधे के बच्चे
गिरगिट की तरह तू रंग
बदलता है बदतमीज़!
सांप और नेवले भी भला
कभी हो सकते हैं दोस्त?
पानी में रहकर मगरमच्छ
से मत करो तुम बैर
घोड़े और घांस की दोस्ती
भला देखी है तुमने कभी?
एक ही मछली सारे तालाब को
कर देती है कितना गंदा
दीमक की तरह देश को
खोखला कर रहे हैं कुछ लोग
शतुरमुर्ग की मानिंद आंधियों में
रेत में कब तक ध॔साओगे सर?
कछुआ चाल चलोगे ज़िंदगी भर?
बिल्ली की तरह आंखें मूंदकर
कब तक पियोगे दूध?
अपशगुन! बिल्ली काट गई रास्ता
अरे ओ बेहया इंसान
सभ्य जानवर समाज ने भी
नहीं बनाईं अब तक कभी
अपमानित करने इंसानों को
कहावतें या विधान जैसा कुछ
और इंसानों! तुम सब के सब
और सड़ियल तुम्हारी सोच भी
” काॅल ऑफ द वाइल्ड ” – में
जैक लंडन के अक्षर दावानल ने
कर दी है पूरी तरह निपट नंगी
अरे !हम तो सदा ही रहे हैं दोस्त
दुनियावी मानव समाज के
बदनीयत इंसान क्यूं बन गया
आखिर दुश्मन इंसान का?
प्राणिजगत ने तो सीख ली सभ्यता
पर तुम इंसानों की देखकर बेशर्मी
शरमा गई है अब शर्म भी
करते हैं वादा,कर लो अपमानित
जब तक जिसे जितना भी चाहो
नहीं कहेगा एनीमल किंगडम का
एक भी सदस्य कभी आदमज़ात को
अरे ओ!…. इंसान की औलाद !

.
5 – अब भी हैं प्रश्न अबूझ, अनजान
=========

जमा लिए हैं चाँद की जमीं पर
अपने पुख्ता कदम साइंस ने
बोलो बोलो….  चन्दा मामा  दूर के
पुए पकाए भूर के ….
 बालगीतों का   स्पंदन बहुश्रुत
 पर साईंस की बात है अद्भुत !
नित नई खोज कर रहा  विज्ञान
अब भी हैं प्रश्न अबूझ, अनजान
******
चरखे वाली बुढ़िया दादी
देखो चाँद की थाली पर !
चाँद सा चेहरा क्यों शरमाया
हर्फ़  उतरते कागज़ पर
नित नई खोज कर रहा  विज्ञान
अब भी हैं प्रश्न अबूझ, अनजान
********
शेर , ग़ज़ल और फ़िल्मी गीत
चाँद बना सभी का मन मीत
अब सरहदें पार  रोमांस की अरे!
दर्शन , साहित्य की परिधि से परे
नित नई खोज कर रहा  विज्ञान
अब भी हैं प्रश्न अबूझ, अनजान
*******
विज्ञान  तलाशता है यथार्थ के सुर
रोमन देवी ल्यूना से   दूर sssss
अटल   सत्य अनोखे यही  हैं होते
अंतरिक्ष  मानव जो हैं  होते
एड्रिन और आर्मस्ट्रांग  कहलाते
पहला पग चाँद पर धर  देते
नित नई खोज कर रहा  विज्ञान
अब भी हैं प्रश्न अबूझ, अनजान

********
अबूझ व्योम  के अतल अंत में
अग्निपथ पर  जब लौह मशीनें  
सैटेलाइट ले जातीं  अनगिन
” ल्यूनर ”  के मशीनी मुसाफिर
उगलते हैं तब वहीँ से फ़ौरन
अंतरिक्ष के शोध मार्ग पर
सूचनाओं  का खरा – खजाना
विज्ञान पताका फहराना
नित नई खोज कर रहा  विज्ञान
अब भी हैं प्रश्न अबूझ, अनजान
*******
असमंजस के माया भ्रम में
पीढ़ी  -दर -पीढ़ी गोताखोरी
ज्योतिष – साइंस पर ….हाँ।
नहीं तो  ?
तब  होने लगते दावे  प्रतिपल
शुभ- अशुभ के मकड़जाल में
 दस रत्ती का मोती ले लो
ॐ श्रां श्रीं श्रौ सं चंद्राय  नमः
जजमान करोगे मन्त्र जाप तुम
 मिट जाएंगे विघ्न तुम्हारे !
उहापोह के प्रश्न तुम्हारे !
नित नई खोज कर रहा  विज्ञान
अब भी हैं प्रश्न अबूझ, अनजान
*******
समझो ,पूर्ण चंद्र  और  विज्ञान का रिश्ता
मनोरोग और चाँद का रिश्ता
पागलपन और चाँद का रिश्ता
ज्वार – भाटा  और चाँद का रिश्ता
मासिक धर्म और चाँद का रिश्ता
मत्स्य प्रणय और चाँद का  रिश्ता
हादसों   और चांद  का रिश्ता
खुद्कशीं और चाँद का रिश्ता
गहरी नींद और चाँद का रिश्ता
शल्य क्रिया में बहते खून से
क्या होता है चाँद का रिश्ता ?
मानव और विज्ञान का रिश्ता ?
नित नई खोज कर रहा  विज्ञान
अब भी हैं प्रश्न अबूझ, अनजान
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करवा चौथ पर चाँद निहारो
पर सोचो क्या कहता है साइंस
 देखो तुम सब चंद्रग्रहण  पर
खुली आँख से कभी न देखो
नित नई खोज कर रहा  विज्ञान
अब भी हैं प्रश्न अबूझ, अनजान
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प्रश्न करेगी नारी  जिस दिन
सचमुच  में क्या होता है  पैदा
कटे- फटे  ओठों का बच्चा
देखो जब तुम चंद्र का ग्रहण?
 समाधान की बात करनी होगी  
विज्ञान  सोच अब लानी होगी
नित नई खोज कर रहा  विज्ञान
अब भी हैं प्रश्न अबूझ, अनजान
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नित नई खोज कर रहा  विज्ञान
अब भी हैं प्रश्न अबूझ, अनजान

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आधा दर्जन से अधिक भाषांतर और संकलन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. कविता, कहानी आदि साहित्यिक विधाओं में सृजन जारी है.

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